निरपेक्ष
कल्पना करना
हमारा स्वभाव है-
और उसका खंडित हो जाना
उसकी नित्यता।
स्वप्न संजोना हमारी मजबूरी है
और स्वप्नों का टूटना
उसकी शाश्वतता।
असंभव को संभव करना
हमारी कामना है।
और संभव का भी असंभव हो जाना
हमारी बेबसी
और उसकी सत्यता है।
तभी तो हम जानते हैं
हमारे इस कैक्टस
और मनी-प्लांट पर
कभी फूल नहीं आएगा।
फिर भी केवल उसके
बढ़ने की ही आंकाक्षा लेकर
हम उसे ड्राइंग रूम की
शोभा बनाते हैं।
क्योंकि
‘फूल इस पर नहीं आयेंगे’
यह हम जानते हैं।
फिर भी
सत्य से आँखें मूँद लेना
हमारी आदत जो बन गई है।
और
सत्य को
असत्य में बदलना
इस दुनिया की
सबसे बड़ी मजबूरी बन गई है।
आज हम
वह कबूतर बन गए हैं
जो बिल्ली को सामने पा
आँखें बन्द कर
स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है, बिल्ली की सत्यता नकार कर।
ठीक उसी तरह हम भी
टूटने वाले मूल्यों
खंडित होने वाली आस्थाओं
विलुप्त होने वाले स्वप्नों से
सत्य से
आँख मूँद
स्वयं को निरपेक्ष महसूस करते हैं इन सबसे।
तुम्हारे शब्दों में
तुम्हारे शब्दों में
“मैं वर्तमान में जीता हूँ
और तुम (यानी मैं)
भविष्य में जीती हो।”
वर्तमान को जीये बिना ही
अनजान
अदृश्य
भविष्य के जीने की चिंता में
खो जाते हो बंधु तुम।
और तुम यानी मैं
इस भूत – वर्तमान
और भविष्य के
झंझावात में फँसी
ना तो ‘भूत’ को भूल पाती हूँ,
ना वर्तमान को जी ही पाती हूँ,
और ना ही भविष्य के प्रति
निश्चित हो पाती हूँ।
यानी
हालत यह है कि
किसी भी तो क्षण को
मैं पूरी तरह जी नहीं पाती।
तुम्हारे शब्दों में
मुझसे तो तुम्हीं श्रेष्ठ हो
भूत और भविष्य से अलग होकर
वर्तमान को ही सही
ठीक से जी तो लेते हो।
तुम मानते हो
वर्तमान को ही ‘भूत और भविष्य’
क्योंकि
भूत वर्तमान बन कर सामने आता है
और
भविष्य सामने घटता रहता है
तुम्हारा ही कथन था।
परंतु
मैं वर्तमान में चुकती हूँ
तुम्हारी तरह
जी नहीं पाती
वर्तमान को भूत भविष्य
सब मानकर।
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-पुष्पा भारद्वाज-वुड
