मिट्टी
खेलते-खेलते तुम से ही
खाते-खाते मिट्टी
तुम कब बन गईं
सबसे अच्छी दोस्त मेरी..!
लिबास पर बिखरी
केशविन्यास पर चिपकी
हथेलियों में रमी
तो मेरी रूह में कहीं जमी…!
जाना कहीं मैंने यूँ ही
तुझमें डूबने के लिए कहीं
होकर तुझ सी ही मैली
कितनी उज्जवल मैं ही होती रही…!
युवा मृग-मन में कहीं
बारिश की पहली
फुहार सोंधी-मिट्टी सी
कुल्हड़-चाय-चुस्की-सी
अपनेपन का अहसास देती
मुझमें ही है तू यूँ कहीं ..!
आज झुर्रियों के ऐसे ही
जंजाल में जब हूँ मैं घिरी..
आज भी नहीं आघाती
बातें करती तेरे प्यार की..!
अहसास है तेरा ही
यह तन है मिट्टी
मन भी मिट्टी
तैयार हूँ मैं भी..
होने को एकाकर तुझ में ही कहीं..!
काश बतला पाऊँ उन्हें भी
आने वाली अपनी नस्लों को भी
चमकदार-चिकने-आँगन कितने ही
पर अंत.. है.. कहीं..
मिल जाना मिट्टी
में ही कहीं….!
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-सुनीता शर्मा