लम्हा.. लम्हा..!
लम्हा-लम्हा यूं कटता रहा
वक्त हाथों से ज्यूँ फिसलता गया ..!
न जाने क्यूँ हमने वक्त
को, वक़्त से देकर वक़्त
वक़्त से ही यूँ खरीद लिया ..!
ऐसी बेची जाने ना
बचपन-नादानियां
क्यों-कब-कैसे-कहाँ
खरीद ली यहाँ
जिंदगी-परेशानियां..!!
वक्त ने भी कहा
जब वक्त का पहिया
कलाई पर बांध लिया..
तो चल, मैं ले चलूँ तुझे वहाँ..!
तब से समेटे-आंखों में समुद्र यहाँ
खारे-पानी का मोल पर.. क्या..?
तब ही तो जल-जल-जहाँ
जल ही जल ढूंढे जल कहाँ..?
रेत-नाम कहीं मेरा
जिंदगी-पानी में यूँ बह गया..
मुझे छूकर जैसे कोई गुज़र गया
लगा कितना-कुछ-कहीं बदल गया..!
वक़्त कहीं यूँ गुजर गया ..
यादें-गठरी-बोझ-छोड़ गया
मन-जहाज-पंछी हो गया
यूँ झुर्रियों का तजुर्बा दे गया..!
लम्हा-लम्हा यूं कटता रहा
वक्त हाथों से ज्यूँ फिसलता गया ..!
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-सुनीता शर्मा