वज्रपात 

कल्पनातीत कालातीत
सभा में खड़ी सोच
रही हूं मैं…
हे माँ कुंती !
तुमने मुझे क्या से क्या
बना डाला
कहां से कहां ला डाला..!!

‘बांट लो’ -कहते ही तुमने
मेरा वर्तमान – भविष्य
पतनागर्त कर डाला
तुमने मुझे क्या से क्या
बना डाला..
कहां से कहां ला डाला..!!

ना धरती कांपी
न डोला व्योम ही..
पर हुआ वज्रपात
मेरे सुंदर सपनों पर
झुलस गए मेरे सब भाव
दो-शब्दों-के बोलों से…!!

पर है मां कुंती !
तुम्हारे दो शब्दों ने
मुझे अर्धांगिनी से
भोग्या बना डाला…!!
हे माँ कुंती ! तुमने मुझे
दस हाथों में खेलने
के लिए मनोरंजन का
साधन बना डाला…!!
हे माँ कुंती तुमने मुझे
क्या से क्या बना डाला..
कहां से कहां ला डाला..!!

हे माँ कुंती !
तुमने क्यों मुझे घर में ही
कैसे वस्त्र हीन कर डाला
हे माँ कुंती !तुमने मुझे
क्या से क्या बना डाला..!!
कहां से कहां ला डाला..!!

मेरी भावनाओं को
मेरी संवेदनाओँ को
कोई कैसे समझ पाता?
मेरे दुख को – मेरी पीड़ा को
कोई कैसे अनुभव कर पाता…?

द्रोपदी से हुई मैं द्रोपा-
द्रोपा से हुई मैं ‘वस्तु’
इसीलिए है युधिष्ठिर तुमने मुझे
दाव पर लगा डाला.. !!
हे माँ कुंती !
तुमने मुझे इतिहास में
उपहास पात्र बना डाला..!!
हे माँ कुंती ! तुमने मुझे
क्या से क्या बना डाला..!!
कहां से कहां ला डाला..!!

आज सभा में कितने
दुर्योधन कितने दुशासन
कर रहे हैं निर्वस्त्र मुझे
स्वयं नारी होकर क्यों तुमने
मेरा सार्वजनिकीकरण कर डाला..!!

हे माँ कुंती ! तुमने मुझे
क्या से क्या बना डाला..!!
कहां से कहां ला डाला..!!
कल्पनातीत – कालातीत
सभा में खड़ी सोच रही हूं मैं
हे माँ कुंती !
हे माँ कुंती !

*****

-सुनीता शर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »