हे हरि

हरि अनंत हरि कथा अनंता
गुण गाऊँ कैसै भगवंता
मैं मूरख, अक्षर ना जानूँ
दीजौ ज्ञान, प्रेम बस मानूँ।
तू मेरे मन का, मनका है
समता का गुण तुझ से पाऊँ
जीवन अपना सरल बनाऊँ
निश्चल से स्वधर्म निभाऊँ
तेरी गाथा गाता जाऊँ
त्रिगुण योग मैं समझ ना पाऊँ
फल की आसक्ति मैं छोड़ू
निष्काम कर्म मैं करती जाऊँ
ज्ञान योग की अलख जगाऊँ
आत्मा अनात्म का विवेक हो
काव्य प्रेम से रचती जाऊँ
प्रेम भरे तेरे गुण गाऊँ।

मन मैं शुद्धि कर दे सारी
कोमल कर्म कृत्य कर जाऊँ
निस्वार्थ भाव से धर्म निभाऊँ
पग मेरा रहे धरा पर समतल
परमात्मा की शरणागति पाऊँ
जन्म मरण से मैं छूट जाऊँ

ना धन मैं संचय करना चाहूँ
बस प्रभु तू ही दिखता मुझ को
तेरे ही गुण गाऊँ
कामना का त्याग कर
मैं शरण तुम्हारी आऊँ।
चिंता नहीं मैं चिंतन करती
हरि नाम को मन में भरती

स्वर्ण नहीं चाहूँ मैं देव
बस कंचन मुझे बनाना
उठा तूलिका किन रंगो से
भर दूँ तुझ को कृष्णा
देव करो कुछ ऐसा
मन से भागे सारी तृष्णा।

मन का मनका जोड़ कर
प्रभु अक्षर ढूँढ़े मैंने
मेरे मन के हर अक्षर में
हरि मनका बन कर बैठे

मेरे मन में अलख जगा दो
ज्ञान का दीपक मन में जगा दो
अपने अश्रु से चरण धुलाऊँ
हृदय पुष्प पग में बिखराऊँ
राधा सी रंग में रंग जाऊँ
मीरा जैसी भक्ति पाऊँ
देव ध्वनि बस सुनती तेरी
मन के भीतर “हरि ओम्” मैं बुनती
तेरी काव्य रचना का लेखन मैं कैसै कर पाऊँ
अक्षर अक्षर जोड़ कर प्रभु तेरे ही गुण गाऊँ।।

*****

-मधु खन्ना

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »