दंगों वाली रात

छलनी करती कुछ यादें सीने को
पर याद न वो दिल से मिटने पायें
कुछ ज़ख़्म दिल के सदा रिसते हैं
रिसने दो, घाव ना वो भर जायें

भूल नहीं पाती आँखें उन रातों को
जब मानवता सड़क सरे आम लुटी
नन्हे शिशुओं, अबला महिलाओं को
कुचल डालने को तत्पर भीड़ जुटी

चीख़ें उठती जो कानों को पिघला जायें
बधिर पशु के से कानों को पर न छू पायें
कुछ ज़ख़्म दिल के सदा से रिसते हैं
रिसने दो, घाव ना वो भर जायें

कल जिस गली भाईचारे के क़िस्से चलते थे
वहीं आज कितने मासूमों के घर जलते थे
अग्नि की लपटों में शांति की चादर ख़ाक हुई
दोस्त पड़ोस की परिभाषा क्षण में राख हुई

जलने की पीड़ा कैसे समय कभी हर पाये
चीत्कारों की गूँज मन सीने में भर जाये
कुछ ज़ख़्म दिल के सदा से रिसते हैं
रिसने दो, घाव ना वो भर जायें

क्या संघर्ष ये मात्र कुछ पीड़ित जनों का है
व्यथा का विष बस कुछ अभागे अधरों का है
जो कल कहीं हुआ, वो कल यहाँ घट सकता है
मुखौटा भक्षकों का किसी भी पल हट सकता है

फटने दो आत्मा अपनी, नीदें अपनी भी उड़ जायें
रिसते घावों की पीड़ा से कुल-समाज अब जुड़ जाए
लपटों में दर्द के जल, दृढ़ संकल्प ये कर जायें
बचाएँ कल को पिशाचों से, या बलि आप चढ़ जायें

*****

– संदीप कुमार सिंह

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »