चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

जीवन के दीर्घ विस्तार समान
फैले इस अनंत आसमान
की इस मधुमय सावन-संध्या में
शायद मुझ सी बिन साथी हो
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

पावस का मेघमय सांध्य गगन
मानों नीरव उर का सूना प्रांगण
दूर क्षितिज निहाराते थके नयन
मधु-स्मृतियों में तुम खो जाती हो?
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

जाने क्यूँ हैं निश्चल अम्बर अवनी
तमस चादर ओढ़े विकल है रजनी
अंतर क्यूँ व्यथि त विरहाकुल सजनी
विरह व्यथा में जलती कोई बाती हो?
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

मन के तारों को छू रहती ख़ामोशियाँ
अँधेरी रातों में संग बस तनहाइयाँ
ग़मगीन चेहरे को ढक लेती परछाइयाँ
लगे चाँदनी रात काश अब न बाक़ी हो?
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

प्रतीक्षा शेष अभी, क्या बाक़ी कोई तलाश है
वीराने में क़दमों का मद्धम यह एहसास है?
वादों के पतझड़ में वसंत की क्या आस है?
सपनों की मिथ्या में सत्य की अभिलाषी हो?
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

ओ प्रिय चिन्मय की मृण्मय अनुरागिनी
ओ सघन घन में निहित चपल दामिनी
सलिल छलकाती ये तेरी दृग यामिनी
क्यूँ हृदय में स्वप्न लोक बसाती हो?
चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो?

अविरल आशा से स्पन्दित अन्तस्तल
विश्व को आलोकित करता प्रनयानल
शुष्क जीवन आँगन भिगोते अश्रु बादल
अप्रतिम प्रेयसी, अब तो तुम मेरी साथी हो
नहीं चंदा, अब तुम नहीं एकाकी हो!!

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संदीप कुमार सिंह

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