यह भान किसे

उसके सपनीले धागों में
मैंने स्व मन के मोती धरे
जो माला बनी, वो उसने धरी
थे मनके किसके यह याद किसे।

रातों के गहरे आँचल में
कुछ उज्ज्वल से तारे सजे
वे टिप टिप कैसे चमक रहे
कौन जल रहा यह भान किसे

आँखे तो लबालब भरी रहीं
वे न छलकें ये“ थे यत्न बड़े
क्यों लब खिले, नेत्र मुंदे रहे
यह थाह किसे, यह ज्ञान किसे।

*****

– शिखा वार्ष्णेय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »