“संजय, मुझे तुमसे जरूरी बात करनी है।”
“हां लिसा, बोलो।”
“यह जो तुम्हारी टीम में राकेश है यह मुझे कभी-कभी इग्नोर करता है, कई बार मैंने इसको आवाज लगाई और यह ध्यान से सुनता ही नहीं, ऐसा लगता है कि इसे मेरी बात पसंद ही नहीं। मुझे ऐसे लोग अपनी टीम में नहीं चाहिए। या तो इसे दूसरे प्रोजेक्ट में भेजो, या इसे वापस भारत भेज दो।”
संजय को यह एहसास था, कि राकेश को सुनने में शायद थोड़ी समस्या होती है, किंतु उसने इस बारे में राकेश से कभी बात नहीं की थी। आज लिसा के कहने पर संजय को अच्छा नहीं लगा और उसने पलट कर लिसा को बोला।
“लिसा, तुम्हें यह कहना शोभा नहीं देता। अगर कल तुम्हारी टांग टूट जाती है, तो क्या मैं यह बोलूंगा कि तुम जल्दी मेरे पास नहीं चल कर आ सकती, तो मुझे तुम्हारे साथ काम नहीं करना?”
लिसा सुनकर चुप हो गई और अपनी जगह पर जाकर बैठ गई। संजय ने राकेश को बुलाया और उसने कहा, “राकेश मैं कई दिनों से देख रहा हूं कि मुझे तुम्हें एक ही बात कई बार बोलनी पड़ती है। बुरा मत मानना, लेकिन क्या तुम एक बार जाकर अपने कानों का चेकअप करवा सकते हो?”
राकेश यह सुनकर हथप्रभ रह गया।
“क्या इसका मतलब यह है कि उसे सुनने में कोई कमी है? क्या संजय को ऐसा लगता है? क्या उसमें कोई विकलांगता है?”
फिर भी राकेश संजय को बहुत मानता था, और संजय ने जिस आत्मीयता के साथ राकेश को बोला, राकेश उसे मना नहीं कर पाया। उसने अपने डॉक्टर से बात की और विशेषज्ञ का अपॉइंटमेंट ले लिया। कुछ महीने बीत गए सारे मेडिकल टेस्ट के परिणाम आ गए और यह तय हो गया कि राकेश को न्यूरोलॉजिकल क्षति के कारण सुनने में कमी आई है।
असली कारण तो नहीं पता था, किंतु उपाय क्या हो सकता है यह डॉक्टर ने बता दिया था। या तो आप सुनने की मशीन लगवाइए और अगर उससे फायदा नहीं होगा तो हमें भविष्य में शल्य चिकित्सा करनी पड़ेगी।
सोचते सोचते राकेश बीते कुछ वर्षों में डूब गया…”हां, शायद यह तो बहुत पहले से चल रहा है। कई साल हो गए ऑस्ट्रेलिया आने के पहले मैं अबूधाबी गया था और वहां पर भी उसे कमरे में बैठे-बैठे उसके एक मित्र ने उसे बोला “राकेश भाई, क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आपको सुनने में कोई तकलीफ है?”
उस समय राकेश था ही कितना बड़ा? 35 साल का। “ऐसा कोई कैसे कह सकता है? मुझे सुनने में तकलीफ? एक हट्टा कट्टा जवान हूं, ऐसा हो ही नहीं सकता”
राकेश ने हंस कर टाल दिया, किंतु शायद शुरुआत हो चुकी थी। दिन, प्रतिदिन, उसकी दिनचर्या से, उसके काम के तनाव के कारण शायद यह समस्या और बढ़ गई थी। दो साल पहले जब राकेश ऑस्ट्रेलिया आया तब उसने नहीं सोचा था कि वह यहीं पर रहेगा। वह तो हमेशा से भारत वापस चले जाना चाहता था, किंतु बच्चे अब यही पढ़ने लगे थे; छोटा वाला तो यही बड़ा हो रहा था, और बड़े बेटे ने भी अपने जीवन में कभी दोस्तों के साथ समय बिताना जाना ही नहीं था। ऑस्ट्रेलिया आकर पहली बार ऐसा हुआ था कि उसके मित्र बने थे, जिनके साथ वह लगातार दो साल से पढ़ रहा था।
एक बार जब उसने बोला “पापा, क्या मैं यहां नहीं पढ़ सकता? क्या मुझे भारत जाना पड़ेगा?”, तब राकेश को एहसास हुआ कि अपने लिए न सही, अपने बच्चों के लिए तो कुछ कर ही सकता है; उनके लिए तो कोई राह खोज ही सकता है, जिससे कि उनके लिए भविष्य में रास्ते खुल जाए। वे चाहे तो भारत में, चाहे तो ऑस्ट्रेलिया में रह सकते हैं, अपना जीवन यहीं पर बिता सकते हैं।
और यही सोचकर राकेश ने निर्णय लिया कि वह यहां की नागरिकता के लिए आवेदन भर लेगा। काम इतना आसान कहां था जितना उसने सोचा था? वह बड़ा हो रहा था, और ऊपर से यह सुनने की समस्या, जो कि उसे पता ही नहीं थी और उसने कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया था। इसी कारण वह दो वर्षों से जूझ रहा था और नागरिकता का सपना, सपना ही लग रहा था।
आज जब संजय ने उससे बात की, और जब मेडिकल रिपोर्ट के परिणाम आए, तब उसे एहसास हो गया था, कि कितना आवश्यक है उसे अपनी सेहत का, अपनी बिगड़ती हुई श्रवण शक्ति का ध्यान रखना।
तभी राकेश ने बिना देरी किए, सुनने की मशीन लगवाई, और उसने महसूस किया कि उसके काम करने में, उसके आत्मविश्वास में काफी अंतर आया था। वह नागरिकता की परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गया था, और अब उसे अपने बच्चों के सपने पूरा करने में कोई विलंब नहीं लग रहा था। वह खुश था, और वह खुश इसलिए भी था क्योंकि वह एक ऐसे देश में रह रहा था जहां पर विकलांगता को हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता, बल्कि समदृष्टि और सम्मान से देखा जाता है।
जब वह किसी को बताता था कि “आप जोर से बोलिए, मेरी सुनने की शक्ति कमजोर है, और मैं मशीन लगता हूं”, दूसरा व्यक्ति आदर पूर्वक उसकी बात सुनकर उससे बोलता था ताकि उसे सुनने में कोई तकलीफ ना हो, और वह अच्छी तरह से समझ सके। अब लोग उसके पीठ पीछे उसकी शिकायत नहीं करते थे।
राकेश खुश था कि उसे अपने देश से दूर, संजय जैसा एक मित्र मिला, जिसने उसे सही सुझाव दिया और जो उसके लिए, उसके समर्थन में खड़ा रहा, उस समय, जब उसे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।
लिसा प्रोजेक्ट छोड़कर अपने देश वापस जा चुकी थी।
ऋजु भार्गव