हमारी पूरी दुनिया में इस सदी में भयावह स्थिति तब बन गई, जब समस्त विश्व कोरोना जैसी महामारी की चपेट में आ गया और किसी के पास इससे बचने का कोई उपाय न था। कोई भी न समझ पा रहा था, ना ही कुछ कर पाने की स्थिति में था। इस सदी में जन्मे लोगों का लगभग 2 वर्ष और कुछ महीने का समय जैसे अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद में ही खत्म हो गया। खैर, जैसे-तैसे यह दु:स्वप्न की तरह वह कालखंड किसी तरह से खत्म हुआ और लोगों की जिंदगी फिर से शुरू हुई तथा लोग घरों से बाहर निकलकर आजादी की साँस ले पाए।
लोगों को कोरोना जैसी महामारी के दौरान अपनी जीवन-शैली और सोच को बदलने का मौका मिला और उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर अपने-आपको और सुदृढ़ कर लिया और एक नए जीवन और प्रकृति के साथ सृजन करते हुए जीवन को एक नए आयाम तक पँहुचा दिया, जिसमें शहरी जीवन और प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाते हुए सुखी जीवन की आधारशिला रखी।
यह कहानी काल्पनिक न होकर कोरोना महामारी के दौर से गुजरे हिम्मती लोगों की है जिनसे प्रेरणा लेकर मुझे इसे कथात्मक रूप में प्रस्तुत करने की प्रेरणा मिली। इससे लोगों को अपने जीवन में आई मुश्किलों से दो-चार होने की हिम्मत मिलेगी। जहाँ पूरे विश्व के कई देशों में कोरोना महामारी के दौरान लोगों के पूरे जन-जीवन को अस्त-व्यस्त किया, वहीं कई ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए एक नया इतिहास रच दिया। कोरोना के वक्त जैसे लोगों का मिलना–जुलना बंद हो गया। लोग एक-दूसरे से कतराने लगे और लोगों की सामाजिक दूरियाँ बढ़ने लगी; ऐसी परिस्थिति में कई देशों में लोगों को वर्क फ्रॉम होम करते हुए जीवनयापन करने का एक मौका मिला और लोगों ने अपनी जीवन-शैली में इसे देखकर बदलाव भी कर लिया। लोग कोरोना के डर से या यों कहें कि इसके से बचने के लिए शहर की भीड़ और अपनी मजबूरी छोड़कर प्रकृति की ओर चल निकले, जहाँ उन्हें अन्य व्यक्तियों के संक्रमण से बीमार होने का डर खत्म हुआ और उन्होंने वहाँ अपनी सारी जरूरतें पूर्ण करने की युक्तियां भी अपना लीं। स्वावलंबन का ऐसा अनूठा उदाहरण पहले कभी नहीं मिला।
आज नंदिनी को फोन लगाया तो पहले केवल घंटी ही जा रही थी, बाद में अरबी भाषा में कुछ संदेश आने लगा जिससे अरबी भाषा ना जानते हुए भी यह समझ में आ गया कि यह नंबर बंद है। सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस नंदिनी का फोन लगते ही तुरंत दूसरे छोर पर फोन उठा लिया जाता था आज क्या हुआ! कोरोना का समय ही ऐसा था कि कहीं भी, आपस में कभी भी कुछ भी हो सकता था। संपर्क के लिए बस एक दूरभाष का ही सहारा था। गरीबों को लगता था कि वे ज्यादा परेशान हैं जबकि समृद्ध लोगों के लिए ज्यादा मुसीबतें नहीं बढ़ी हैं। देखा जाए तो कोरोना ने किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया; क्या गरीब, क्या अमीर—सबको एक समान ही माना। परेशान सभी हुए। कोरोना ने सबको ऐसा तोड़ा कि लोग अब वर्षों तक उसके दुष्प्रभाव को झेलते रहेंगे। इसके दुष्प्रभाव को देखकर साल 2004 की सुनामी की याद हो आई जबकि अंडमान में सुनामी के कारण बताया गया कि वहाँ पाए जाने वाले मूंगे-प्रवाल अगले 150 वर्षों तक दुर्लभ बने रहेंगे।
खैर, बात आई-गई हो गई। कोरोना से उत्पन्न परेशानियों के भी हम अभ्यस्त हो गए और अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो गए। काफी समय बीत गया। एक दिन अचानक मोबाइल की घंटी बजी। देखा तो कोई अनजान नंबर था। टेलीफोन की घंटी बजने से मेरा ध्यान भंग हुआ। फोन उठाते ही दूसरे छोर से आवाज आई- “हैलो! सारा कैसी हो?”
मैं एकदम से आश्चर्यचकित रह गई। यह आवाज़ तो मुझे नंदिनी की लगी। मैं आश्चर्यचकित रह गई। मन में बोलने की बजाय, शायद मैं जोर से बोल पड़ी, “यह क्या? क्या तुम नंदिनी हो?”
दूसरे छोर से आवाज आई, “हाँ ! मैं नंदिनी ही बोल रही हूँ।” तब, मैं अपने प्रेम का प्रदर्शन करते हुए बोल पड़ी – “कमीनी! इतने दिनों तक कहाँ थी? कितनी बार तेरा फोन लगाया और कोई समाचार नहीं मिला? कहाँ तो कम-से-कम महीने में एक बार तुम्हारी आवाज सुनने को मिल जाती थी। तुमसे बातें हो जाती थीं। लेकिन, अब तो तेरा कहीं पता ठिकाना ही नहीं रहा।” मैं जोर से चिल्लाई।
थोड़ी देर उधर शांति छाई रही। मैंने कहा, “कहाँ चली गई, बोलती क्यों नहीं?” तब उधर से बड़ी गहरी-सी आवाज आई, “ऐक्चुअली मैं यू.ए.ई. में नहीं हूँ।“
“अच्छा तो इस वक्त कहाँ है तू?” मैं फिर चिल्लाई।
उसने कहा- “अरे! मैं अपने गाँव मेरठ आ गई हूँ। क्या? क्या कहा? फिर से तो कहना। क्या तू मेरठ पहुँच गई है?”
उसने कहा, “हाँ भाई! मैं मेरठ में ही हूँ।“
उसकी बात सुनकर, मैं सोच में पड़ गई। दिमाग तुरंत स्मृति के घोड़े दौड़ाने लगा कि यह वही नंदिनी है जिसने भारत जाने का कभी सोचा ही नहीं था। शहर में पली–बढ़ी थी, उसे गाँव जैसी जगह सख्त नापसंद थी। वह कहा करती थी, “घूमना है तो विदेश घूमो और जगह घूमो। यू.ए.ई. में रहो। इस भारत में क्या रखा है? तुझे पता है मुझे गाँव बिल्कुल ही पसंद नहीं।“
ये सारी बातें मेरे दिमाग में चलचित्र की तरह घूम गई। थोड़ा संयम रख मैंने पूछा, “अच्छा! कब पहुँची? कौन-कौन है वहाँ?” एक साँस में मैंने दो-दो सवाल कर दिए। मैं जानना चाहती थी कि आखिर ऐसी कौन-सी बात हुई जिसके चलते उसे भारत जाना पड़ा।
उसने कहा, “यहां आए हुए मुझे करीब-करीब सात-आठ महीने हो गए हैं।“
मुझे याद आया, तब तक यू.ए.ई. में कोरोना के वैक्सीन लग चुके थे और काफी जगह पर ढिलाई भी बरती जा रही थी; इसलिए कहीं इधर-उधर आया-जाया नहीं जा सकता था जबकि कुछ क्षेत्रों में अभी भी सख्ती का पालन किया जा रहा था। कोरोना का पहला दौर बीतने के बाद, दूसरी लहर की अफवाहें फैल चुकी थीं। अब सब उससे निपटने की तैयारी में लगे थे।
धीरे-धीरे नंदनी ने बात ही बात में बताया कि कैसे वह करोना काल में भारत जाने के लिए मजबूर हो गई। दरअसल, उसका बेटा अमेरिका में पढ़ रहा था और कोरोना के प्रकोप के थोड़ा पहले ही उसे वहाँ नौकरी मिल गई थी और वह अपनी नौकरी करने में लग गया था। हालांकि! उसके माँ–बाप चाहते थे कि वह एक बार आ जाए और उनसे मिल ले। लेकिन कहते हैं ना कि होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। लाख कोशिशों के बावजूद कोरोना के कारण वे बेटे को नहीं देख पाए । अर्थात वह नहीं आ पाया और वीजा न हो होने के कारण नंदिनी और सुकेश वहाँ नहीं जा पाए। हालांकि कुछ समय बाद ही यू.ए.ई. से कुछ फ्लाइट्स कई देशों में जाने लगी थीं; लेकिन वहाँ से आना मुश्किल हो रहा था। बहरहाल, भले ही कुछ हो या न हो, यू.ए.ई. में रहने का एक फायदा यह है कि आप भले ही ज्यादा पैसा खर्च करें लेकिन किसी चीज को तरसेंगे नहीं। इसलिए, बेटा दुबई नहीं आ सका। यहाँ तक कि घटना तो मुझे भी मालूम थी, पर आगे की बातों से मैं अनभिज्ञ रही। कोरोना के समय अच्छे–अच्छों की हालत पतली पड़ गई थी जबकि हम लोग तो मामूली इंसान ही हैं।
इस तरह हवा में उड़ती-उड़ती बातों और अनिश्चितता की स्थिति में, आए दिन की नकारात्मक ख़बरों के कारण भी व्यस्तता की स्थिति बनी रही। कुछ दिनों के लिए हमारा नंदनी से कोई संपर्क नहीं हो सका। हालांकि एक-दो महीने बाद मैंने कोशिश भी की लेकिन उससे बातचीत नहीं हो सकी।
एक दिन, बात ही बात में नंदिनी से पता चला कि उसके पति सुकेश अचानक ही करोना की गिरफ्त में आ गए। कुछ दिनों बाद, नंदिनी को भी करोना ने आ घेरा। उस समय की औषधि, चिकित्सा और सोशल डिस्टेंसिंग के चलते परहेज़ के कारण दोनों को एक ही फ्लैट में क्वॉरेंटाइन रहना पड़ा। यार-दोस्त भी आसपास नहीं आ सकते थे। वे बाहरी सहायता पर ही आश्रित रहे। लेकिन कुछ दिनों बाद उस संक्रमण के अत्यधिक प्रभाव के कारण, सुकेश को अस्पताल ले जाया गया लेकिन, उसे उन्हें देखने की भी इजाज़त नहीं मिली।
घर में क्वॉरेंटाइन में रहते हुए, उसकी स्थिति में कुछ खास सुधार नहीं आ रहा था जबकि दवाइयों का असर नाम-मात्र का था। लिहाज़ा, बहुत कोशिशों के बाद, उसके स्वास्थ्य में थोड़ा-बहुत ही सुधार आया। जब क्वॉरेंटाइन में उसके पति की हालत गंभीरतर होती गई तो अपताल मे भर्ती कराया गया। लेकिन, प्रारब्ध को कुछ और ही मंज़ूर था। अस्पताल से उनकी मृत्यु की खबर ने नंदनी और उसके परिवार को बेहाल कर दिया। क्वॉरेंटाइन में नंदिनी तो अपने पति को देख भी नहीं पाई थी। डेड बॉडी भी नहीं मिली। अस्पताल के नियमानुसार उसका अंतिम संस्कार उसके घरवालों की अनुपस्थिति में कर दिया गया।
उस स्थिति में भी बेटे को वीजा नहीं मिला और वह अंत्येष्टि में तब भी न आ सका। नंदिनी अत्यंत दु:खी थी। उस समय भारत के प्रधानमंत्री द्वारा ‘वंदे भारत’ नामक रेस्क्यू ऑपरेशन की शुरुआत की गई जिससे कि देश से बाहर फंसे भारतीयों को स्वदेश वापस लाया जा सके।
परिस्थितियों ने नंदिनी को विचलित कर दिया। तब उसे विपत्ति में पति के पुश्तैनी घर का ख्याल आया। वैसे भी, यहाँ उसका मन नहीं लगता था और पति के बिना आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उसका वीजा भी खत्म हो गया था। कोई नौकरी तो वह करती नहीं थी कि अपने बलबूते पर यहाँ रहकर अपना गुजारा कर लेती। इसलिए, बेटे को न परेशान करते हुए तथा कुछ मित्रों की सहायता से भाग-दौड़ करके उसने एक फ्लाइट से उडान भरकर वापस आ गई।
बाहर से आने वालों को 14 दिन तक गाँव से बाहर ही रखा जा रहा था, ऐसा वह समाचारों में देखती और सुनती आ रही थी। बहरहाल, आशा के विपरीत भारत में पति के रिश्तेदारों ने उसे हाथों-हाथ लिया और हर संभव उसकी सहायता की। जहाँ सारी दुनिया अपनी जान बचाने में लगी हुई थी; परिवार के लोगों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए उसे संभाला।
अब उसकी सोच भी बदलने लगी। स्वयं को व्यस्त रखने के लिए उसने स्वयं को सामाजिक कार्यों में लगाना शुरू कर दिया। उसने संकल्प लिया कि वह इस कोरोना काल में गाँव के गरीब और अनाथ लोगों की मदद करेगी। महामारी के प्रकोप के दौरान, उसे स्वयं के उपभोग के लिए कुछ भी मिलना मुश्किल हो रहा था। सो, उसने अपने घर के अहाते में ही साग–सब्जियाँ उगानी शुरू कर दीं। बॉटनी की छात्रा होने का आज उसे लाभ मिला। गाँव के गरीब बच्चों को वह पढाने भी लगी। इससे उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी सम्हलने लगी।
आज की तारीख में वह काफी प्रसन्न है। उसने जीवन की हर परिस्थिति का सामना डट कर किया। एक सुखद बात यह है कि बेटा भी उससे मिलने आया था। वह वादा करके वापस अमेरिका गया कि वह साल में कम से कम दो-तीन बार उससे मिलने आया करेगा। अपनी गृह-वापसी पर वह सोचती रहती है कि स्वदेश आकर उसने कोई भूल नहीं की।
-मीरा ठाकुर
