
जापानी एनीमेशन स्टूडियो जिबली की फिल्में

डॉ वेदप्रकाश सिंह, ओसाका विश्वविद्यालय, जापान
ओसाका विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हुए अपने जापानी विद्यार्थियों से उनकी किसी पसंदीदा जापानी फिल्म का नाम पूछता हूँ तो वे लगभग सभी कहते हैं कि उन्हें ‘जिबुरी सुताजिओ’ की फिल्में पसंद हैं। ये ‘जिबुरी’ और ‘सुताजिओ’ शब्द मेरी समझ में पहले नहीं आते थे। बाद में अंग्रेजी में ‘जिबुरी सुताजिओ’ को एक विद्यार्थी से बोर्ड पर लिख देने के लिए कहा और उसके बारे में घर पर पढ़ा और फिल्में खोजीं। ‘जिबुरी सुताजिओ’ Ghibli studio का जापानी उच्चारण है। इसका अंग्रेजी उच्चारण गिबली या जिबली भी हो सकता है। इस स्टूडियो की बनी फिल्में बाद में घर पर और कक्षा में भी देखीं। इस स्टूडियो की बनी अधिकांश उपलब्ध फिल्में मैंने देखी हैं और हर नई फिल्म का मुझे इंतजार रहता है।
इससे पहले मैंने एनीमेशन फिल्में न के बराबर ही देखी थीं। सबसे पहले ‘जिबली स्टूडियो’ की ‘माई नेबर तोतोरो’ फिल्म देखी। उसके बाद तो ‘जिबली स्टूडियो’ के निर्देशक द्वय मियाजाकी हयाओ और ताकाहाता द्वारा निर्देशित तथा सुजुकी तोशिओ द्वारा निर्मित फिल्में देखने का शौक मुझमें ही नहीं मेरी पत्नी रूपा जी में पैदा हुआ। आज भी अपने बेटे शब्द के साथ ‘जिबली स्टूडियो’ की फिल्में देखने का कोई अवसर हम लोग नहीं जाने देते हैं। ‘जिबली स्टूडियो’ की अधिकांश फिल्में हिंसा से रहित और बहुत प्यारी फिल्में हैं।
‘माई नेबर तोतोरो’ (जापानी नाम- तोनारी नो तोतोरो) देखते हुए ऐसा लगता ही नहीं है कि मैं किसी प्रकार से कोई कार्टून फिल्म अथवा एनीमेशन फिल्म देख रहा हूँ। यह और इस स्टूडियो की बनी सभी फिल्में अपने प्रभाव में इतनी वास्तविक हैं कि ऐसा लगता ही नहीं कि आप कोई बनावटी या बच्चों वाली कोई फिल्म देख रहे हों। इन फिल्मों का प्रभाव ही है कि जापान ही नहीं दुनियाभर के हर उम्र के लोग इन फिल्मों को बहुत पसंद करते हैं।
‘जिबली स्टूडियो’ जिसे कुछ लोग कभी-कभी घिब्ली स्टूडियो भी कहते हैं, उसकी फिल्मों की लोकप्रियता का अंदाजा उसकी कमाई और पुरस्कारों की संख्या से भी लगाया जा सकता है। ‘स्पिरिटिड अवे’ (सेन तो चिहीरो नो कामिकाकुशी) ‘जिबली स्टूडियो’ की फिल्मों में सर्वाधिक लोकप्रिय रही। अभी कुछ दिनों पहले जापान में बनी ‘डीमन स्लेयर’ (किमेत्सु नो याइब) फिल्म अब इससे अधिक लोकप्रिय बन गई है। इसे एक दूसरे स्टूडियो एनीप्लेक्स स्टूडियो द्वारा बनाया गया है। जापान में इन फिल्मों को प्रायः किसी न किसी माँगा अथवा कॉमिक्स के आधार पर बनाया जाता है। एनीमेशन फिल्मों की कहानी पहले से चर्चित रहती हैं। लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता है।
जिबली स्टूडियो की स्थापना 1985 में हयाओ मियाजाकी, तोशिओ सुजुकी, इसाओ ताकाहाता और यासुनोशी तोकुमा द्वारा की गई। इस स्टूडियो द्वारा निर्मित फिल्मों में से प्रमुख फिल्मों के नाम हैं- नौसिका ऑफ द वैली ऑफ द विंड, कैसल इन द स्काइ, माई नेबर तोतोरो, ग्रेव ऑफ द फायरफ्लाइज, किकीस डिलीवरी सर्विस, ओन्ली यस्टरडे, पोरको रोस्सो, ओशन वेव्स, पोम पोको, विस्पर ऑफ द हार्ट, प्रिन्सेस मोनोनोके, माई नेबर द यामादास, स्पिरिटिड अवे, द कैट रिटर्न्स, हाउल्स मूविंग कैसल, टेल्स फ्रॉम अर्थसी, पोनयो, द बॉय एण्ड हेरन आदि प्रमुख फिल्में हैं।
इन फिल्मों में से मैंने अभी तक अंग्रेजी या हिंदी भाषा में उपलब्धता के कारण आठ फिल्में देखी हैं। मानव मन को बहुत खूबसूरती से इन एनीमेशन फिल्मों में चित्रित किया गया है। कुछ फिल्मों में हिंसा के दृश्य भी हैं जो मुझे इन फिल्मों में ठीक नहीं लगते हैं। माई नेबर तोतोरो, किकीस डिलीवरी सर्विस, स्पिरिटिड अवे, हाउल्स मूविंग कैसल और पोनयो आदि फिल्में बच्चों के लिए बहुत अच्छी फिल्में हैं। इन फिल्मों के अतिरिक्त एक फिल्म मुझे बहुत पसंद है- ग्रेव ऑफ द फायरफ्लाइज (होतारु नो हाका)। इस फिल्म का जिक्र मैं हमेशा अपने भारतीय मित्रों से करता हूँ। यदि आपको दूसरे विश्व युद्ध के समय के जापान की भयंकर दारुण स्थिति को देखना हो तो आप यह फिल्म देख सकते हैं।
आपने जापान के एक लड़के की फोटो जरूर देखी होगी जिसमें उसकी पीठ पर बैग की तरह उसने अपनी छोटी बहन को बाँध रखा है। इस तस्वीर की कहानी यह है कि उस लड़के ने अपनी रुलाई रोकने के लिए अपने होंठों को इतनी जोर से अपने दाँतों से दबा रखा है कि उसके होंठों से खून निकलने लगता है। पीठ पर बँधी उसकी बहन का सिर कंधे के पास से झूल गया है। जैसे नींद में सिर एक ओर झूल जाता है। इसी दृश्य को मानो यह फिल्म साक्षात करती है। इसी सच्ची घटना पर यह फिल्म बनी है।
मैं जब भी यह फिल्म देखता हूँ तो खुद को भावुक होने से नहीं रोक पाता हूँ। कक्षा में होता हूँ तो मेरी आवाज रुकने लगती है और आँखों के कोर भीगने लगते हैं। यह मेरी कमजोरी भी हो सकती है। इस फिल्म ने उन दिनों जापान के अनेक शहरों पर अमरीकी बमवर्षकों द्वारा की गई तबाही में सबसे कमजोर दो बच्चों की कहानी दिखाई है। उनकी माँ इन हमलों में मर जाती है। बाद में युद्ध समाप्ति के समय सेना में गए उनके पिता भी संभवतः मर जाते हैं। बड़ा भाई जिसका नाम सेइता है, अपनी छोटी बहन सेत्सुको को भूख से मरने से बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। वह उन घरों और खेतों में चोरी भी करता है जहाँ उसे खाने के लिए कुछ मिल सकता है।
उसका यह प्रयास बेहद करुण और मानवीय है। उसे खाना नहीं मिलता है। उसकी बहन सेत्सुको कुपोषण और डायरिया से मर जाती है। उसके कुछ समय बाद ही सेइता भी एक स्टेशन पर खाना न मिलने के कारण मर जाता है। यह कहानी जापान के कोबे शहर की है। यह शहर मेरे आवास से अधिक दूर नहीं है। वहाँ एक समय सबसे अधिक संख्या में भारतीय रहते थे। जब भी इस शहर जाता हूँ तो उन दोनों छोटे बच्चों के यातनाप्रद अंत के बारे में सोचता हूँ। ऐसी न जाने कितनी घटनाएँ तत्कालीन जापान में घटित हुई होंगी। यह फिल्म उन सभी घटनाओं और युद्ध में आम जीवन की क्रूर लाचारी को भी दिखाती है।
इस स्टूडियो से बनी फिल्मों में न सिर्फ कहानियाँ बेजोड़ होती हैं बल्कि वे मनुष्य और प्रकृति के उन बारीक से बारीक विवरणों को भी पकड़ती हैं जिन्हें देखकर हमें लगता है कि फिल्म बनाने वाले कलाकारों की निगाह कितनी पैनी है। जीवन की डिटेल्स इन फिल्मों को वास्तविक बनाती हैं। इनमें मनोरंजन के साथ-साथ मानवता के सामने मौजूद बड़े सवालों को देखने-दिखाने की भी क्षमता है। प्रकृति के दोहन, उपभोक्तावाद, प्रकृति और मनुष्य के सह-अस्तित्व और युद्ध का विरोध आदि अनेक बड़े सवालों के संकेत इन फिल्मों में मिलते हैं।
