
डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन
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बार बार भारत
विद्यार्थी कहते थे-
वे भारत देश जा रहे हैं
वे भारत देश केवल कुछ पढ़ने-घूमने देखने ही
नहीं जा रहे हैं
जा रहे हैं वहां वह खोजने,
जो उन्हें उनके मुल्कों में नहीं मिला
वे जा रहे हैं उस देश में
जो हजारों सालों की परंपरा,
रीति-रिवाज, जीवन-मूल्यों को
आज के जीवन में भी आदर्श मान कर चल रहा है
विद्यार्थी भारत देश जा रहे थे
क्योंकि प्राचीन सभ्यताओं वाले लगभग सभी पुराने देशों ने
बदलावों को इस प्रकार ग्रहण-आत्मसात् कर लिया है
कि उनका पुरातन
केवल संग्रहालयों-अजायबघरों की चीज होकर रह गया है:
जैसे मिस्र, जहां फेरो राजाओं-रानियों की झलकियां
वहां के जन-जीवन से दूर हो गई हैं
तहखानों की विरासत
यूनान के बड़े बडे दार्शनिक-चिंतक
अब केवल रह गए हैं
विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शेष
विद्यार्थी कहते थे
कि वे भारत देश जा रहे हैं
जहां, कहा जाता है कि,
गरीब-सर्वहारा-अपढ़-अशिक्षित भी
अपनी सीधी-सादी जबानों में याद करते हैं
अपने ऋषियों-मुनियों-देवी-देवताओं-शूर-वीरों को
ऋचा-वाक्यों को, भक्ति-भावनाओं के साथ अब भी
विद्यार्थी यही कहते थे
अब वे लौट चुके हैं
अब कहते हैं: उन्हें भारत-देश वैसा नहीं लगा
जैसा उन्होंने सोचा था
उन्हें लगता है कि भारत के लोग
अपने देश की आंतरिक शक्ति को नहीं पहचानते
कि जिस भारतवासी के मुंह में पैसे का गोश्त लग जाता है
वह अपने देश की आत्मा को
फेरो राजा-रानियों की तरह तहखानों में गाड़ देता है
उन्हें पश्चिमी जगत वह लगने लगता है
जो अनुकरणीय है, स्वर्गीय है
ऐसे लोग पश्चिमी लोगों से भी ज्यादा हो गए हैं
पश्चिमी भौतिकवादी
लेकिन पश्चिमी लोगों की तरह वे प्रश्न नहीं करते
बस सहज स्वीकारते हैं।
लौटे हुए विद्यार्थी यह भी कहते हैं
कि उस देश के गरीब इस कदर गरीब हो गए हैं
कि अब अगर ऋषियों-मुनियों-वेदों-आख्यानों
तुलसियों-सूरदासों को याद करते हैं तो
उसी तरह जैसे रटता हुआ तोता
बिना किसी हृदयस्पर्शी भावना के,
वहां लोग घूस को भी लक्ष्मी के पैरों पर चढ़ाते हैं
जैसे वह उनकी मेहनत की कमाई हो
लौटे हुए विद्यार्थी कहते हैं
कि ऐसे कितने बिंदुओं पर
उनकी सारी रोमांटिक भावनाएं
भारत-देश और वहां के लोगों के प्रति मिटती रही, और
वह महान देश उन्हें सारे जहां से अच्छा नहीं लगा…
फिर भी लौटे हुए कितने ही विद्यार्थी
वहां फिर-फिर लौटना-जाना चाहते।
कुछ कहते हैं
कि वे वहां फिर जा कर इस बार पूरी तरह
यह तय करना चाहते हैं
कि कहीं उन्हें उस देश को समझने में
गलती तो नहीं हो गई
कुछ कहते हैं
वे लौटेंगे
क्योंकि वहां अभी भी कुछ लोग जीवित हैं
जो मानवीय धरातल पर जब किसी अन्य को
पवित्र योगी-मन से स्पर्श करते हैं
तो एक अद्वितीय, उदीर्ण शक्ति का संचार कर देते हैं
विद्यार्थी फिर फिर उनके पास लौटना चाहते हैं
कि ऐसे किसी पारस को छू कर
उनका स्वर्ण उद्भासित हो उठे
फिर और हैं: जो वहां इसलिए लौटना चाहते हैं कि
हिमालय अभी भी जिस पवित्रता का बोध कराता है
और हारे और लघुतम मनुष्य के अंदर भी
एक दैवी-गरिमा को जगा देता है
वैसा और कोई आसमान छूता पहाड़ नहीं
क्योंकि गंगा, वह चाहे कितनी भी मैली हो गई हो
अब भी कुछ ऐसी अंतर्निहित भावनाएं जगा देती है
जो भीतर के बहुत सारे कल्मष धो देती है-
आत्ममंथन के क्षणों में
और तब गंगा केवल एक मैली नदी नहीं रह जाती
वह एक ऐसा प्रवाह हो जाती है
जो सदियों से वह सब बहा ले गई है जो
समय के कल्मषों की तरह
उसमें आता और विसर्जित होता रहा है।
विद्यार्थी फिर भारत-देश लौटना चाहते है कि वहां
बनारस के घाटों जैसी जमीनें शेष हैं
जहां जीवन की समग्रता का दृश्य
सहज ही आंखों के सामने आ जाता है:
नदी में नावों में बैठ कर
घाट की तरफ देखने से
बाईं तरफ दिखता है:
लोगों का हजूम…
निरंतर चलता हुआ… बढ़ता हुआ… घटता हुआ…
जो कभी हंसता होता है, तो कभी रोता होता है
कभी गाता होता है
जो पूरे जीवन की सरगर्मी को प्रस्तुत करता होता है
और दाहिनी तरफ मणिकर्णिका घाट पर
जलती चिताओं में वहीं कुछ दूर पर
खत्म होती रहती है
अनेक जीवन-कथाएं
इयत्ताएं धू-धू कर।
जो वहां दूसरी बार लौटना चाहते हैं
वे अब विचित्रताओं की तलाश में नहीं-
बल्कि खंड-खंड सच्चाइयों को जोड़ती हुई
जीवन की किसी अखंडता का तत्व पाने
सच्चाई जानने, क्योंकि
वे कहते हैं: भारत देश में अब भी वैसा कुछ है
जो पंक में उगा हुआ होकर भी
हृदय को कहीं छूता है
जैसे कमल!
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(साभार-‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से)