डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन

***

माइकल एंजेलो

ठुमक रही है संगमरमरी शीशों पर
मैं देख रहा हूं
इन पत्थरों पर पड़ती रोशनी की झांइयों में
तुम्हारी कलाई का स्वप्न-नृत्य
और मैं कल्पना कर रहा हूं
अनगढ़ पाषाणों के पार तुम्हें झांकते हुए
तुमने कैसे-कैसे कितना देखा
कितनी आकृतियां एक साथ
कितनी भंगिमाएं
कितनी मुद्राएं
भावना के अंबुधि पर
कितनी तमाम किन्नरियों की पगध्वनियां, देवों की ढोल-थाप
भावों की ऋतुमय नक्काशियां!

देखा, तराशा फिर
रंगित चित्रित किया
सब कुछ को अर्थ दिया
कलाकार
तुमने कितना देखा
कितने आयामों के आर-पार
पारावार
डूब-डूब लाए सच्चे मोती
और रचा एक नया विस्तृत संसार

माइकल एंजेलो
प्रस्तर आकृतियों के
रंगों-आभाओं के
ओ प्रबुद्ध महाकवि!
अजीब है तुम्हारी संगीत भरी कृतियों की
यह विशाल क्रीड़ा-भूमि
पत्थर के गीतों की मायाछवि

मुझको यह लगता है
मैं भी हो रहा आज
एक मूक शिल्पी ज्यों
भाषा है सामने
प्रस्तर संगमरमर-सी अनगढ़ी
और मै तुम्हारी तरह उसमें से चाह रहा
कुछ रचना काढ़ना
शब्दों की मूर्तियां
अर्थों की अनगिन अजंता-एलोराएं
ओ महान!
क्या मैं कर पाऊंगा?
कुछ नव रच पाऊंगा?

पत्थर के गीतों में
भर दो वह शक्ति, सिद्ध
जिससे यह स्वप्न आज सत्य करूं
और फिर सुखी मरूं।

***** *****

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »