
डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन
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खिड़की के सामने का पेड़
मेरी खिड़की के सामने का यह पेड़
सब ऋतुओं में बदला है, पर
इसे इंसान की तरह मौसमी नहीं कहा जा सकता
मौसम बदलने पर इसका बदलना
इसकी सृजनधर्मिता है
मैंने इस पर
अपने जीवन के अनेक आयामों के
सुखों-दुखों को, इतिहास बनते देखा है
मैंने इसकी पत्तियों की थिरकनों पर
अपने को नाचता हुआ पाया है
मैंने इसकी झंझावाती ध्वनि-मुद्राओं पर
अपने अंतरतम की भीषण आंधी देखी है
जब इस पर सूर्य की पहली किरणें पड़ी हैं
तब मैंने अपने कैलेंडर का पन्ना बदला है
जब इस पर आधी रात के बाद
दूर से आए घंटों की आवाजें थम गई हैं
तब मैंने अपनी उम्र के एक दिन का,
सादा-सा-बेतरह मरा हुआ पृष्ठ उलट दिया है
जब इसकी तमाम पत्तियां झर गई हैं–
और नंगी-कंकाल डालें दिखने लगी हैं
तब मैंने अपने को झुकी कमर वाला एक बुढ़ाया हुआ
इंसान बनता हुआ अहसास किया है
फिर जब भी इसमें नई पत्तियां उगी हैं, मुझे लगा है
मैंने एक नया जन्म लिया है।
ज्यों-ज्यों पत्तियां बढ़ी हैं
त्यों-त्यों मेरा मन
मेरा तन
मेरी जिन्दगी का रेशा रेशा भी
इसकी कहीं झुकी, कहीं उन्नत डालों पर
जब उड़ते पंछी आ कर बैठे हैं
तब मुझे एक विशाल दुनिया से जुड़ने का अनुभव हुआ है
और जब जब पंछी उड़ गए हैं
तो संबंधों के अस्थायित्व का झटका लगा है
और हुआ है अकेलेपन के महाभारत का भी बोध
इस पेड़ की छांह में मैंने
कृष्ण को राधा से प्रेमालाप करते हुए सुना है—
मेरी वंशीध्वनि पर थिरक-थिरक कर
इसी पेड़ के नीचे
मैंने टी.एस. इलियट के प्रकोप को
अपनी मांग नई तरह से काढ़ कर जवान बनते भी देखा है।
इस पेड़ के नीचे ही मैंने देखा है
कि पूरा मनुष्य समाज
एक बस में ठसाठस भरा हुआ है
और कंडक्टर जोर-जोर से चिल्ला रहा है
हम सब चलती बस में हैं, सब साथ-साथ
इस चलती बस से जो उतरेगा
वह कायर होगा– भगोड़ा होगा
इस पेड़ के ऊपर मैंने झंडे को फहराए जाते हुए भी देखा है
और उसे उतारा जाता हुआ भी
कभी-कभी उसे फाड़ दिया जाता हुआ भी
यह मेरी दृष्टि की दुनिया का
एक ऐसा फैलता हुआ क्षितिज है
जिसका कहीं अंत नहीं होता
और कभी-कभी एक सीढ़ी भी—
जो कहीं नहीं जाती
यह पेड़ मेरे कालजयी सपनों का प्रतीक है
और मेरे विचारों का मणिकर्णिका घाट भी,
पर सबसे अधिक
यह पेड़ हर स्थिति में
मेरी खिड़की के सामने
निरंतर खड़ा हुआ मुझे देखता हुआ बंधु है।
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(साभार-‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से)