डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन

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संकल्प

मैं देखता हूं उन्हें
गाते हुए प्रेम-गान
अपनी बाहों पर गुदे गुदने को देखकर
वे कितने सारे नाम उन पर
वे कैथरिनें, वे एलिजाबेथें
वे डायनाएं और वे मार्गरटें
फिर मैं उन्हें सुनता हूं
अलापते
साम्राज्यवादी ब्रिटेन का प्रशस्ति-गीत
‘रुल ब्रिटानिया’,
और साथ ही यह भी उच्चारते-
ओ विदेशियों, भागो निकल जाओ यहां से
लौट जाओ अपने देशों को

मैं उन्हें देखता हूं
अपनी इस्पाती टोपियों को चमकाते
अपनी मोटर साइकिलों में डालते हुए तेल
झाड़ते-फटकाते अपने दस्तानों को
अपने चाकुओं की तेज करते धार
और ईंट के टुकड़ों पर, मेरी ओर देख-देख
मारते हुए ठोकरें
इत्यादि इत्यादि इत्यादि

तो भी मैं
हर गुजरते दिन के अंत में
अपने को पाता हूं उसी तरह
एक निश्चित और सबसे सर्द कोने में
बैठा हुआ
अपने को टिकाए और बचाए रखने का
लिए हुए संकल्प
और अंततः मैं बचा रह जाता हूं

अगले दिन
सुबह उठता हूं
नहाता-धोता हूं
और पूजा-पाठ कर एक परिचित धुन गुनगुनाता हुआ
चल देता हूं अपनी दुकान की ओर
वहां पहुंचकर खोलता हूं तख्तियां
जला देता हूं बत्तियां
और फिर देखने लगता हूं
अपने जमा-खाते को
और उसमें जो देखता हूं
उसे देखकर हो जाता हूं संतुष्ट
और मुस्करा देता हूं
और फिर ठोंककर अपनी पीठ को, कह पड़ता हूं
शाबाश बेटे!
तू निस्संदेह बचा रह जाएगा
और मैं सचमुच रह जाता हूं बचा
और होता हूं यहीं
प्रायः सुनता हूं
उनमें से ही बहुत सारे
अपने इस देश को छोड़
चल देते हैं कहीं किन्हीं
पाताल देशों की ओर।

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