मनोदैहिक विकारों में योग की भूमिका

– मनोज श्रीवास्तव

कल भोपाल विश्वविद्यालय में Role of Yoga in Psycho-somatic disorders में बोलते हुए मैंने कहा कि योग मन का जनतंत्र है। सेल्फ की डेमोक्रेसी। जैसे जनतंत्र के बारे में कहा जाता है कि वह जनता का जनता द्वारा जनता के लिए शासन है, वैसे ही योग की परिभाषा मेरे सर्वप्रिय लेखक जोसेफ कैंपबैल ने यह कहकर दी कि Yoga is the journey of the self, through the self, to the self.

अभी इस कार्यक्रम में आरंभ में जब मैंने योगेश्वर कृष्ण के चित्र के साथ गणेश जी को भी माल्यार्पण जब किया तो मैं यह सोच ही रहा था कि कृष्ण तो योगेश्वर हैं, गणेश जी क्यों हैं। फिर मुझे याद आया कि उनके आदियोगी पिता और उनके बीच वो जो कथा चलती है कटे हुए मस्तक को पुनः धड़ पर लगाने की, क्या वहाँ मस्तक psyche का और धड़ किसी somatic का प्रतीक है और वह कहानी किसी साइकोसोमेटिक योग की, जोड़ की कहानी है। गणेश सहस्रनामावली में गणेश जी के जो हजार नाम हैं, उसमें ‘स्व’ वाले नाम, सेल्फ वाले नाम इतने अधिक अकारण तो नहीं हैं।

जीवन एक विशाल, उत्ताल नदी है जहाँ मन की अशांत लहरें और भावनाओं के भँवर शरीर की नाजुक कगारों को काटते हैं। यों मनो-दैहिक विकार उभरते हैं तीखे कंकड़ों की तरह। तनाव, चिंता और दमित दुख की गहरी धाराओं से जन्म लेते हुए। ये विकार, जैसे सिरदर्द की चुभन, पेट की ऐंठन, या साँसों की जकड़न, मन और शरीर के बीच की नाजुक संधि को तोड़ते हैं। परंतु, इस अंधेरे तूफान में, योग एक प्राचीन, शांत दीपस्तंभ की तरह खड़ा है, जिसकी किरणें—यम, नियम आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- थके हुए यात्री को शांति के तट की ओर ले जाती हैं।

इन अर्थों में योग केवल एक अभ्यास नहीं, बल्कि एक काव्यात्मक यात्रा है, जो मन के उलझे तारों को सुलझाती है और शरीर की पीड़ा को एक कोमल लोरी में बदल देती है।

यह मनो-दैहिक विकारों के घावों को चंगा करने वाला एक जादुई अमृत है, जो आत्मा को उसकी खोई हुई संपूर्णता लौटाता है।

यह जो हमारा मन है, यह एक घना, उलझा हुआ जंगल है, जहाँ चिंता की कँटीली लताएँ और भय की जड़ें फैली हैं। ये लताएँ, जैसे अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश पतंजलि के योग सूत्र (2.3) में क्लेशों के रूप में वर्णित हैं। ये शरीर की जीवनशक्ति को दबाकर मनो-दैहिक विकारों को जन्म देती हैं। तब सिर में चुभने वाला तनाव सिरदर्द बन जाता है, पेट में उथल-पुथल गैस्ट्राइटिस को बुलाती है, और साँसों की रुकावट अस्थमा की जकड़न में बदल जाती है।

योग एक धैर्यवान माली की तरह इस जंगल में प्रवेश करता है। नाड़ी शोधन प्राणायाम की श्वास मानो एक ठंडी हवा है जो चिंता की धूल को उड़ा देती है। बालासन में शरीर धरती की गोद में सिमटता है, जैसे कोई थका हुआ बच्चा माँ की बाहों में सुकून पाता है। यह अभ्यास, जैसा कि योग सूत्र 1.2 (योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः) में कहा गया, मन की उच्छृंखल वृत्तियों को शांत करता है, जिससे मनो-दैहिक विकारों की जड़ें कमजोर पड़ती हैं।

हृदय जीवन का वह ढोल है जो तनाव के तूफान में उन्मत्त गति से धड़कता है। उच्च रक्तचाप, इस तूफान का एक परिणाम है जो शरीर को थकाता है और आत्मा को भयभीत करता है। योग चिकित्सा, एक कुशल संगीतकार की तरह, इस ढोल की लय को पुनर्जनन देती है। श्वासन, एक शांत राग की तरह, शरीर को गहरी विश्राम की अवस्था में ले जाता है, जहाँ रक्तचाप धीरे-धीरे सामान्य होता है। अनुलोम-विलोम की समतोल श्वास, मानो एक लयबद्ध ताल है जो सहानुभूति और परानुभूति के ज़रिए तंत्रिका तंत्र को संतुलित करती है। वह योगसूत्र याद है आपको मैत्री और करुणा वाला । मैत्रिकुरुणामुदितोपेक्षणां सुखदुःखपुण्यपुण्यविषयानं भावनातश्चित्प्रसादनम्॥ सुखी लोगों के प्रति मित्रता, दुखी लोगों के प्रति करुणा, सज्जनों के प्रति प्रसन्नता और दुष्टों के प्रति उपेक्षा का भाव विकसित करने से मन की शांति प्राप्त होती है। यह सूत्र हमें रिश्तों में मन की शांति की कुंजी प्रदान करता है। यह सोच हमारे मन को शांति देती है, जिससे तनाव की आँधी थमती है और हृदय अपनी स्वाभाविक लय में लौटता है। यह प्रक्रिया एक नदी के किनारे की ओर शांत बहाव जैसी है। यह उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करती है, मन और शरीर को एक सामंजस्यपूर्ण गीत में बाँधती है।

हमारी त्वचा हमारे शरीर का सबसे बाहरी कवच तो है यह मन की उथल-पुथल का आईना भी है। एक्जिमा और सोरायसिस की लालिमा, तनाव और भावनात्मक अशांति की चिंगारियाँ हैं। योग, एक सौम्य मेघ की तरह, इस आग पर अपनी शीतल बूँदें बरसाता है। त्रिकोणासन जैसे एक खुला आकाश है जो रक्त संचार को बढ़ाता है, जिससे त्वचा को पोषण मिलता है। भ्रामरी प्राणायाम का गुंजन, मानो एक प्राचीन मंत्र है। यह तंत्रिका तंत्र को शांत करता है, जिससे सूजन की लपटें कम होती हैं। ध्यान, एक गहरे सरोवर की तरह, मन को स्थिर करता है, जिससे तनाव की लहरें थमती हैं और त्वचा की जलन शांत होती है। योग सूत्र 2.28 (योगाङ्गानुष्ठानात् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्याते: ) के अनुसार, योग के अभ्यास से मन और शरीर की अशुद्धियाँ नष्ट होती हैं, जिससे त्वचा की संवेदनशीलता कम होती है और वह अपनी प्राकृतिक चमक पुनः प्राप्त करती है।

कई बार फाइब्रोमायल्जिया और पुरानी थकान भारी पत्थर की तरह शरीर को जकड़ लेते हैं। मांसपेशियों में दर्द और थकावट मन की दमित पीड़ा का रूप हैं। योग एक कोमल चिकित्सक की तरह इस बोझ को हल्का करता है। सुप्तबद्ध कोणासन एक खुले और खिले फूल जैसा है जो मांसपेशियों को आराम देता है, जबकि विपरीत करणी, एक हिमालयीन नदी की तरह, थके हुए अंगों में नई ऊर्जा का संचार करता है। योगनिद्रा एक तारों भरी रात है, मन और शरीर को गहरे विश्राम में डुबोती है, जिससे थकान का कोहरा छँटता है। आपको दुर्गा सप्तशती के प्रथम चरित्र की महानिद्रा याद हैं जो जीवन के प्रतीक विष्णु में जागरण और ऊर्जा का संचार करती हैं। योगनिद्रा का यह स्पर्श जैसे अपनी उसी माँ का स्नेह है जो आत्मा को नई शक्ति और स्फूर्ति देता है।

अस्थमा में जब तनाव की छाया में साँसें रुकने लगती हैं, शरीर एक बंद पिंजरे में कैद सा लगता है। योग, एक मुक्तिदाता की तरह, इस पिंजरे को खोलता है। भुजंगासन सिर्फ सर्प नहीं है वह जैसे एक उड़ान भरता पक्षी है, वह छाती को खोलता है, जिससे साँसें स्वतंत्र होती हैं। मत्स्यासन एक खिले हुए कमल की तरह फेफड़ों को विस्तार देता है। प्राणायाम एक शांत समुद्र की लहर है जो श्वास की लय को स्थिर करती है। ध्यान एक खुले आकाश की तरह चिंता को उड़ा ले जाता है, जिससे अस्थमा की जकड़न ढीली पड़ती है। योग सूत्र 1.2 की भावना—चित्त की शांति—यहाँ साकार होती है, क्योंकि शांत मन साँसों को मुक्त करता है, और शरीर पुनः जीवन की लय में बहने लगता है।

गैस्ट्राइटिस और अल्सर, जैसे पेट में सुलगती आग, तनाव की चिंगारियों से भड़कते हैं। योग चिकित्सा, एक ठंडे झरने की तरह, इस आग को बुझाती है।

प्रत्येक आसन में जैसे एक नृत्य है जो शरीर को लचीलापन देता है। प्रत्येक प्राणायाम, जैसे एक गीत है जो साँसों को स्वतंत्र करता है। प्रत्येक ध्यान जैसे एक तारा है आत्मा को प्रकाशित करने वाला।

मैंने शुरु में ही जीवन की उथल-पुथल भरी नदी की बात की थी जहाँ मन की लहरें और संसार का कोलाहल आत्मा को भटकाते हैं। योग के अष्टांग मार्ग के चार रत्न—ध्यान, धारणा, प्रत्याहार, और समाधि—एक शांत तट की ओर ले जाते हैं, जहाँ आत्मा अपनी शाश्वत शांति में लीन हो जाती है। ये चारों मानो एक प्राचीन मंदिर के स्तंभ हैं जो मन को बिखरने से रोकते हैं और उसे अनंत की ओर उन्मुख करते हैं।

प्रत्याहार, वह पहला कदम है जिसमें एक नाविक अपनी नौका को तूफानी समुद्र से किनारे की ओर मोड़ता है। यह इंद्रियों का संन्यास है, जहाँ मन बाहरी संसार की चकाचौंध—शब्द, रूप, गंध—से मुक्त होकर भीतर की शांति की खोज करता है। जैसे एक कछुआ अपनी इंद्रियों को खोल में समेट लेता है, प्रत्याहार मन को सिखाता है कि वह बाहरी उत्तेजनाओं के पीछे न भागे, बल्कि आत्मा के शांत सरोवर में डूब जाए। यह मनो-दैहिक विकारों की आँधी—चिंता, तनाव—को शांत करने का प्रारंभिक द्वार है, जो मन को स्थिरता की नींव देता है।

धारणा दूसरा चरण है। यहां एक दीपक की लौ है हवा के झोंकों के बीच स्थिर रहने का प्रयास करती हुई। यह मन का एकाग्रचित्त होना है, जहाँ विचारों का भटकाव रुकता है, और चेतना एक बिंदु—चाहे वह श्वास हो, एक मंत्र हो, या ईश्वरीय चित्र—पर टिकती है। जैसे एक तीरंदाज अपने लक्ष्य पर नजर जमाता है, धारणा मन को बिखरे हुए विचारों के जंगल से निकालकर एकाग्रता के शिखर पर ले जाती है। धारणा योग की शिक्षा का अर्जुन है।

ध्यान तीसरा सोपान है। एक खिले हुए कमल की तरह जो कीचड़ भरे तालाब में भी अपनी पंखुड़ियाँ सूर्य की ओर खोलता है। यह वह अवस्था है, जहाँ एकाग्रता सहज प्रवाह में बदल जाती है, और मन विचारों के बिना, केवल चेतना के सागर में तैरता है। ध्यान वह शांत राग है जो मन को गहरे विश्राम में डुबोता है, जहाँ चिंता, भय, और दुख की लहरें थम जाती हैं। यह मनो-दैहिक विकारों—जैसे एक्जिमा, अस्थमा, या पुरानी थकान—का प्रबल औषधि है, क्योंकि यह शरीर में सेरोटोनिन और एंडॉर्फिन जैसे सुखद रसायनों का स्राव बढ़ाता है, और तनाव की जड़ को ऐसे पिघलाता है, जैसे सूर्य की किरणें कोहरे को विलीन करती हैं।

समाधि, वह अंतिम शिखर है, जहाँ आत्मा और अनंत एक हो जाते हैं, जैसे एक बूँद सागर में विलीन होकर सागर ही बन जाती है। यह वह अवस्था है, जहाँ मन का अहंकार गायब हो जाता है, और केवल शुद्ध चेतना रहती है—न कोई द्वंद्व, न कोई पीड़ा। समाधि मानो एक तारों भरी रात है जहाँ प्रत्येक तारा आत्मा का प्रकाश है, और सारा आकाश उसकी अनंतता। यह मनो-दैहिक विकारों का पूर्ण नाश है, क्योंकि यहाँ मन और शरीर की सीमाएँ मिट जाती हैं, और आत्मा अपनी मूल प्रकृति—शांति और आनंद—में लौट आती है। समाधि योग सूत्र योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः का चरम बिंदु है, जहाँ चित्त की सभी वृत्तियाँ शांत होकर अनंत में विलीन हो जाती हैं।

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(साभार- फेसबुक वॉल से)

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