डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन

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यह शहर : लन्दन

यह शहर उग रहा अब सेवार सा चारों तरफ
इस शहर की भीड़ में हर जन कहीं भटका हुआ
स्वप्न की इन फाइलों में दर्ज कितने स्वप्न हैं
जिन्दगी ऐसी कि ताला द्वार पर लटका हुआ
यह शहर देता खिलौना एक दिन सबको कहीं
खेलने के पूर्व ही छिनता मगर वह हाथ से
पुनः उसको छीन पाने की लड़ाई की कथा
बर्फ पत्थर-सी जमी को हटाना ज्यों पाथ से
इस शहर में हैं, बंधी राहें बंधे गंतव्य हैं
गाड़ियों पर गाड़ियां, रफ्तार पर रफ्तार है
हर जगह जो ढह रहा वह ढह रहा है
जो बन रहा, वह बन रहा है
प्रगति है उल्टी सही, पर प्रगति का बाजार है
यहां जो हैं दे रहे, वो भी कहीं हैं मांगते
हर कदम पर समय से दो कदम आगे भागते
और वे रुकते तभी जब बन्द होती मुट्ठियां
धड़कनों के सामने बन सत्य घूंसा तानते
इस शहर से हो न पाता मोह, ना होती घृणा
यहां जन मजबूरियों का घूंट पीता जी रहा
हार के प्रत्येक क्षण की फटी चादर को कहीं
सिर्फ ‘मरना नहीं है’ के निहित बल से सी रहा

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