10 जनवरी 1974 में नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगाँठ को चिह्नित करने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के द्वारा 10 जनवरी 2006 से एक नई परंपरा की शुरुआत की गई। इसके तहत हर वर्ष 10 जनवरी को ‘विश्व हिंदी दिवस’ के रुप में मनाने की घोषणा की गई। इसके बाद आधिकारिक रुप से हिंदी से जुड़े दो महत्वपूर्ण वार्षिक आयोजन होने लगे। 14 सितंबर को हिंदी के राजभाषा के रुप में मान्यता प्राप्त करने के दिन को ‘हिंदी दिवस’ के रुप में और 10 जनवरी को वैश्विक पटल पर हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार करने के दिन को ‘विश्व हिंदी दिवस’ के रुप में मनाया जाने लगा। वर्ष 2023 में 15-17 फरवरी को 12वें विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन फीजी में किया जाने वाला है जिसके पंजीकरण की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है।
आज हिंदी को जो वैश्विक पहचान मिली है उसमें भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी का विशेष योगदान है। आज से 44 वर्ष पहले 4 अक्टूबर, 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री के रुप में अटल जी ने संयुक्त राष्ट्र की सभा में हिंदी में अपना भाषण दिया। ये पहला मौका था जब किसी नेता ने संयुक्त राष्ट्र सभा को हिंदी में संबोधित किया था। करीब तीन मिनट का भाषण समाप्त होते ही वहाँ उपस्थित विश्व के सभी देशों के नेताओं ने करतल ध्वनि से अटल जी का स्वागत किया था। अटल जी ने अपने भाषण में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा पर बल दिया था।
भारतीय संसद भवन के केंद्रीय कक्ष के द्वार पर अंकित है – ‘अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम´’ अर्थात् यह मेरा है और वह पराया इस तरह की धारणा संकीर्ण मन वालों की होती है किंतु विशाल हृदय वालों के लिए सारा विश्व ही उनका कुटुंब होता है और वैश्विक कुटुंब की यही अवधारणा विश्व हिंदी दिवस की मूल भावना है। नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन का बोधवाक्य भी यही था – ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’।
भारतीय वाङ्गमय के उपवन में हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं के पुष्पगुच्छ के साथ सह-अस्तित्व को रेखांकित करती है। ये सभी भारतीय भाषाएँ स्वतंत्र अस्तित्व की होकर भी एक दूसरे के साहचर्य में अपनी सुरभि का प्रसार करती रहती है। इन्हें पृथक करके देखने से हम भाषायी विमर्श के एकलवादी दृष्टिकोण तक ही सीमित रह जाते हैं जबकि इसे समग्रता से समझने के लिए इसके बहुलवादी पक्ष और अन्तर्सम्बन्धों का विश्लेषण आवश्यक है। भाषा जलप्रवाह की तरह अपने दोनों ओर के किनारों की सीमारेखा को काटते हुए आगे बढ़ती रहती है इसीलिए आरोपित बंधनों से इसकी गति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, सूदूर पश्चिम से लेकर पूर्वोत्तर तक माँ भारती के हृदय में स्पंदन का स्वर भरती हिंदी, वैश्विक कुटंब को जोड़ने में अपनी महती भूमिका का पूरी निष्ठा से निर्वहन कर रही है।
भाषा संस्कृति का अभिन्न अंग है और यदि हम अपनी भाषा के प्रति गर्व और सम्मान का भाव नहीं रखते हैं तो हम अपनी संस्कृति का अनादर करते हैं। अपनी संस्कृति, अपनी भाषा के बिना हम अपनी पहचान की विशिष्टता का विसर्जन कर देते हैं। जिन तथाकथित अंग्रेज़ीदां लोगों को हिंदी बोलने में हीनता का बोध होता है उन लोगों की ज़ुबान पर भी पंडित, गुरु, जुगाड़ और जंगल जैसे हिंदी के शब्द चिपके हुए अक्सर सुना करती हूँ। हिंदी आपके जीवन में कुछ इस तरह रची-बसी है जिसे आप चाहकर भी ख़ुद से अलग नहीं कर सकते। संभव है आप किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हों जहाँ कामकाज की भाषा अंग्रेज़ी हो, यह भी संभव है कि आपके मित्र-मंडली में हिंदी बोलने वालों की संख्या सीमित हो, यह भी संभव है कि हिंदी को लेकर आपके मन में कोई दुराग्रह या पूर्वाग्रह हो, संभव है कि टंकन की असुविधा की वजह से आप हिंदी में न लिखते हों, संभव है कि अब आपकी सोच भी हिंदी से परे किसी और भाषा में अपना स्वरुप लेती हो लेकिन यह कैसे संभव है कि आपका हिंदी से कभी कोई नाता न रहा हो और आपकी ज़ुबान ने हिंदी की मिठास को न चखा हो। हिंदी की किसी कहानी ने आपके दिल को न छुआ हो, किसी हिंदी कविता ने आपकी भावनाओं को उद्वेलित न किया हो, किसी हिंदी गाने को आपने गुनगुनाया ना हो, आईने के सामने खड़े होकर आपने किसी हिंदी चलचित्र का संवाद न दोहराया हो..धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते समय आपकी ज़ुबान पर अनायास हिंदी का कोई शब्द चिपक सा न गया हो जिसे छुड़ाने में आपको अतिरिक्त प्रयास करना पड़ा हो ठीक वैसे ही जैसे हिंदी बोलते समय अंग्रेज़ी के किसी शब्द पर आपकी सूई अटक सी जाती है और आगे बढ़ने का नाम नहीं लेती। आप सिर खुजलाते रह जाते हैं और अंत में झुँझला कर उसे वैसे ही बोलकर आगे बढ़ जाते हैं।
यही तो है भाषा की सुंदरता जो एक-दूसरे में गंगा-युमना सी मिल जाती है और सह-अस्तित्व को परिभाषित करती है। आप नीर-क्षीर का विवेक लिए राजहंस की भाँति चुगते रहिए भाषाओं को लेकिन वे फिर भी मिलती रहेंगी और जलप्रवाह सी आगे गतिमान होती रहेंगी क्योंकि यही उसकी मूल प्रवृत्ति है, उसकी पहचान है और उसका उद्देश्य भी। दुर्भाग्यवश, आजकल भाषाओं के आपसी मेल के इस संगम-सौन्दर्य को मिलावट की कुदृष्टि लग गई है। अपनी समझ का विस्तार करने, भाषा का समुचित अध्य्यन कर अपने शब्दकोश को व्यापक बनाने के स्थान पर उसे विस्थापित करने और उसमें मिलावट करने की परम्परा का शिकार हो रही है हिंदी।
भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता का अध्य्यन करते समय प्राध्यापक डॉ. हेमंत जोशी जी ने एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर हम छात्रों का ध्यानाकृष्ट किया था। उन्होंने कहा था कि जब हम दुरुहता का आरोप मढ़कर किसी शब्द विशेष का प्रयोग बन्द कर देते हैं तो अप्रत्यक्ष रुप से हम उसके अस्तित्व को समाप्त कर रहे होते हैं। यदि हॉस्पीटल की जगह चिकित्सालय शब्द का बार-बार प्रयोग किया जाये तो इसे आम जन के लिए सामान्य बनाना कठिन नहीं होगा। रुग्णालय/ चिकित्सालय के स्थान पर अस्पताल का विकल्प होने के बाद भी हॉस्पीटल का प्रयोग इतना प्रचलित हो चुका है कि इसका मूल हिन्दी शब्द अब स्मृति से लोप होता जा रहा है। भाषाओं के सतत् गतिमान और प्रासंगिक बने रहने के लिए उसके शब्दकोश में नए शब्दों का सृजन, समावेश एवं व्यावहारिक उपयोग आवश्यक है किन्तु इसके लिए पुरातन शब्द-भंडार को नकार देना और अव्यावहारिक बताकर उपयोग से हटा देना अनुचित है।
समाचार वाचक एवं वाचिकाओं के एंकर का अवतार धरने के बाद से आंग्ल भाषा के बढ़ते प्रयोग को सामान्य समझकर स्वीकार कर लिया गया है। हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने रोमन में पटकथा लिखने और फ़िल्म छायांकन के दौरान आपसी संपर्क भाषा के रुप में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभाव के बारे में खुलकर बात की थी। यह हिंदी सिनेमा जगत के उस दोहरे चरित्र को दर्शाता है जहाँ कमाई का ज़रिया तो हिंदी है मगर संवाद की भाषा अंग्रेज़ी। भाषायी दासता की इस मानसिकता ने हिंदी का सबसे अधिक अहित किया है। हिंदी के व्याकरण की कठोरता की दुहाई देने वाले अंग्रेज़ी के मैजिकल अर्थात् चमत्कारिक ई, साइलेंट अर्थात् मूक पी और सी के विभिन्न उच्चारणों को बड़ी सुगमता से अपना लेते हैं तो बताइए इस पर क्या कहा जाए? निश्चित रुप से जिसमें आपकी रुचि होती है उसकी दुर्गमता भी आपको भाती है और जिसमें आपकी रुचि न हो उसकी सुगम राह भी एवरेस्ट की चढ़ाई सी दुष्कर प्रतीत होती है। अपनी रुचि का बोझ भाषा पर डालना भला कहाँ तक उचित है?
जो लोग अंग्रेज़ी भाषा को हिंदी के शत्रु के रुप में चिन्हित करते हैं उन्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि शत्रुता हिंदी के अनुवांशिकी का अंग ही नहीं। हिंदी का अस्तित्व प्रेम, सौहार्द, उदारता और आत्मीयता के भावों से मिलकर बना है। भारतीय भाषाओं से लेकर आंग्ल भाषा तक हिंदी ने सबको आत्मसात किया है इसीलिए उस पर जटिलता, रुढ़ता और अप्रासंगिकता का आरोप लगाना अज्ञानता का परिचायक है। प्रसिद्ध पत्रकार श्री राहुल देव ने अपने आधिकारिक ट्विटर खाते पर जानकारी दी थी कि हिन्दी को मुख्यत: साहित्य की भाषा समझने वाले उसे ज्ञान-विज्ञान में अंग्रेज़ी से कमतर आँकने वालों को यह ज्ञात होना चाहिए कि वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के द्वारा सभी भारतीय भाषाओं में हर ज्ञान क्षेत्र में लगभग 8 लाख पारिभाषिक शब्द मौजूद हैं।
बेहतर रोज़गार के अवसर की तलाश में सीमाएँ लाँघते भारतीय युवाओं के अनगिनत अधूरे सपनों और उनकी अपूर्ण आकांक्षाओं की भाषा है अंग्रेज़ी जिसमें वे अपना भविष्य सुरक्षित देख रहे हैं। हिन्दी उन्हें आत्मीयता की उष्मा तो देता है किन्तु जठराग्नि को शान्त करने हेतु पर्याप्त नहीं है। संभवत: यही कारण है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेज़ी अध्य्यन हेतु बाल्यकाल से ही प्रोत्साहित और प्रेरित करते हैं जिससे उनको बच्चों को उनकी तरह अंग्रेज़ी भाषा के अल्प ज्ञान से होने वाली समस्याओं का सामना न करना पड़े।
किसी भाषा के विस्तार के लिए शिक्षा, वाणिज्य, न्याय व्यवस्था एवं संपर्क के माध्यम के रुप में उसका व्यावहारिक प्रयोग अत्यावश्यक है। भारतीय भाषा संवर्धन समिति के अध्यक्ष पद्मश्री श्री चमू कृष्ण शास्त्री जी ने प्रभावी सुझाव देते हुए कहा था कि यदि यदि कोई उद्योगपति यह निर्णय ले कि मैं अपने संस्थान में भारतीय भाषा माध्यम से शिक्षा प्राप्त उम्मीदवार को प्राथमिकता दूँगा उनके लिए दस प्रतिशत नौकरी में आरक्षण दूँगा तो विद्यार्थियों के पास एक सकारात्मक उद्देश्य एक सार्थक प्रेरणा होगी क्योंकि जीविकोपार्जन हेतु अच्छे वेतनमान वाली नौकरी आज के युवा की प्रमुख प्राथमिकता है। जब नीतियाँ बनकर ऊपर से थोपी जाती हैं और समाज में उसके अनुकूल उत्साह, सहयोग और इच्छा का अभाव होता है तो वह मात्र नीति ही बनकर रह जाती है, व्यावहारिक स्तर पर उसका क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। जिस प्रकार अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता है उसी प्रकार भाषा के अनुकूल वातावरण के निर्माण का उत्तरदायित्व मात्र सरकार का ही नहीं अपितु समाज का भी है। सरकारी, गैर सरकारी, वाणिज्यिक एवं व्यावसायिक संस्थानों के सक्रिय, सार्थक और सकारात्मक योगदान के साथ-साथ समाज में भाषा के अनुकूल वातावरण विद्यार्थियों के साथ-साथ उनके अभिभावकों का समर्थन और सहयोग मिलना भी आवश्यक है।
विश्व हिन्दी दिवस के उपलक्ष्य में सिंगापुर संगम द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मैंने सिंगापुर के विद्यार्थियों और शिक्षिकाओं के साथ हिन्दी शिक्षण से संबंधित एक परिचर्चा की थी। उस परिचर्चा में अधिकांश विद्यार्थियों का कहना था कि वे अपनी माँ की प्रेरणा से हिन्दी सीख रहे हैं। भाषायी संस्कार में माँ की इसी भूमिका के कारण हम भाषा को माँ से जोड़ते हैं और मातृभाषा शब्द का प्रयोग करते हैं। सिंगापुर में अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार अपनी ओर से यही कहना चाहूँगी कि जहाँ एक ओर पुरानी पीढ़ी अपनी जड़ों से जुड़े रहने के उपक्रम में भाषायी विरासत को बचाने के लिए संघर्षरत है तो दूसरी ओर नयी पीढ़ी अंग्रेज़ी के बढ़ते उपयोग और हिन्दी की उपयोगिता के सवालों के बीच अपनी जड़ें तलाश रही है। लगाव से अधिक लाभ की भावना बलवती होती जा रही है। अन्य विदेशी भाषाएँ सीखना उन्हें भविष्य में अपने करियर के दृष्टिकोण से लाभदायक लगती हैं। बारहवीं की पढ़ाई के बाद हिन्दी भाषा सीखने की अनिवार्यता समाप्त होते ही साहित्यानुरागियों के अतिरिक्त अधिकांश विद्यार्थियों का हिन्दी भाषा से संपर्क कम होता चला जाता है। एक बार अपनी बिटिया के विद्यालय में उसकी हिन्दी शिक्षिका के साथ अभिभावकों की चर्चा चल रही थी जिसमें किसी एक अभिभावक ने बहुत पते की बात कही थी कि हमारे बच्चों की हिन्दी वैसी ही है जैसी कि बचपन में हमारी अंग्रेज़ी थी। जिस तरह हम हिन्दी में सोचकर अंग्रेज़ी में उसका अनुवाद किया करते थे उसी तरह आज बच्चे अंग्रेज़ी में सोचकर उसका हिन्दी अनुवाद करते हैं।
सरकारी नीतियाँ हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सहायक तो हो सकती हैं किन्तु असली उपलब्धि तो तभी है जब हम स्वेच्छा से हिन्दी को अपने दैनिक जीवन में अपनाएँ और रोमन की जगह देवनागरी लिपि में हिन्दी संदेशों का आदान-प्रदान करें। अपने निजी अनुभव के आधार पर मैं यह अवश्य कहना चाहूँगी कि पिछले कुछ वर्षों में हुई सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई क्रान्ति के फलस्वरुप अब तकनीकी रुप से हिंदी भाषा का प्रयोग अधिक सुगम हो गया है। आरंभिक असहजता के अस्थायी दौर से निकलने के बाद आप सहजता से हिंदी भाषा में संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। जब मैंने मैनहैटन, न्यू यॉर्क (अमेरिका) में प्रवास कर रहे अपने पति के मित्रों को वॉट्स अप पर ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ तकनीक का व्यावहारिक उपयोग करके ‘जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ’ वाले मौखिक संदेश को लिखित रुप लेते हुए दिखाया तो उनके चेहरे के भाव देखने लायक थे। वर्षों बाद हिंदी में लिखित संदेश भेजना उनके लिए सुखद आश्चर्य से कम नहीं था।
दुष्यंत कुमार का मशहूर शेर याद गया “कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता/एक पत्थर तो तबी’अत से उछालो यारो”।
अंग्रेज़ी के इस वर्चस्ववादी दौर में हिन्दी के प्रयोग को लेकर आपके व्यक्तिगत प्रयासों का महत्व कम नहीं है। व्यक्तिगत प्रयासों के सामूहिक अभियान का स्वरुप लेने की यात्रा कठिन हो सकती है किन्तु असंभव नहीं। मैंने कई विदेशी भाषी लोगों को धाराप्रवाह हिंदी, संस्कृत, अवधी, भोजपुरी बोलते सुना है जिसे सुनकर सुखद आश्चर्य के साथ-साथ आत्मग्लानि भी हुई कि मैंने क्यों नहीं किसी नई भाषा को इस तरह सीखकर आत्मसात करने का प्रयास किया। ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’ की तरह भाषा विज्ञान का वितान भी विस्तृत है जिसे अपने ज्ञानकोश में समेटने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती है। यह एक निरन्तर प्रक्रिया है इसीलिए जिन भाषाओं की जानकार होने का दंभ पाले हूँ उसके विषय में कितना कुछ सीखना शेष है तो क्यों न अपनी चिर-परिचित सी लगने वाली अन्य भारतीय भाषाओं के विषय में कुछ और जानकारी प्राप्त करुँ जिसके कई पहलुओं से अब तक अनभिज्ञ हूँ। मेरे लिए हिंदी मात्र एक भाषा नहीं अपितु, मेरी आत्मा का वह स्वर है जो मुझे परिभाषित करता है। मैथिली गर्भनाल की तरह मेरी माँ से मुझे जोड़ता है। संस्कृत मेरी आध्यात्मिक साधना और प्रार्थना का स्वर है। अंग्रेज़ी भाषा विश्व-समुदाय से जोड़ने वाला संपर्क-सूत्र और आजकल की सबसे छोटी, प्रचलित और प्रभावशाली सांकेतिक भाषा ‘ईमोजी’ भावनाओं की त्वरित चित्रित अभिव्यक्ति। भाषाओं के इस विस्तृत सागर से ज्ञान के मोती चुनते रहिए, उसे सहेजते रहिए, भावनाओं की माला में पिरोते रहिए और अभिव्यक्ति के अलग-अलग आभूषणों में चमकाते रहिए और इन सबमें बड़े प्रेम और सम्मान के साथ हिंदी को अपने दिल में बसाए रखिए क्योंकि हिन्दी हैं हम!
-आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर
