डॉ. गौतम सचदेव, ब्रिटेन
शोर के गढ़
शोर के गढ़ बन गए सब ओर
जिनमें शब्द अर्थों से छुड़ाकर
कैद कर रखे उन्होंने
पास जिनके आदमी अपने
बने नक्कारखाने।
लेखनी का शील करके भंग
वे फहरा रहे हैं फाड़ आंचल से
कंगूरों पर ध्वजाएं।
शोर का अभिषेक
अधजल गगरियों से हो रहा है
जब छलकते खोखले सम्मान
मुद्रा से सुसज्जित
राजपथ पर
झूमते चहुं ओर
अपने दांत दिखलाते
बजाकर तालियां सब राजसी गूंगे।
नुमाइश बन गई
नचनी सभी की
देख ऋतु पावस सनातन आ गई है
दादुरों के हो रहे सस्वर समागम।
राज्य अब केवल स्वरों का ही चलेगा
डफ बजाओ या नगाड़े
घोष या जयघोष करके
मंच पर आ जाओ तुम भी
या किले अपने बनाओ
गर्जनों के।
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(‘धरती एक पुल’ कविता संग्रह से साभार)