हमारे यहाँ कई पुराण हैं, परन्तु संभवतः आप ‘जूता पुराण’ से परिचित न हों। संसार में भारत ही ऐसा अनोखा देश है जहाँ “जूतों की पूजा” की जाती है तथा जूतों से भी पूजा की जाती है। बहुत लोगों का ध्यान चेहरे की ओर आकर्षित होता है और एक हम हैं जो हर समय हर स्थिति में नम्रतापूर्वक अपनी आँखें लोगों के पैरों पर ही गड़ाए रहते हैं। इससे हमने बहुत कुछ सीखा है, समझा है, वही ज्ञान मैं आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहा हूँ।

भारत की अपेक्षा पश्चिमी देशों में जूतों का विकास अधिक हुआ है। यही कारण है कि ये देश अपने को विकसित मानते हैं। पश्चिम में हर काल, हर घड़ी जूता पहनना अनिवार्य है। घर हो या बाहर, सुबह हो या शाम, गर्मी हो या सर्दी, गिरजा हो या श्मशान, बिना जूतों के मनुष्य को असभ्य समझा जाता है। दो दशक बीत गए लेकिन मैं यह नहीं जान पाया कि रात्रि में सोते समय लोग कौन से जूते पहनते हैं। हमारे यहाँ जूतों का स्थान घर की देहरी तक ही सीमित था और यहाँ अतिथिकक्ष, भोजनालय, शयनागार, स्नानकक्ष आदि कहीं भी रोक-टोक नहीं है। हमारे घर में जब कोई अतिथि जूता पहनकर मखमली कालीन पर विचरण करता है तब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह हमें ही रौंदकर चल रहा हो।

हमने अपनी आँखों से देखा है कि वर्षा काल में कई पुरुष जूतों पर जूता पहनते हैं।

हमारे सीमित ज्ञान में जूतों का रंग काला, सफेद व लाल हो सकता है। परंतु आजकल स्त्रियाँ सभी रंग के जूते पहने दिखाई देती हैं। साथ ही साथ हमने यह भी देखा है कि जूतों का रंग उनकी साड़ी, पर्स, बालों और कभी-कभी आँखों से भी मिलता है। शीत काल में महिलायें इतने लंबे ऊँचे जूते पहन लेती हैं कि सुंदर सुडौल पिंडलियाँ भी दृष्टि गोचर नहीं होतीं।

महिलाओं का जूतों के प्रति अनुराग अधिक है। वे एक जोड़ा जूता पहनती हैं और दूसरा जोड़ा बगल में दबाये ऐसे घूमती फिरती हैं जैसे गोद में बालक हो। जूतों के लिए स्त्रियाँ अनेक कष्ट झेलती हैं। आज के स्वाधीनता व समानता के युग में महिलाएँ ऊँची एड़ी की सैंडल पहन कर पुरुषों की बराबरी का दावा करती हैं।

पश्चिम में जूतों के संसार में कुछ अनोखी बातें देखने को मिलती हैं, जो भारत में नहीं पाई जातीं। यहाँ पर जूतों व मोजों में कैसे अटूट संबंध स्थापित हो गया है, यह कहना कठिन है।

उनका चोली दमन का साथ है। यहाँ पर बिना मोजे के जूते पहन ही नहीं सकते। कौन कहता है कि इन देशों में पर्दा प्रथा नहीं है? कपड़े तो ऐसे पहने जाते हैं कि अंग-अंग निहार लें परंतु नख-शिख देखने को नयन तरस जाते हैं।

जूतों में कुछ विशेषताएँ पायी जाती हैं। हमेशा नया जूता ही काटता है। आपने कभी सुना है कि पुराने जूते ने काट लिया। जूतों में भेदभाव की भावनायें भी होती हैं। जैसे, पुरुषों के जूतों लिए पुलिंग शब्द और स्त्रियों के जूतों के लिए स्त्रीलिंग शब्द। अगर आप जनतंत्र प्रणाली का सच्चा रूप देखना चाहते हैं तो जूतों की सभा में जाना न भूलें। छोटे, बड़े, सभी जाति, वर्ग के जूते एक ही क़तार में रखे मिल जायेंगे।

आप यह सोचने की ग़लती न करें कि जूतों में अवगुण ही अवगुण हैं। जूतों की जोड़ी अमर होती है। हमेशा एक दायाँ और दूसरा बायाँ। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है। दोनों के बीच लैला-मजनूँ के सामान अगाध प्रेम होता है। हमेशा साथ ही साथ रहते हैं। बिछड़ने पर अकेला जूता विधुर के समान है, कोई नहीं पूछता है उसे। अकेला जूता चाहे दायाँ हो या बायाँ, कचरे में ही देखने को मिलता है। मनुष्य स्वयं को कितना ही बुद्धिमान तथा बड़ा समझे मगर संसार में जूतों का ही बहुमत रहेगा क्योंकि मनुष्य अकेला होता है व जूते सदैव जोड़े में रहते हैं।

मनुष्य का हृदय कितना छोटा है। भगवान ने जब हमें बनाया तो सांसारिक सुख भोगने के लिए आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा भी दी लेकिन मनुष्य ने जब जूते का आविष्कार किया तो केवल मुँह व जीभ ही बनाई। उस पर भी जूता अगर मुँह खोल दे तो तत्काल ही निष्कासित कर दिया जाता है। जूते भी कम नहीं है, हम पर ऐसे सवार हुए हैं कि उनसे इस लोक में पीछा छुड़ाना असंभव है, परलोक जाकर ही पीछा छूट सकता है।

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नरेन्द्र शर्मा

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