
ऐया या वैया
डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम
कल शाम एक हिंदी अध्यापिका ने व्हाट्सएप करके मुझसे पूछ लिया कि गवैया शब्द में प्रत्यय ऐया है या वैया। एक बार तो मैं चक्कर में पड़ गया क्योंकि प्रत्यय ऐसे उपेक्षित नौकर हैं जो कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, क्यों करते हैं, उनका स्वभाव क्या है, इसके बारे में सोचने की फुर्सत भाषा के धुरंधरों के पास बिल्कुल नहीं है। और जरूरी भी नहीं कि उनके सारे कार्यकलापों में कोई संगति हो, कोई कार्य-कारण सम्बन्ध हो। हो सकता है, वे मनमाने ढंग से अपनी सुविधा देखते हुए किसी भी दल के साथ चल देते हों, आखिर स्वतंत्र विधायक ठहरे। मैं अपनी शादी में न जाऊँ, मेरी मर्जी। क्या पता, ये कुछ-का-कुछ उलजुलूल व्यवहार करते हों।
परन्तु! मेरी तो इज्जत दाँव पर थी। हालाँकि बात-बात में इज्जत दाँव पर लगानी नहीं चाहिए। अगर कोई बात समझ नहीं आ रही, तो कोई बात नहीं। जीवन भर सीखना है। परन्तु हमारे यहाँ गुरु को मास्टर की माना जाता है। उसके पास हर ताले की चाबी होनी चाहिए। भाई, वह है भी तो गोविन्द से बड़ा। कबीर कह गए हैं, अगर भगवान भी पास खड़े हों तो भी गुरु को पहले प्रणाम करना चाहिए। ऐसे में गुरु को कुछ न आता हो तो कितनी फजीहत होगी। अतः जब कोई शिक्षक मुझसे कोई नया अचर्चित प्रश्न पूछ बैठता है तो मुझे पसीना आ जाता है। एकाध ऐसा शिक्षक मुझे भरी सभा में पानी-पानी कर भी चुका है। हालाँकि उसके बारे में क्या कहूँ! और कहूँ तो उसकी कौन-सी इज्जत दाँव पर लगी है! परन्तु, ये अध्यापिका तो विनम्रता से पूछ रही थीं। इसलिए मन किया, इनकी जितनी सहायता कर सकूँ, करूँ। फिर ये मेरे ज्ञान में भी वृद्धि कर रही हैं। इन्हें तो धन्यवाद देना चाहिए।
मैंने उन्हें मन- ही -मन धन्यवाद दिया और गवैया शब्द को घूरना शुरू किया, जैसे पुलिस वाले अक्सर चोर- उचक्के से पूछते हैं — क्यों बे! क्या- क्या करतूत करके आया है? हालाँकि, चोर पुलिस वाले को कहता है, क्यों नाटक करते हो दारोगा, मेरा तो एक-एक कुकर्म आपके इशारे पर —
मुझे लगा, आज ज्यादा भटक रहा हूँ । अतः गवैये के पास लौटा। गवैया बोला — गुरु जी! ऐसे न देखो! मैं तो गा सकता हूँ। मुझे गाने वाला कौन बनाता है — ऐया या वैया– मैं क्या जानूँ?
मैं चक़्कर में। अगर गा के साथ ऐया है तो व का क्या काम! मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है? प्रश्न रोचक हो चला। रोचक नहीं, दिलचस्प! दिलचस्प में जो टपकता हुआ रस है, वह रोचक में नहीं है।
एक अचिंतित मन ने कहा — आ के बाद ऐया आए तो यह वृद्धि सन्धि है। परन्तु आ और ऐया मिलकर ऐया होंगे , वैया नहीं। गा के साथ ऐया लगकर गैया बनना चाहिए, गवैया नहीं। फिर सोचा, ये शब्दकोश रखे- रखे क्या काम आएँगे? इन्हें खोलो, शायद इन्होंने मगज़ खपाया हो।
आज दिन अच्छा था। शब्दकोश का वही पन्ना खुला जिसमें वैया का अर्थ, भाव और प्रयोग दिया था। स्पष्ट लिखा था — एक प्रत्यय जो वान् या वाला या करने वाला के अर्थ में आता है। शब्द थे — करवैया, चढ़वैया, पढ़वैया। गवैया नहीं दिखा। मैं खिन्न हुआ। फिर मैंने इसी शब्दकोश में ऐया प्रत्यय खोजा। मुझे नहीं मिला। मैं हैरान! मैंने एक और बृहत प्रामाणिक हिंदी कोश देखा। उसमें भी वैया था, किंतु ऐया नहीं था। प्रश्न उठा — क्या ऐया होता ही नहीं? मन ने कहा — नहीं, होता है।
अब दो शब्दकोश और सामने थे। उन्हें देखा तो लगा जैसे वे विपक्ष के शब्दकोश हों । वे भी बहुमान्य थे। इनमें उलटा था। इनमें ऐया प्रत्यय तो था, किंतु वैया नहीं था। यहाँ ऐया का अर्थ ठीक वही था, जो पहले वाले दोनों शब्दकोशों में वैया का था। ऐया से बनने वाले शब्द भी थे — रचैया, रखैया, भूलभुलैया। मैं मुस्कराया। भैया, दुनिया गोल है। पर चलो, गोल गोल घूमो। देखो, दुनिया देखो!
मेरी जिज्ञासा बढ़ चली। मन भटकने लगा। अँधेरे में टिमटिमाते जुगनुओं को पकड़ने लगा। अंदर से आवाज़ आई — ये ऐया और वैया पता नहीं क्या हैं? पर दीखने में एक – जैसे होते हुए भी मुझे न जाने क्यों अलग- अलग दिखाई दे रहे हैं। इनमें से एक कमांडर है तो दूसरा प्यादा। मुझे लगा — ऐया तो प्यादा है जो खुद काम करता है, किंतु वैया कमांडर है जो खुद काम न करके काम करवाता है। जैसे लडैया या लड़ाकू खुद लड़ता है किंतु लड़वैया लड़वाता है। वह ट्रम्प है।
एक संदेह उठा — लड़ने की क्रिया करने के लिए जब लड़ाकू है तो फिर लडैया की जरूरत क्या है?
तभी देखा — सामने बच्चे छत पर पतंग लड़ा रहे थे। मेरे अंदर से प्रश्न आया — बोलो! ये पतंग लड़ाने वाले लड़ाकू हैं या लडैया? या लड़वैया?
मैं मुस्कराने लगा — बात रोचक होती जा रही थी । मुझे लगा — ये लड़ाकू तो हैं नहीं। इनमें वह ख़ूनी आक्रामकता नहीं है, जो इज़राइल में घुसकर बलात्कार और अपहरण कर दे और जो गाज़ा को नेस्तनाबूद कर दे। ये तो बस मनोरंजन के लिए पेंच लड़ाते हैं। ये लडैया हो सकते हैं, लड़ाकू नहीं। सवाल उठा — फिर सांड से लड़ने वाले को क्या कहेंगे ? लड़ाकू या लडैया या लड़वैया? चर्चा ऐसे रोचक मोड़ पर आ गई कि मन गुड़ से लिपटी मधुमक्खी हो गया। न छोड़ते बने, न छूटते!
मुझे लगा — लड़ाकू, लडैया और लड़वैया तीनों होते हैं। तीनों अलग अलग हैं। नेतन्यानहु लड़ाकू हैं, जैलेंसकी लडैया और ट्रम्प लड़वैया।
परन्तु गवैया तो बिल्कुल अलग है। वह वैया होते हुए भी गवाने वाला न होकर खुद गाने वाला है। मेरी सारी कल्पना बेकार चली गई। यहाँ आकर मुझे लगा — वैया दोनों काम आता है — करने वाला और करवाने वाला के काम।
जिस प्रश्न की तलाश में हम चले थे, उसका उत्तर मिल गया था — गवैया में वैया प्रत्यय है न कि ऐया। यहाँ गा+वैया = गवैया है।
अचानक शरारत करते हुए मेरे मन में छिपे एक सत्यानाशी वाचाल ने पूछा — यह बताओ! अगर लड़ने वाले को लड़ाकू कहते हैं, गाने वाले को गवैया कहते हैं तो लठधर को लठेत या टिकैत क्यों कहते हैं? उन्हें लठेया या टिकैया क्यों नहीं कहते? या लठाकू अथवा टिकाकू क्यों नहीं कहते?
बस मेरे दिमाग़ का कचरा होने को था। मैंने कहा — अरे भाई! ये प्रत्यय तरह-तरह की पगड़ियाँ हैं, तरह-तरह की टोपियाँ हैं।इनके लिए इतने गंभीर न हो। जिसे जो पगड़ी फिट आए, अच्छी लगे, पहन लो। बस इससे ज्यादा मत सोचो। यही पगड़ी क्यों पहनी, किस कारण से पहनी, इस पगड़ी का क्या लाभ है — यह मत सोचो। मैं तो पहले ही कह रहा था– ये प्रत्यय गरीब हैं, मज़दूर हैं। इन्हें दो पैसे के लालच में कहीं ले जाओ। कोई काम करा लो। ये कर देंगे। जैसे चाहो, वैसे एडजेस्ट कर लेंगे।
अचानक ऐया वैया सामने आकर बोले — जी, हमारी बेज्जती न करो। हम तो आपके दर्जी हैं, ड्रेस निर्माता हैं। जैसा परिधान आप पर फिट आए, हम आपकी फिटिंग देखते हैं। अगर सबके लिए एक- सा, एक ही साइज़ का परिधान बना दें तो आप बहुत दुखी हो जाएँगे।
मैंने चुपचाप वैया वाली टोपी पहनी। गवैया बना और वृन्दावन में रमकर गाने लगा। अगर ऐया वाली टोपी पहन लेता तो गैया बन जाता। फिर मुझे यहाँ रहकर घास चरनी पड़ती।
अचानक रसखान दिखाई दिए। वे अब तक वहीं मंडरा रहे थे। आकर मेरे कान में बोले — गैया मुझे बनना है। मुझे कन्हैया से मिलवा दोगे?
मैं अचकचा गया। बस इतना ही कह पाया — रसखान भैया ! मेरे वश में कुछ नहीं। सब कुछ इन प्रत्ययों के हाथों में है। इनके सामने खुद कन्हैया की नहीं चली। इन्हीं ने उसे कान्हा बना दिया था। आजकल कनु कह रहे हैं। हद है फैशन की!!