फ़रिश्ता…
मेरी रक्षा के लिए भेजे फ़रिश्ते,
तुम हो भी क्या?..
और हो तो बस छुप जाओ
तुम मेरी पीठ के पीछे – सुरक्षित रहोगे…
यह जो विजेता का सेहरा तुम लाए हो –
अपने लिए रखो…
इन फूलों की चिंता है बस –
कि इनको चोट न पहुंचे
मेरे सिर के गिर जाने से…
चमक…
यह जल पर अग्नि की निशानी जैसा है –
समय नहीं मिटा सकेगा…
समय की सीमाओं के बस की बात नहीं है यह…
क्षणस्थायता को चतुरता से मुस्कुराने दो –
कुछ तो रहता है फिर भी इस सारे खेल के पार…
जब गंदगी के साथ पवित्रता भी जलकर राख बनेगी
और हम भी इस अपनी चमक को न बचा सकेंगे –
तब अनुपस्थिति भी हम प्रेम करनेवालों की
सर्वस्व की अनुपस्थिति की शान बनके रहेगी…
परी…
जिस लोक की तुम परी हो न
इससे मैं चाहूँगा क्षमा…
यहाँ नहीं मरा होगा कौई कभी
तो पुनर्जीवित होने का दुस्साहस
कैसे हुआ यह मेरा…
दर्पण…
तोड़ दो मुझे दर्पण की भांति…
उससे पहले बस फिर एक बार
तुम मुस्कुराओ प्यार से,
ताकि मेरे सब से छोटे टुकड़े में भी
और थोड़ी देर झलक रहे
तुम्हारी मुस्कुराहट की…
दुर्बलता…
तुमको मैं ढूँढ सकूँ उसके लिए कुछ ज़्यादा ही पहले से तुममें हूँ…
कुछ ज़्यादा ही हूँ पूर्ण कि न गल जाऊँ…
सुखी भी हूँ कुछ ज़्यादा ही कि न अपनाऊँ दुख को…
और प्रेम कुछ ज़्यादा ही करता हूँ कि न खोऊँ…
कुछ ज़्यादा ही मैं हूँ गुरुत्वहीन कि छोड़ सकूँ पृथ्वी को…
और कुछ बड़ा बन जाने की इच्छा रखूँ उसके लिए कुछ ज़्यादा ही महत्वाकांक्षी हूँ…
मैं दूरदर्शी भी हूँ कुछ ज़्यादा ही कि सीमाएँ देख पाऊँ…
और हाँ, दुर्बल भी हूँ कुछ ज़्यादा ही कि शक्ति के सिवा कुछ और हो सकूँ…
रात…
लहरों की झर-झर सी तुम्हारी इस हंसी से
अपने में डूबी रात कांप जाती है… और फिर
आश्चर्यचकित होकर फुसफुसाती है :
“करो न फिर एक बार…”
विलोम…
“शपथ” शब्द बस विलोम है “निष्ठा” शब्द का,
दूसरा न होने पर ही है पहला अपेक्षित…
वही स्थिति है “प्रेम” तथा “कर्तव्य” की…
क्षमा...
प्रायश्चित करने पर पाप धुलें –
यह नियम बढ़िया बनाया, ऊपरवाले!
पता था न कि स्वयं को काम आएगा एक दिन
जब आएगा अपनी सृष्टि पर पश्चाताप?..
दुखी न हो, प्राणदाता… नष्ट कर दो…
तुम्हारी ही सिखाई इस उदारता से
क्षमा किया है हमने तुमको आज…
सत्य…
हम सत्य को तलाशते हैं उतनी लगन से
मानो उसके सिवा कुछ और भी हो सृष्टि में…
हम अवसर हैं ब्रह्मांड का स्वयं को दिया
पूर्ण होकर अपने शून्य को जी लेने का…
क्षितिज…
रसातल में गिरते समय तुम्हें साथ लेने का इरादा नहीं था…
वह बस गलती से हाथ पकड़ लिया था प्यार से…
पर जब गिर ही रहे हैं तो क्षितिज की ओर
अपनी आनंद-भरी दृष्टि रखना टिकाए…
कितना जीवन-भरा है यह सुर्यास्त!..
पेड़…
किसने कहा है कि कठिन है
जीवन में ऊपर बढ़ते जाना,
वह भी मस्ती में नाचते?..
उगते हुए पेड़ों ने तो
सरल बताया है…