आज सभी प्रदर्शनी की तैयारी में जुटे हुए हैं। एक कोलाहल सा मचा हुआ है। नहीं नहीं! हम कहीं बाहर प्रदर्शनी देखने नहीं जा रहे हैं, प्रदर्शनी यहीं है, हमारे ही घर पर- मेरी! पिछले छह महीनों में यह मेरी पाँचवी नुमाइश है।
मैं मज़ाक क्यों कर रही हूँ? इसलिए, क्योंकि मुझे अब ज़िन्दगी मज़ाक ही लगने लगी है, अपने नसीब पर कभी रोना आता है, तो कभी हँसी। वाह री क़िस्मत, तू भी जाने क्या लिखकर पन्ना मोसे बैठी है! और ये! मुई बायीं आँख और फड़क रही है, मुझे चिढ़ाने को!
अम्मा तो ऐसी व्यस्त हैं, मानो सारी दुनिया का बेड़ा इन्हीं को पार लगाना है- सोफों से कवर हटा दिए गए हैं, अंदर से बढ़िया कप प्लेट निकाले जा चुके हैं, नौकर कस-कस के झाड़-पोंछ कर रहा है, भाई को हिदायत दी गयी है कि इस बार मिठाई, हर बार की तरह बिकानेरवाले से नहीं, कुंवरजी की दुकान से हो, मानो वही मनहूसियत का कारण हो! मुझे भी लाल गुलाबी छोड़, फिरोज़ी साड़ी पहनने की हिदायत दी गयी है, शायद कोई जादुई असर हो जाए और मेरे रंग रूप में निखार आ जाए!
केवल पिताजी चुप बैठे है और उनके कनपटी की नस रह रह कर फड़क रही है- ऐसा तब होता है जब वो दाँत पीसते हैं, और दाँत तब पीसते हैं जब परेशान हों, अथवा अपने आप को कुछ कहने से रोक रहें हों।
दो रोज़ पहले ही मैने उन्हें माँ से धीमी आवाज़ में कहते सुना था, “अरे सुधा, तुम ख़ुद ही सोचो, लड़का सिर्फ़ बी.ए. पास है और हमारी श्यामली ने तो एम.ए.कर रखा है वो भी प्रथम श्रेणी में, परिवार भी कुछ अटपटा सा है, न तो सभ्य ही लग रहे हैं और न संस्कारी . . ..।”
इस पर माँ ने तड़ाक से जवाब दिया, “आये तो थे चार शहज़ादे, डॉक्टर -इंजीनियर, किसी को दहेज़ में गाड़ी चाहिए, किसी को फ्लैट . . .आजकल सब को चाहिए गोरी गुड़िया और संग में नक़द की पुड़िया!, कहाँ से लाओगे! बस अब रहने दो जी, बड़ी मुश्किल से खतौली वाली बुआजी ने रिश्ता बताया है . . ..अब तो बस तुम ये मनाओ की सब राजी खुशी निबट जाए।”
पिताजी एक लंबी, ठंड़ी साँस भरकर रह गए। मैनें भी उसी क्षण तय कर लिया कि मैं अपने पिताजी को एक पाई की भी परेशानी नहीं होने दूँगी। जिस लड़के ने भी हाँ कर दी, बस अपना मुक़द्दर समझ कर, अपना लूँगी।
मुझे पूरा कार्यक्रम तो भली भाँति मालूम ही था। जैसे ही लड़केवाले औपचारिकता समाप्त कर विराजमान हुए, मैं चाय की ट्रे ले नपे तुले क़दमों से पहुंच गई। लड़के पे नज़र पड़ी तो लगा गश खाकर गिर जाऊंगी- ठेगना, मोटा, ड्योढ़े दांत- बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला और बैठ गयी।
“खाना बना लेती हो? . . …बहुत ही अच्छी बात है, क्योंकि हमार बिट्टू को खाने का बहुत ही जादा सौक है।” वो तो दिख ही रहा था, उसकी दिलचस्पी मुझमें कम और बालूशाही में कहीं अधिक थी!
अब बिट्टू के पिताजी की बारी थी- “भगवान का दिया सब कुछ है, घर जरूर छोटा है पर बहू के भाग से वो भी जल्द बड़ा हो ही जायेगा, बस मैं यह सोच रहा था कि कहाँ बेचारी स्कूटर पे आना जाना करेगी . . . यदि आप गाड़ी . . ..। न जाने गाड़ी का नाम सुनते ही पिताजी में कौनसा गीयर लग गया, वो तीर की तरह उठ कर दरवाज़े के पास जाकर खड़े हो गए। ठीक वैसे ही जैसे फ़िल्म खत्म होने के बाद दरबान दरवाज़ा खोल कर खड़ा हो जाता है- भई सब निकलो, शो खत्म!!
लड़केवाले आवाक! इतना ज़रूर समझ गए कि एक मिनट भी और रुकना खतरे से खाली न था . . ..जल्दी जल्दी सदमे- से-भौचक्की माँ से आधी अधूरी नमस्ते कर के खिसक लिए।
पिताजी ने पास के दराज़ से मेरा बी.एड. का दाखिला पत्र निकाला और मुझे कौली भरके, आधा टुकड़ा बर्फी का मेरे मुँह में, और आधा अपने मुँह में डाला!!
–प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’
