जल्दबाज़ी में यूँही, स्कूटर को आड़ा-टेड़ा खड़ा करके, तेज़ क़दमों से राकेश बढ़ा और सड़क के कोने पर छोटी सी फलों की छबड़ी लगाए लड़के से बोला, “अरे भईया, ज़रा पाव भर सच देना।” एक नज़र घड़ी पर थी, और दूसरी झटपट फलों को स्कैन कर रही थी।
फल वाला भईया भी उसकी जल्दी भाँपते हुए एक ही साँस में बोला, “साहब वो तो नहीं है, पहले तो हर गली, हर मोहल्ले में मिलता था, यूँही उगता और पनपता था, अब इसकी डिमांड नहीं है।”
राकेश की त्यौंरी चढ़ी देख, सफ़ाई देते हुए, फिर बोला- “साहब एक तो कड़वा बहुत है, सो सब को नहीं फबता, फिर, महँगा बहुत है और सब को सस्ता सौदा मंगता! कुछ और माँगो साहब, सब कुछ मिलेगा,” बिक्री की संभावना बनाए रखते हुए, बड़ी उम्मीद और उल्लास के साथ लड़का बोला।
“ह्म्म्म, नहीं रहने दो। देखता हूँ, कैसे, सच के बिना ही काम चलेगा।” दो पल ठिठका और ऐसा कहकर राकेश तेज़ क़दमों से वापस लौटने लगा।
धड़ाम की आवाज़ आयी तो लड़के ने देखा कि वो फिसलकर चारों खाने चित पड़ा था!
डाल पे बैठा चिड़ा, हँसी-दबाती अपनी चिड़िया से बोला- “अभी तो शुरुआत है, आगे आगे देखो होता है क्या . .!”
–प्रीति अग्रवाल ‘अनुजा’