कुछ दिनों में मुझे कैनेडा आए एक साल पूरा हो जाएगा, पिछले साल जनवरी में, मैं सपरिवार इंडिया में था। कैनेडा गमन होने वाला था इस लिए माँ-डैड से मिलने इंडिया गया था। कोई नई बात तो बिल्कुल नहीं थी, १९९२ से में विदेश में हूँ और हर साल इंडिया चक्कर तो लगता ही था और हर बार वापसी पर माँ कितने आँसू बहाती थी; पर इस बार के आँसुओं ने सारे बाँध तोड़ दिए। आँसुओं को भी शायद पता चल चुका था की जाने वाला एक नहीं दो नहीं पूरे सात समुद्र पार जाने वाला है।
आज माँ की बहुत याद आ रही थी इस लिए मैंने माँ और डैड को इंडिया फोन किया, कैनेडा से समय अन्तर के कारण शायद अभी सूर्योदय भी नहीं हुआ हो, तभी माँ की आवाज़ निंदियाई-सी लगी। माँ से बात करते-करते में कहीं खो सा गया। माँ को मेरे जनम से ही आदि सीरी यानी माइग्रेन की शिकायत रही है और बाप रे, जब माइग्रेन का दर्द माँ को होता था तब सिर्फ़ एक ही चीज़ उन्हें आराम पहुँचाती थी और वो था सर पर कस कर चुन्नी या दुपट्टा बाँध कर सो जाना। उस समय मैं और मेरी बहनें इस बात का ख़ास ख़्याल रखती थीं कि हम बिल्कुल शोर न करें ताकि माँ ठीक होकर हमेशा की तरह हमारे साथ बैठे, बात करे, हँसे मुस्कराए। मुझे बचपन से ही उन्हें कभी-कभी सोते में निहारने की आदत पड़ गई थी।
क्या आपने कभी अपने माता-पिता को सोते निहारा है? मैंने बहुत सालों के बाद पिछली छुट्टियों में माँ और पिताजी को सोते देखा। पर बात करते-करते मुझे याद आया; डैड का स्वस्थ बलिष्ठ शरीर अब कमज़ोर और छोटा दिख रहा था। उनके काले घुँघराले बाल अब बेढब सफ़ेदी लिए हुए सूखे और बेजान लग रहे थे। झुरियों के झुंड के पीछे मैं अपने सुंदर माता-पिता को ढूँढ़ रहा था।
इस पुरुष ने रात-दिन एक कर के और अपने सपनों की होली जला कर अपने बच्चों की हर ख़ुशी पूरी की। उनकी हर ख़ुशी में उनके साथ ख़ुश हुआ और उनके छोटे से दर्द से ख़ुद दर्द का एहसास किया और इस बात की पूरी कोशिश की कि उसके बच्चे जीवन में सिर्फ़ सफल ही नहीं एक अच्छे मनुष्य भी बनें।
और माँ का तो क्या कहना, जिसके कोमल होंठों ने लोरियाँ गा कर सुनाईं। जिसने ख़ुद गीले में सोकर हमें सूखे पर अपने कोमल हाथों से थपकियाँ दे कर सुलाया। आज वही कोमल हाथ वृद्ध अवस्था में सूख चुके हैं। नीली-नीली रगें हथेली पर साफ़ दिख रही हैं और गुज़रे दिनों का परिश्रम याद दिला रही हैं। इस नारी ने हमें अपनी कोख में सहेजा और हर पीड़ा सह कर हमें जनम दिया। और फिर कभी प्यार से तो कभी मार से हमें जीवन का हर वह पाठ पढ़ाया जो हमें आज तक नेक राह पर बढ़ने को हमेशा प्रेरित करता है। बचपन में हुई पिटाई अब अमृत तुल्य लग रही है पर तब कितना ग़ुस्सा आता था।
व्यस्क होने पर सोते हुए माँ पिता को निहारने का या तो समय नहीं मिला या आधुनिक जीवन की अंधी दौड़ में हम कुछ ज़्यादा ही आगे निकल चुके हैं। पर पिछली बार देखा तो अन्दर से कुछ हिल सा गया, लगा आत्मबोध हो गया हो। माँ को देख कर अब लगता है कि एक समय की बलवती नारी अब निर्बल हो चली है . . . । भंडार घर से माँ की आवाज़ आई कि चावल का कनस्तर उठाने में उन्हें मदद चाहिए। क्या ये ही वही मेरी माँ है जो सारा दिन काम कर के भी कभी थकती नहीं थी और वही मेरे प्यारे डैड जो मुझे घंटों कंधे पर बिठा कर रावण-दहन दिखाते थे . . . आज थोड़े काम से थक जाते हैं।
निष्ठुर सत्य तो यही है कि हमारे माता-पिता अब वृद्ध हो चले हैं . . . उनकी आयु बढ़ रही है जैसे मेरी आयु बढ़ रही है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि मैं अपने बढ़िया वर्षों की और युवा अवस्था की और अग्रसर हूँ और वो दिन ब दिन वृद्धावस्था की ओर अग्रसर हो रहे हैं। समय का पहिया पूरा चक्र पूरा कर के वापस समय को उसी धुरी पर विपरीत दिशा में घूम रहा है। कल का माली अब ख़ुद फूल बन चुका है और उसे उसी प्यार व दुलार की ज़रूरत है जो वो अपनी बगिया के पुष्पों पर लुटा चुका है। कल का फूल आज अपने माली के प्यार-दुलार को लौटने के लिए तत्पर होना चाहिए। सच है . . . मंच वही है पात्र बदल गए है . . .
पर कहीं नए माली ने नए चमन की तलाश में अपनी पुरानी बगिया का परित्याग तो नहीं किया है? उन सूखते हुए फूलों का क्या होगा जिन्होंने कभी ख़ुद माली बन कर हमें सींचा था? यह सोच कर कि मैं भी उसी अंधी दौड़ का हिस्सा हूँ, मेरा मन आत्मग्लानि से भर गया। हर कोई यही सोचता है दूर सही पर साथ तो हमेशा रहेगा पर सच तो ये है कि हम सब नश्वर हैं और जितना समय हम साथ बिता सकते हैं उतना अच्छा है।
–विद्या भूषण धर