जब एक भारतीय अपना देश छोड़ता है और किसी भी नये देश में जाकर एक नये वातावरण में अपना जीवन पूर्ण रूप से प्रारम्भ करता है। अपने परिजनों से दूर, आपनी भाषा संस्कृति, परम्पराओं, अपने साहित्य, कला, भोजन और अन्य पदार्थों से वंचित हो जाता है। उसके मार्ग में अनेकों कठिनाइयाँ सामने आकर खड़ी हो जाती हैं। उस समय उसे अपना देश, उसे अपने मित्र और ख़ासकर उनकी मीठी-मीठी बातें जो हँसी मज़ाक उसे ख़ुश करते थे; यह सब कुछ उससे दूर हो जाते हैं और वह उस देश के ढाँचे में ढल जाता है। यह बात केवल एक भारतीय की ही नहीं बल्कि सभी उन लोगों की है जो विदेश की धरती पर बसे हुए हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में अपनी भाषा और संस्कृति भूलने लगते हैं। और धीरे-धीरे अपने देश से बिलकुल दूर होते चले जाते हैं और उनके बच्चे जो वहाँ जन्मते हैं वे भारत वंशी रंग-रूप से दिखते हैं। यदि कभी भारत जाते हैं तो स्वयं को अभारतीय पाते हैं। बार-बार उसके मन में यही प्रश्न उठता है कि हम अपनी जड़ें भूल गये। और सबसे बड़ी बात है जब इंसान की अपनी मातृभाषा भाषा खो जाती है तो उसका सर्वस्व खो जाता है। यही हर भारतीय प्रवासी की व्यथा पूर्ण कथा है।

इस दिशा में भारत सरकार विदेशों में अपने सरकारी दूतावासों के सहयोग से अपने देशवासियों को हिन्दी भाषा व संस्कृति की सुरक्षा के लिए अनेकों प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती रही है। लेकिन समय-समय पर इसमें कृपणता देखी गयी। निःसंदेह वर्तमान सरकार इस दिशा में काफ़ी जागरूक है और वह भारतीयों की अपनी भाषा और संस्कृति की सुरक्षा के लिए अनेकों क़दम उठा रही है। साथ ही प्रवासी लोग स्वयं ही जहाँ रहते हैं, वहाँ अपनी भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखने का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। इसी कारण आज भारत से अधिक, विदेशों में प्रवासी लोग हिन्दी के लिए तन-मन-धन से समर्पित हैं। इसीलिए हमने १९९८ में हिन्दी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। इसमें केवल हिंदी प्रेमी लोग इसके औपचारिक रूप से सदस्य थे और कभी-कभी विभिन्न स्थानों पर गोष्ठी या जो भी किसी ने लिखा था आपस में बैठकर सुन लेते थे। महाकवि प्रो. आदेश जी का इसमें बहुत बड़ा योगदान था। आपको साहित्य, धर्म, संगीत और भाषा का काफ़ी ज्ञान और अनुभव था। वह स्वयं एक सुप्रसिद्ध कवि थे। वह हर समय कुछ न कुछ लिखते रहते थे। कुछ और लोग, जैसे डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव जी, डॉ. भारतेंदु श्रीवास्तव, भगवत शरण श्रीवास्तव, शैल शर्मा, दीप्ति कुमार और कुछ अन्य लोग जैसे डॉ. ओंकारनाथ द्विवेदी जी जिन्हें हिन्दी भाषा से बहुत लगाव था वह गुएल्फ़ वि.वि. में प्रो. थे। उनके पास अनेकों लोग आते-जाते रहते थे और कभी-कभार वह भी हमारे साथ बैठ जाते थे। उनके छोटे भाई श्रीनाथ हिन्दी के विद्वान् थे किन्तु वे केल्ग्री में रहते थे, आजकल वे सरे, बी.सी. में हैं।

मैं उन्हीं दिनों एक शिक्षा बोर्ड की सेवा से निवृत्त हुआ था और मेरे पास बहुत सा समय था। मैंने सोचा कि क्यों न इस कार्य को एक रचनात्मक प्रोजेक्ट का रूप दूँ। मेरे मस्तिष्क में था कि हिन्दी की एक पत्रिका या एक हिन्दी का सूचना पत्र निकाला जाय जिसमें हिन्दी की बातें हों और कुछ रचनाएँ भी प्रकाशित हों। हिन्दी का एक मंच बने जिसके आधार पर सभी लोग एकजुट होकर काम करें। यह केवल निःस्वार्थ सेवा थी। जिसको कुछ लोगों ने स्वीकार किया और कुछ लोगों ने इसका घोर विरोध किया। मुझे इसका कोई अनुभव न था लेकिन चाह थी और जहाँ चाह है वहाँ राह है। उन्हीं दिनों सारे कवियों ने प्रो. आदेश के यहाँ एक कवि गोष्ठी में मिलना था। मैंने आदेश जी से इस बात पर उनकी सलाह ली कि क्यों न इसी दिन मैं इस पत्रिका का पहला अंक हस्तलिखित निकालूँ। उस समय पर कुछ रचनाएँ मेरे पास थीं, कुछ लोगों से अपनी रचनाएँ लिखने को निवेदन किया और इस प्रकार इन्हें एकत्र किया। मुझे कंप्यूटर आदि का कोई ज्ञान नहीं था। इसलिए अपने हाथों से इनकी नक़ल की। इससे पहले मैं विश्व हिन्दू परिषद का अध्यक्ष रह चुका था और वहाँ भी मैंने एक सूचना पत्र “हिन्दू चेतना” के नाम से प्रारम्भ किया था। वह हर माह निकलता था। उसमें मैं और मेरी पत्नी ही सारा काम करते थे, किन्तु संस्था के सदस्यों की रुचि बहुत कम होने के कारण मैंने इसे बंद कर दिया। अब मैंने इस पत्रिका नाम ‘हिन्दी चेतना’ रख लिया। यह संस्था हिंदी प्रचारिणी सभा के नाम से जानी जाने लगी। इस प्रकार मैंने हिन्दी चेतना का पहला अंक सभी को आश्चर्य के रूप में भेंट किया। कविजन अत्यंत प्रसन्न हुए और आदेश जी ने इसकी हृदय से प्रशंसा की और मुझे इस कार्य के लिए बधाई दी। अब पत्रिका तो निकल गयी किन्तु हमारे साथ इसके कार्यकर्ताओं की सूची का प्रश्न था। हर व्यक्ति इसका सम्पादक बनना और अपना नाम इसमें चाहता था लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार न था। न ही एक पैसा ख़र्च करने को। बहुत से लोग मेरे दुश्मन बन गये। वे इस पत्रिका का बहिष्कार करने लगे। अब, चूँकि, यह सारा मेरा विचार था और मुझे ही इस कार्य को करना था तो बहुत से लोगों ने मेरे साथ काम करने से मना कर दिया। कुछ लोग तो इसके इतने विरोध में आ गये कि वे इसे बंद कराने की धमकी देने लगे। ये लोग एकत्रित होकर आदेश के पास गये कि वे इस पत्रिका को नहीं चलने देंगे। आदेश जी को इससे बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अंत में सबसे कह दिया कि यह पत्रिका तो चलेगी, इसे कोई रोक नहीं सकता। इसके बाद अब मेरे मार्ग में नयी-नयी समस्याएँ आने लगीं। किन्तु मेरा दृढ़ संकल्प और इन लोगों की चुनौती ने मुझे इस कार्य को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनमें से कुछ लोग जो मेरे इस प्रयास से प्रसन्न थे, वे मेरे साथ चल पड़े।

उस समय इस पत्रिका का रूप बहुत ही छोटा था, जैसे कि ‘नवनीत-या सरिता’ की तरह। सारी पत्रिका हस्तलिखित होती थी और इसे मैं तीन महीने तक इसे पूरा करके इसकी फोटो कॉपी करवा कर लिफ़ाफ़े में डालकर सदस्यों के पास डाक से भेज देता था। उस समय इसकी केवल ५० प्रतियाँ छपती थीं। इतनी त्रुटियाँ हो जातीं कि मुझे अंक निकालने से पहले ही क्षमा याचना करनी पड़ती थी। इसकी सदस्यता बढ़ने लगी। वार्षिक शुल्क केवल १० डॉलर था। कोई भी आजीवन सदस्य नहीं था। इस प्रकार दो वर्षों तक यह सिलसिला इस प्रकार चला। इसके बाद भगवान ने मुझे श्री रत्नाकर नराले जी से अचानक भेंट करवा दी। नराले जी मराठी, हिन्दी और संस्कृत भाषा को कंप्यूटर पर लिख सकते थे। स्वयं इंजीनियर होने के नाते आपने इन भाषाओं के फॉण्ट बनाये थे। जिन्हें वह अच्छी तरह समझते थे और उनका प्रयोग भी करना जानते थे। उन्होंने मुझे इसका ज्ञान दिया और हिन्दी का एक सरस्वती फॉण्ट भेंट किया। मुझे कंप्यूटर से एलर्जी है, मेरा इससे बहुत बैर रहा है। मेरे दोनों बेटे जो प्राइमरी स्कूल में ही थे वे इसका प्रयोग अच्छी तरह कर सकते थे। मैंने नराले जी से निवेदन किया कि वे मेरी कंप्यूटर खरीदने में सहायता करें और इस फॉण्ट को मेरे कंप्यूटर पर लोड कर दें। उन्होंने मेरी विनय सुन ली और मुझे एक कंप्यूटर दिलवाया और साथ ही अपना फॉण्ट लगा दिया। मुझे प्रयोग भी समझा दिया और इसकी कुछ बातें मुझे नोट भी कर दीं। मैंने अभ्यास शुरू किया, परेशानी आयी लेकिन मैं बढ़ता गया और आज मैं पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हूँ। बस! अब क्या था जीवन में चमत्कार हो गया। अब सारी पत्रिका मैं कंप्यूटर पर करने लगा। और धीरे-धीरे जिन लोगों ने इस कार्य की मुझे प्रेरणा दी थी उन्हें इसके संपादक मंडल में स्थान दिया। इसका कलेवर बदल गया। नराले जी के बड़े भाई जो एक चित्रकार हैं और पेशे से एक आर्कीटेक्ट हैं, इनका टोरोंटो के निर्माणकर्ताओं में उनका एक नाम है। आप चित्र बनाते रहते हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकें भी इस कला पर लिखी हैं जो कुछ शिक्षा बोर्डों में प्रयोग की जाती हैं। आप एक मराठी पत्रिका “एकता” का मुख पृष्ठ लगभग २२ वर्षों से बना रहे हैं। आपने सहर्ष इस पत्रिका के मुख पृष्ठ की ज़िम्मेदारी ले ली। इसके बाद चेतना का मुख पृष्ठ वह ही बनाते हैं। इससे चेतना के रंग रूप में एक नया निखार आया। इस परिवर्तन से हिन्दी प्रेमी और भी उत्साहित हो गये और अनेकों लोगों ने इसकी सदस्यता ले ली। अब यह पत्रिका टोरोंटो के अतिरिक्त अन्य शहरों में पहुँचने लगी। कुछ दूसरे प्रान्तों को पता लगा, वे भी इसके सदस्य बनने के लिए उत्सुक हुए। इस प्रकार हमारा मनोबल बढ़ता गया। आदेश जी का सहयोग और समर्थन सदा ही मिलता रहा। चाहे वे यहाँ पर हों या न हों। उनकी पत्नी डॉ. श्रीमती निर्मला आदेश अभी तक इस पत्रिका के मंडल में हैं।

किन्तु जैसे कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। मुझे मेरे परामर्श मंडल ने सलाह दी इसका रजिस्ट्रेशन होना चाहिए। क्योंकि यह कार्य इस प्रकार बिना सरकारी स्वीकृति से आप किसी से कोई शुल्क नहीं ले सकते। आपको इसका पूरा हिसाब-किताब रखना चाहिए, इसलिए मैंने हिन्दी चेतना को एक बिज़नेस कम्पनी की तरह रजिस्टर करवा लिया और मैं इस पर टैक्स देता था और पत्रिका के बदले सदस्यों से सदस्यता शुल्क ले लेता था। इसका ख़र्च बढ़ने लगा और आय कम। कुछ लोगों मुझसे कहा कि कुछ विज्ञापन लगाओ और इसकी सहायता से तुमें कुछ भार कम हो जाएगा। मेरा अनेकों लोगों से अच्छा सम्बन्ध रहा और स्वयं उनके पास गया और उनसे विज्ञापन माँगना शुरू किया। भाग्यवश कुछ लोगों ने इस कार्य में मेरी सहायता की और इस प्रकार मेरा कुछ भार हल्का हो गया। लेकिन विज्ञापन पर भी पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि मालिक कभी भी अपना दिमाग़ बदल सकता है। लेकिन परिश्रम और धैर्य से मुझे  इस कार्य में बहुत सफलता प्राप्त हुयी।

जब चेतना प्रगति करने लगी, अच्छे-अच्छे लोगों ने इसे अपनाया। यहाँ तक कि भारत के दूतावास में हमारी पत्रिका स्थान पाने लगी। यहाँ के धार्मिक स्थलों,सामाजिक संस्थाओं ने इसकी सदस्यता ली। ओंटेरियो के अतिरिक्त अन्य प्रान्तों में यहाँ के वि.विद्यालयों व् पुस्तकालयों ने इसकी सदस्यता ली। दूरदर्शन एटीएन तक इसका संदेश पहुँच गया। हमारे कार्यक्रमों की प्रशंसा होने लगी। हिन्दी चेतना कैनेडा के बाहर देशों में भी चर्चित होने लगी तो और धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय पत्रिका बन गयी।

इस पत्रिका में समय-समय पर अनेकों हिन्दी प्रेमियों ने इसकी सहायता की और इसके प्रकाशन में सुधार लाने का प्रयास किया। साहित्य-कुञ्ज के सम्पादक और संस्थापक श्री सुमन घई जी एक अच्छे कार्यकर्ता हैं। उन्हें प्रकाशन और ग्राफिक्स का समुचित ज्ञान है, कुछ वर्षों तक आप भी मेरी सहायता करते रहे और हमें मार्गदर्शन दिया। इसके बाद किसी कारणवश वे मेरा साथ छोड़ कर चले गये। मैं किसी प्रकार से चेतना चलाता रहा और जैसे-तैसे इसे करता रहा। सारा काम मैं ही करता था। मेरे परिवार, विशेषकर मेरे छोटे बेटे विशाल ने मुझे इसमें बहुत सहायता की।

उन्हीं दिनों मेरी अमेरिका की साहित्यकार, लेखिका डॉ. सुधा ओम ढींगरा से हुई। उन्हें इस पत्रिका के विषय में भारत के कवि गजेन्द्र सोलंकी जी ने इसके बारे में बताया। कुछ दिनों के बाद सुधा जी का फोन आया और इस विषय पर बात-चीत हुई। उन्होंने बताया कि वे स्वयं एक हिन्दी की पत्रिका निकालने का मन बना रही हैं, क्यों न हम दोनों मिल-जुलकर इस पत्रिका को चलाएँ। कुछ समय के पश्चात मुझे कैनेडा के हिन्दी प्रेमियों ने शिकायत की कि उनकी रचनाओं के साथ पक्षपात होता है। केवल अमेरिका के लेखकों को प्राथमिकता दी जाती है। मुझे भी ऐसा प्रतीत होने लगा कि कैनेडा से निकलने वाली पत्रिका अमेरिका की पत्रिका बनती जा रही है। और धीरे-धीरे यह मेरे हाथ से निकली जा रही है। इस मतभेद के कारण मुझे डॉ. ढींगरा को पत्रिका से अलग करना पड़ा। अब यह पत्रिका पूर्ण रूप से कैनेडियन पत्रिका है। हमारा नया सम्पादक मंडल है। हम इसके मध्यम से उच्च कोटि का साहित्य प्रकाशित करते हैं। हमारे सारे सहयोगी निःस्वार्थ हिन्दी चेतना की सेवा करते हैं। ये लोग हिन्दी भाषा के प्रति समर्पित हैं। आज हम गर्व से कह सकते हैं कि हिन्दी-चेतना विश्व की गिनी-चुनी हिन्दी की पत्रिकाओं में अपना स्थान रखती है। इसका भविष्य उज्ज्वल है।

अब समय आ गया जब मुझे अन्य संस्थाओं के सदस्यों ने ने सलाह दी कि हिन्दी प्रचारिणी सभा को नान प्रॉफिट संस्था के लिए रजिस्टर कराना चाहिए। इससे संस्था को सरकारी मान्यता प्राप्त होगी, इसे चैरीटेबल श्रेणी मिल जायेगी। अधिक लोग इसे अनुदान देंगे। हिन्दी प्रचारिणी सभा एक सम्मानित संस्था मानी जायेगी। हमने ब्लूमबर्ग नामक वकीलों की कम्पनी से सम्पर्क किया जो यहाँ की संस्थाओं को नान प्राफिट बनवाने में एक कुशल अटार्नी हैं। उनकी फ़ीस लगभग ४००० डॉलर थी। परिवार ने यह कार्य ब्लूमबर्ग को सौंप दिया और उन्होंने सरलता पूर्वक ३-४ माह में यह संस्था नान प्राफिट बनवा दी। २००९ अगस्त से हिन्दी प्रचारिणी सभा एक नान प्रॉफिट व् चैरीटेबल संस्था है। इसके नियम बहुत कड़े हैं, हमें इसका पूरा हिसाब रखना पड़ता है और वर्ष के अंत में इसका टैक्स फ़ॉर्म भर कर सरकार को भेजना होता है । यह कार्य मेरा एकाउंटेंट करता है जो कि इस कार्य के लिए प्रशिक्षित है। वही संस्था के आय-व्यय का हिसाब रखता है। हमें जो भी दान मिलता है हमें उसकी रसीद देनी पड़ती है।

निःसंदेह हिन्दी चेतना के प्रकाशन से हिन्दी प्रचारिणी सभा को वैश्विक ख्याति मिली है। अब संस्था पत्रिका के प्रकाशन के अतिरिक्त अनेकों अन्य कार्य करती है। जैसे कि स्थानीय पुस्तकालयों में हिन्दी के बुक क्लब खोलना, विभिन्न शिक्षा केन्द्रों के साथ मिलकर हिन्दी की कक्षाएँ स्थापित करना, अस्पतालों और अन्य संस्थाओं के साथ साहित्यक व् सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करना, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हास्य कवि सम्मेलन आयोजन करना, हिन्दी के लेखकों को प्रोत्साहित करना, वि.विद्यालयों में उनके पाठ्यक्रम में सहयोग देना। मन्दिरों व धार्मिक क्षेत्रों में हिन्दी का कार्यक्रम प्रारम्भ करवाना, छुट्टियों में बच्चों के लिए कैम्प आदि लगवाना, हिन्दी के शिक्षकों की तलाश करना, तथा सरकारी सूचनाओं को हिन्दी भाषा में अनूदित करना, राजनैतिक क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा के प्रति सामान व्यवहार करना, तथा स्कूलों में हिंदी भाषा की शिक्षा को अन्य भाषाओं की तरह स्थान दिलवाना आदि अनेकों हिदी के प्रचार और प्रसार में लगी हुई है।

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-श्याम त्रिपाठी

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