
पेड़
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धर्मपाल महेंद्र जैन
खड़े हैं दो-तीन सदियों से
पेड़ घने जंगल में।
यहाँ पेड़ों से बात करना सरल है
उन्हें मालूम है चप्पा-चप्पा
जहाँ तक फैलती है उनकी छाँह।
वे जानते हैं कब
मेरुदंड हो जाता है तना
और बाँहें बन जाती हैं डालियाँ
कब कोई पंछी तिनका-तिनका जोड़
वहाँ बनाने लगता है घोसला
भरोसे के साथ
कि पेड़ खड़े रहेंगे
उसके बच्चों के लिए
देते रहेंगे छोटे-बड़े फल
धीरे-धीरे मीठे होते हुए।
पेड़ ऐसे ही होते हैं
बहुत दूर हो जड़ों से जो अनगिनत पत्तियाँ
उन तक को रस-रंग देते हैं
उछारते हैं फूल-फल
ताकि सूरज भभक भी जाये
तो छाँह पा सके राहगीर।
चौकन्ने खड़े रहते हुए लगातार
कहाँ है समय उनके पास
कि वे पहाड़ बनकर
धरती को आकाश से मिला दें
या नदी बनकर समुद्र से।
पेड़ को पेड़ रहना ही अच्छा लगता है।
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