संगीत की अनौपचारिक महफ़िल में बैठी हूँ। महफ़िल अनौपचारिक अवश्य है लेकिन महफ़िल संगीत के बड़े जानकारों की है। बड़े उस्ताद हैं तो छोटे उस्ताद भी, और निष्ठावान शागिर्द भी, जो तराशे जा रहे हैं। साज़ मिलाए जा रहे हैं। सुर थोड़ा ऊपर करो, थोड़ा नीचे, ज़रा सा उतार लें। न, न, थोड़ा सा ज्यादा हो गया। बस, बस बस यहीं। यह ठीक है। ओहो, फिर ज्यादा हो गया! जबतक सारे साज़ एक आवाज़ में न बोलें तब तक साजों और साज़िदों की यह कसरत चलती रही। …और फिर… सब एक सुर में। सभी एक दूसरे के पूरक या प्रेरक। गायक, तानपुरा, तबला,स्वर मंडल, सारंगी सब एक दूसरे के साथ। सुनने वाले भी।
‘जागूँ में सारी रैना, बलमा’ अलग अलग तरीके से बारबार दोहराया जा रहा है। सब भूलते जा रहे हैं। अपने वुज़ूद से परे, होश खोते जा रहे हैं। ख्रुमारी चढ़ती जा रही है। अंग-अंग, नस-नस में संगीत उतरता चला जा रहा है।विलंबित से आरंभ, मध्य लय और फिर द्रुत। उस्ताद का सजग निर्देशन। उस्ताद की दाद से चमकते चेहरे। सिर्फ संगीत की सत्ता। सुंदर भावपूर्ण बोल, कलाकारों के मध्य अद्भुत सामंजस्य। सभी कुछ विलक्षण।
ईश्वर ने मनुष्य को पशुओं की अपेक्षा सुविकसित मस्तिष्क दिया, वाणी का वरदान दिया और फूल-पत्तों, लता-वृक्षों, झरने-नदियों से सजा प्रकृति का सुंदर वातावरण प्रदान किया। प्रकृति का कण-कण एक अद्भुत लय और ताल से बद्ध है। भौंरे की गुनगुन, पंछियों का कलरव, वृक्षों के लहलहाना, नदिया की कलकल, झरने की गिरना सभी कुछ एक विशिष्ट तरीके से लयबद्ध है। जैसे संगीत में हर ताल सम पर समाप्त होता है, वैसे ही जीवन में भी सब कुछ सम पर ही समाप्त होता है। जीवन को रसमय बनाने के लिए इसी सम की आवश्यकता है। हमारे किसी भी कार्य या किसी भी भाव के विषम होते ही जीवन संगीत बेसुरा हो जाता है।
सब भाग रहे हैं। मशीन का-सा जीवन है। आनंद कहाँ है? कब आखिरी बार किसी फूल से बात की थी? कब अखिरी बार किसी पंछी की बोली सुनी थी? कब आखिरी बार उगते सूरज का मनभावन दृश्य आँखों में कैद किया था। ऐसा तो नहीं कि प्रकृति की हलचल समाप्त हो गई है, लेकिन जीवन-शैली ऐसी बदली है कि हर व्यक्ति एक अंधी दौड़ में निरंतर भाग रहा है। कहाँ और किसके पास है जीवन को समझने, टटोलने और अनुभूत करने का समय। कैलैंडर के पन्नों से दिन और महीने सरकते जाते हैं अब तो कैलेंडरों का स्थान भी मोबाईल फ़ोन ने ले लिया। भाव पर, भाषा पर, संस्कारों पर, हर उस वस्तु पर अस्तित्व रक्षण का खतरा मंडरा रहा है जिससे कभी मनुष्यता को परिभाषित किया जाता था।
सोचती हूँ कि इस बंदिश की इस पहली पंक्ति का हमारे वर्तमान जीवन से कितना मेल है। रात का बारह बज चुका है। बिस्तर पर लेटे घंटे से ऊपर हो चुका है। सोने की कोई तैयारी नहीं है सिवाय इसके कि बिस्तर पर लेट गए हैं। हाथ में मोबाईल फोन है। पति-पत्नी दोनों व्यस्त हैं, उंगलियाँ खटाखट की बोर्ड पर दौड़ रही हैं एक दूसरे की उपस्थिति नकारी जा चुकी है। सोशल मीडिया पर कितने लाईक मिले। सखी-सहेलियों, यार-दोस्तों, रिश्ते-नातेदारों से समाचारों का आदान-प्रदान हो रहा है। उन्हीं अंगुलियों की खटाखट में आँखें मुंदने लगती हैं। अगले दिन काम पर भी तो जाना है। अच्छा है कि तकनीकी विकास ने हमारे बीच की भौतिक दूरियों को एकदम मिटा दिया है किंतु उनका क्या जो बिल्कुल हमारे निकट, हमारे सामने सजीव साक्षात उपस्थित हैं? उधर रात का तीन बज गया है। कुछ किशोर -किशोरियाँ वीडिओ गेम खेलने में व्यस्त हैं। जीत निकट है, हार का भय है। उत्तेजना बढ़ती जा रही है। उत्तेजना के अतिरेक में मुँह से अंग्रेज़ी में गालियाँ भी निकल रही है। कोई जीता। कोई हारा। ब्रह्म मुहुर्त में जागने की बजाय अब सोना होगा। लेकिन जीतनेवाला जीत की खुशी में नहीं सो पाता और हारनेवाला हार के दुख में।
फिर सुबह हो गई है, किसी को काम पर जाना है, किसी को स्कूल। न मुस्तैदी है न चुस्ती है। लेकिन जाना तो है। दिन भर थकान रहती है, जैसे-तैसे दिन पूरा करते हैं। खाना खाया और फिर वही…। शनिवार-रविवार को सुबह उठने की जल्दी नहीं, सो आराम से लगभग दोपहर तक, घर में सब सोये पड़े हैं। उठकर भी किसी से कोई नमस्ते, चरण स्पर्श नहीं। फिर से फोन ही खींच लेता हैं। दिन बीता जाता है। अलसाए उठते हैं तथाकथित ‘ब्रंच’ करके। तब तक दिन ढलने लगता है और तब अलसाए लोगों के सोए तंतु जाग जाते हैं। पार्टियाँ, मेल-जोल जवान होने लगता है और एक बार फिर रात, दिन बन जाती है और दिन रात। कोई नहीं चाहता कि सोमवार आए, काम पर जाना पड़े। किंतु प्रकृति के पास यह सुविधा नहीं है। प्रकृति में हर कार्य यथासमय होता है। प्रकृति की लय कभी नहीं बिगड़ती। और जब बिगड़ती है तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी काँप उठते हैं। सब कुछ तहस-नहस हो जाता है। फिर उस विराट शक्ति के सम्मुख हम चींटी की तरह अस्तित्वहीन हो जाते हैं। पर हमारी स्मृति कितनी क्षीण होती है। कितना जल्दी भूल जाते हैं सूनामी, भूकंपों और बाढ़ों से आई तहस-नहस को। फिर स्वयं को सर्वशक्तिमान समझ बैठते हैं। भूल जाते हैं। उसे डिमेंशिया नाम से विभूषित नहीं करते वही तो सबसे बड़ा डिमेंशिया है कि आवश्यक आधारभूत बातों को भूल जाते हैं और उलझ जाते हैं तेरा मेरा, हिस्सा बाँट। कितनी बार यूक्रेन, सीरिया और काहिरा दोहराए जाते हैं।
सीमाओं का अतिक्रमण, सत्ता का लोभ और दुर्बल पर अत्याचार! इनसे उबर नहीं पाते। वस्तुतः यही तो साधना है हमें, यही तो सीखना है हमें। कुछ भी साधने के लिए बहुत अभ्यास अर्थात साधना अपेक्षित है। लेकिन साधक की साध पर ही निर्भर करता है कि वह कितनी कठिन साधना करता है। लेकिन कुछ सीखने की कोई आयु नहीं होती। भई, जब जागे तभी सवेरा। हालाँकि हमारे शास्त्रों में सूर्योदय से पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में उठने को सर्वोत्तम माना गया है। कहाँ उठ पाते हैं हम? लेकिन हम प्रयास तो कर ही सकते हैं न। जो अब तक कर नहीं सके वह आगे भी नहीं कर सकते किसी किताब में नहीं लिखा है। विश्व महामारी कोविड के समय हुए लॉकडाउन के दिनों में इंग्लैंड के 99 वर्षीय वयोवृद्ध कैप्टन सर टॉम मूर के बारे में कौन नहीं जानता? जब एक क्षीणकाय वृद्ध अपने बगीचे में बैसाखों की मदद से चल कर इंग्लैंड की राष्ट्रीय स्वास्थ योजना अर्थात एन. एच. एस. की मदद के लिए 24 दिन में एक हजार पाउंड जमा करने के अपने लक्ष्य से कहीं अधिक 32 मिलियन पाउंड इकठ्टा करते हैं तो यह स्थापित हो जाता है कि यदि हम कुछ कल्याणकारी कार्य करने का संकल्प ले लें तो प्रकृति का हर कण हमारे संकल्प की पूर्ति के लिए साथ देने लगता है। कहने का तात्पर्य बस इतना ही भर है कि कोई कार्य ऐसा नहीं है कि हम नहीं कर सकें बस संकल्प की आवश्यकता है।
प्रकृति और संगीत के साम्य को समझने का प्रयास करें तो जीवन कितना सुंदर हो सकता है। बस एक ही नियम पालन करना है। स्वयं को लय और तान की समझ से युक्त करना। आज भारतीय योग; योगः, योगा अर्थात अथवा अंग्रेज़ीकृत योगा का महत्व संपूर्ण विश्व में निर्विवाद एवं सर्वमान्य है। क्या है योग? भगवद्गीता के दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक की पंक्ति का अर्थ है– ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ अर्थात् कर्मों में कुशलता ही योग है। अब प्रश्न यह है कि यह कैसे संभव हो सकता है? वस्तुतः मन, बुद्धि और शरीर के संतुलन ही अवस्था ही योग है और वर्तमान जीवन-शैली हमें इस अवस्था को प्राप्त करने का समय नहीं देती, न इस पर विचार करने का ही समय देती है। वर्तमान मन, बुद्धि शरीर के इसी संतुलन का अभाव गहराता जा रहा है। इसी कारण, स्वास्थ्य, बोली-बानी इत्यादि सब कुछ लयहीन हो रहे हैं। कितनी अजीब सी बात है कि इसके लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है। बाकी मनुष्य स्वयं ही नष्ट करने में लगा है। विकास की कीमत चुकानी पड़ती है। गाँव से शहर आया आदमी गाँव से कट जाता है। देस से परदेस आया आदमी देस से धीरे धीरे कटता जाता है। भाषा बदल जाती है, चाल बदल जाती है, पोशाक बदल जाती है। कौआ हँस की चाल चलने लगता है। रंग जाता है रंगा सियार सा। विस्मृत कर देता है सबकुछ। तभी स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग जाग जाती है। पर्यावरण रक्षण के प्रति जग में जन-जागृति का अभियान लेकर वह विश्व मंच से गुहार लगाती है। तो अन्य सोए हुए भी जागने लगते हैं। आँखें अभी भी उनींदी हैं। लकिन जाग रहे हैं।
भाव विषम हो तो व्यक्त करने में कठिनाई होगी ही। तिस पर भाषा का अभाव तो अपाहिज ही बना देगा। बाजार में सबकुछ उपलब्ध है। किंतु ‘जड़ चेतन गुन दोषमय, बिस्व कीन्ह करतार। संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ॥’ विचार तो हमें करना होगा क्योंकि ‘शब्द संभाल के बोलिए, शब्द के हाथ न पाँव। एक शब्द है औषधि, एक करे है घाव’ प्रयास तो करना ही होगा, सुरीला बोलने का, सुरीला रचने का, सुरीला करने का। संयम तो रखना ही होगा। योग सीखना ही होगा। अभ्यास करना ही होगा।
मैं जाग जाती हूँ एक बार फिर जाग जाती हूँ, गायक प्रस्तुति के अंतिम चरण, अर्थात चरम पर पहुँच गया है। मैं लौट आती हूँ और ‘जागूँ में सारी रैना, बलमा की अंतिम तिहाई के साथ, संगीत के मदहोश करनेवाले जादू का अनुभव करते हुए एक नए योगमय संकल्प के साथ मैं भी साथ गुनगुनाना उठती हूँ।
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–वंदना मुकेश