घंटी बजने पर दरवाज़ा खोला तो वहाँ पर सोनिया एक सहमी से उन्नीस-बीस साल की लड़की के साथ खड़ी थी। सोनिया को मैं जानती थी, वह मेरी एक सहेली के घर पर काम करती थी। उस लड़की को देखकर लगा मानो मैं उसे जानती हूँ। दिमाग़ी मशक़्क़त करते हुए, मैंने उनसे अंदर आने को कहा।  शाम के छह बज रहे थे, महीना सितम्बर का ख़त्म होने को था। यों समझ लीजिए उत्तर भारत की सर्दी सा मौसम था उन दिनों मॉस्को की सड़कों पर। जबतक वे दोनों हाथ वग़ैरह धो रही थीं, मुझे दस दिन पहले घटा एक वाक़या याद आ गया।

हम मॉस्को के दक्षिण-पश्चिम के इलाक़े ओबरुचेव्स्की में रहते हैं, इस इलाक़े में बहुत सारे शिक्षा संस्थान हैं। दस दिन पहले मुझे रूसी जन मैत्री (पीपल्स फ़्रेंडशिप) विश्वविद्यालय के रूसी विभाग में एक सेमिनार में भाग लेने के लिए जाना था। हम कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें, हमेशा निर्धारित जगह पर बस चंद मिनट पहले ही पहुँच पाते हैं। देर न हो इसलिए मैं भागी जा रही थी। मॉस्को में फ़ुटपाथ काफ़ी चौड़े होते हैं। फ़ुटपाथ के बिलकुल बाएँ किनारे पर मुझे एक लड़की बहुत हैरान-परेशान-सी दिखी थी। उसके हाव-भाव कह रहे थे कि वह मदद की गुहार लगा रही है लेकिन न तो मेरे पास वक़्त था और न ही उसकी बाते मेरे तक स्पष्ट रूप से पहुँची थी; और वैसे भी कई लोग उसके इर्द-गिर्द रुक चुके थे और उसकी बात समझने की कोशिश कर रहे थे।

जिस सड़क के फ़ुटपाथ की बात मैं कर रही हूँ उसका नाम मिकलुख़ा-मकलया है और इसी पर प्रख्यात रूसी जन मैत्री विश्वविद्यालय की मुख्य इमारत, छात्रावास और कुछ विभाग हैं। यह विश्वविद्यालय 1962 में खोला गया था; तत्कालीन तीसरी दुनिया के पिछड़े वर्गों के लोगों को निशुल्क उच्चशिक्षा मुहैय्या कराने के लिए। लाखों की संख्या में विदेशी छात्र अब तक वहाँ से शिक्षा प्राप्त करके अपने देशों में काम कर रहे हैं। कहने का मतलब यह है कि इस सड़क पर विदेशियों को देखना और दसियों भाषाओँ में उनका वार्तालाप सुनना आम सी बात है। यह भी एक वजह थी कि मैंने उस लड़की को ख़ास तवज्जो न दी थी। लेकिन फिर भी वह मानसपटल पर अपनी साफ़-सुथरी वेशभूषा और परेशानी में भी शालीनता बना रख पाने के अंदाज़ के कारण छाप छोड़ गई थी। मुझे लगा कि सोनिया के साथ आई लड़की वही है।

जबतक उन दोनों ने हाथ धोए मैंने इलेक्ट्रिक केतली में पानी गरम करके चाय बना ली थी। मेज़ पर बैठकर जैसे ही बातें शुरू हुईं, मैंने उस वाक़ये का ज़िक्र करके उस लड़की से पूछा, क्या तुम ही थी उस दिन वहाँ?

पहले उसकी आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं, फिर छत को टकटकी लगाकर देखने लगीं और जब उसने नज़रें हमसे मिलाईं  तो आँखों की कोरों पर कुछ चमक मैंने भी देखी और सोनिया ने भी।

माहौल को सामान्य करने के लिए

मैंने पूछा: तुम्हारा नाम क्या है?

वह बोली: आइपेरी

मैंने पूछा: क्या इसका कुछ मतलब भी होता है?

आइपेरी: आइ क़िर्गीज़ ज़बान में चाँद को कहते हैं और पेरी का अर्थ परी होता है।

वह टूटी-फूटी रूसी भाषा में लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ जवाब दे रही थी। मैंने पूछा: कब से मॉस्को में हो?

वह बोली: साढ़े तीन महीने से।

तभी सोनिया बोली: यह आपके यहाँ काम करना चाहती है।

बात दरअसल यह है कि 2000 के दशक के शुरूआती सालों में मॉस्को की सड़कों, दुकानों आदि में मध्य एशियाई लोग काम करते दिखाई देने लगे थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद उसके सबसे पिछड़े राज्यों – क़िरग़ीज़िया, तजाकिस्तान और उज़्बेकिस्तान – में बेरोज़गारी की समस्या आसमान छूने लगी थी, उसी की सीधी व्युत्पत्ति थी इन देशों की  महिलाओं और पुरुषों का मॉस्को की सड़कों पर बड़ी तादाद में दिखना। मेरे यहाँ एक किर्गीज़ परिवार की महिलाएँ कुछ साल काम कर चुकी थीं और हमें इस देश के लोग पसंद आ गए थे। सोनिया से मैंने ही किसी को तलाशने के लिए कहा था।

पूछने पर आइपेरी ने बताया कि उसने किसी के घर पर काम नहीं किया है, लेकिन अपने घर पर किया है और बाक़ी मेरे सिखाने पर सीख लेगी।

चाय पीने और घर में कुछ देर बैठ लेने से आइपेरी के दिल पर पड़ी बर्फ़ जो आँसू के मोतियों में झलकी थी अब तक भाप बन चुकी थी। मैंने उससे पूछा: साढ़े तीन महीनों से क्या कर रही थी?

वह जवाब में बोली: एक कैफ़े में काम।

मैंने अगला सवाल दाग़ा: कहाँ?

वह बोली: मिकलुख़ा-मकलया के एक कैफ़े में।

वह फिर छत की ओर देखने लगी, इस बार जब उसने नज़रें मिलाईं तो उनमें कमज़ोरी नहीं दृढ-निश्चय झलका।

उसने पूछा: क्या आप जानना चाहेंगी उस दिन क्या हुआ था?

मैंने कहा: हाँ, बिलकुल।

उसने बहुत दबे और सहमे शब्दों में रूसी के चंद शब्दों को जोड़ कर बताना शुरू किया। जिस कैफ़े में वह काम करती थी उसका मालिक भी उसी के देश का था। वहाँ एक मैनेजर भी उसी की हमवतन थी। उसके बताने पर मुझे पता चला कि मॉस्को में ऐसे कैफ़े-रेस्ट्रॉं भी हैं जिसको चलाने वाले और वहाँ आने वाले दोनों ही रूसी भाषा ठीक से नहीं जानते हैं। आइपेरी जिस कैफ़े का ज़िक्र कर रही थी वैसे कई और कैफ़े भी उस सड़क पर हैं। दूसरे मुल्कों से आने वाले विद्यार्थी जबतक रूसी ज़बान से वाक़िफ़ होते हैं उन्हें कोई ऐसी जगह चाहिए होती है जहाँ वह तस्वीर दिखा कर अपना खाना बुक कर लें और वेटर उनका खाना लाकर उनकी मेज़ पर रख दे। तकनीक के चलते आजकल नक़दी के दिन लद चुके हैं और नए आए लोगों को नोटों और सिक्कों को पहचानने के झमेले में भी नहीं पड़ना पड़ता है। पेमेंट टर्मिनल पर बैंक का कार्ड लगाया और भुगतान हो गया।

कैफ़े के वेटर्स की यूनिफ़ॉर्म थी – सफ़ेद क़मीज़ और काली पैंट। आइपेरी का काम कैश डेस्क पर था, उसे किसी भी तरह के कपड़े पहनने की इजाज़त थी- बशर्ते वे साफ़ और सभ्य हो। सबको यह अच्छा लगता है कि वे अच्छा दिखें। यहाँ पर रहते हुए एक विरली बात मेरी नोटिस में आई है कि यहाँ के लोगों के पास कपड़े कुछ ही जोड़ी होते हैं लेकिन वे उसे इस सलीक़े से पहनते हैं कि लगता है मानो रोज़ नए कपड़े ख़रीदते हों। पहनने-ओढ़ने का हुनर आइपेरी को भी है। वह अपने सीमित साधनों में जितने ठीक से कपड़े पहन कर जा सकती थी, जाती थी।

उसका स्वभाव मधुर और शालीन है, वह काम मन से करती है और आने-जाने वालों से दुआ-सलाम ज़रूर करती है। अब अगर कोई ऐसा शख़्स सामने हो तो दूसरा भी गर्मजोशी और आत्मीयता से बात करेगा ही। जल्दी ही आइपेरी को वेटर और नियमित रूप से आने वाले ग्राहक पसंद करने लगे।

कैफ़े की मैनेजर एलवीरा उम्र में आइपेरी से लगभग दुगुनी थी और तमाम कोशिशों के बावजूद किसी भी क्षेत्र में उसका मुक़ाबला न कर पाती थी। उसका सारा ध्यान इसी बात पर रहता था कि वह उसकी कोई ग़लती पकड़ ले और उसे ख़ुद भी फटकारे और मालिक से भी डाँट लगवाए। कभी वह उसे उसके कपड़ों की पसंद पर टोकती, कभी कहती कि ग्राहक से वह ठीक से पेश न आई, कभी कहती कि ग्राहकों से फ़्लर्ट करना बंद करो। कभी अगर कोई वेटर ठीक से काम न करता तो उस बात की गाज भी आइपेरी पर गिरती।

कैफ़े का मालिक अब्दुल भी आते-जाते आइपेरी से थोड़ा हँसी-मज़ाक़ कर लेता था, आखिर थे तो वे हमज़बान और हमवतन। एलवीरा लम्बे समय से कोशिश में थी कि अब्दुल उस की ओर ध्यान दे, उसे पसंद करे, लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। वह रोज़ सज-धज कर आती, लुभाने वाले अंदाज़ में अब्दुल से बातें करती, नाज़-नखरे दिखाती, प्रत्यक्ष नहीं पर परोक्ष रूप से कई बार बता चुकी थी कि वह उसकी दीवानी है। अब्दुल को उसकी इन हरकतों से बहुत चिढ़ होती थी और वह उससे दूर-दूर रहता था। एलवीरा को उसने तब काम पर रखा था जब उसने कैफ़े शुरू ही किया था। और उसे याद था कि एलवीरा ने उसका काम बढ़ाने के लिए जी-जान एक कर दी थी। इसीलिए वह उसे अब तक बर्दाश्त करता था। लेकिन एलवीरा उस पर डोरे  डालने को कमर कसे थी।

अब्दुल का आइपेरी से बात करना उसे शुरू में नहीं भाता था, वह उसी मिनट आइपेरी को किसी काम में लगा देती थी। थोड़े दिनों में अब्दुल एलवीरा का मन भाँप गया और वह जब आइपेरी को झिड़कती तो उसे टोक देता। एलवीरा को उस समय ग़ुस्सा अब्दुल पर नहीं आइपेरी पर आता।

एक दिन अब्दुल आया, वह बहुत ख़ुश था। वह आइपेरी के कैश-काउंटर पर ही खड़ा होकर बतियाने लगा। ग्राहक आते तो किनारे हो जाता और फिर पास आकर बातें करने लगता।

एलवीरा उस समय अंदर दफ्तर में थी और हर पल सोचती कि अब अब्दुल अंदर आएगा और वह उससे बात करेगी। लेकिन अब्दुल तो जैसे कैश-काउंटर पर चिपक गया था। एलवीरा का उन चंद मिनटों में लीटरों ख़ून जल गया।

एलवीरा समझ गयी कि घी अब टेढ़ी उँगली से निकालना होगा। वह आइपेरी के साथ हिलने-मिलने लगी। वह जैसे ही फ़ुर्सत मिलती आकर उसके पास खड़ी हो जाती और बातें करती। एलवीरा का काम कैफ़े में राशन की उपलब्धता बनाए रखने का था जिसमें ज़्यादा वक़्त नहीं लगता था, उसके अलावा एलविरा को कैफ़े के सभी कर्मचारियों के काम पर नज़र रखनी होती थी। वह आइपेरी के पास खड़े होकर हर विषय पर बात करती, अपनी तलाक़शुदा ज़िन्दगी के बारे में बताती, कहती मर्द बहुत एहसान फ़रामोश होते हैं, कभी अपने 10 साल के बेटे के बारे में बताती जो ओश (किर्गीज़िया का एक शहर) में उसके माँ-बाप के पास था। यह आम-सी बात थी, मॉस्को काम करने आने वाले मध्य-एशियाई देशों के लोग अपने बच्चों को अपने माँ-बाप के पास परवरिश के लिए छोड़ आते हैं। आइपेरी को धीरे-धीरे एलवीरा पर तरस आने लगा, वह सोचती कितना मुश्किल होता होगा अपने बेटे से दूर रहना। एलवीरा की बातें ऐसी होतीं कि किसी को भी उस पर तरस और दया आ जाए। आइपेरी के मन से एलवीरा के लिए पड़े संशय के परदे एक-एक करके गिरने लगे।

आइपेरी को जब लंच-ब्रेक या कोई और ब्रेक लेना होता था तो वह यह लिखकर एक  पट्टी लगा देती कि कृपया दस मिनट बाद आएँ। एक दिन एलवीरा उसके काउंटर पर खड़ी थी तभी आइपेरी को ब्रेक लेने की ज़रूरत महसूस हुई। वह पट्टी निकाल कर समय वग़ैरह लिखने ही वाली थी कि एलवीरा बोली: इसकी ज़रूरत नहीं है, दस मिनट के लिए मैं तुम्हारा काम कर देती हूँ। पहले आइपेरी झिझकी लेकिन फिर मान गई।

वह दस मिनट से पहले ही लौट आई और अपने काम में लग गई। अब ऐसा अक्सर होने लगा, आइपेरी जब भी ब्रेक पर जाती एलवीरा उसका काम संभाल लेती। उस हफ़्ते के आखिर में जब हिसाब किया जाने लगा तो खाते मेल नहीं खाए और एक बड़ी रक़म की धाँधली नज़र आई। आइपेरी ने जब यह सुना तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया, उसकी ज़बान तालु से लग गयी और वह बुत-सी बन गई। एलविरा ने अपने व्यावहारिक अंदाज़ में पहले सभी वेटरों को ठीक से काम करने की लम्बी-चौड़ी नसीहत दी और यह फटकार भी लगाई कि चोरी-बेईमानी को बिलकुल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। फिर अब्दुल से बहुत संजीदगी से बोली कि आइपेरी को हमें फ़ौरन काम से निकाल देना चाहिए, नहीं तो बाक़ी कर्मचारी भी अपने-अपने काम में बेईमानी करने लगेंगे। अब्दुल को यह विश्वास नहीं हो पा रहा था कि आइपेरी ने ऐसी हरकत की है। लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या; तकनीक के मशीनी काम ने साफ़ बता दिया था कि कुछ गड़बड़ तो हुई है।

अब्दुल ने लगे हादसे से उबरने के लिए पहले आइपेरी को खूब फटकारा और फिर अपना यह फ़ैसला सुनाकर बाहर निकल गया कि कल से काम पर मत आना!

बुत बनी आइपेरी अबतक सब समझ गई थी, वह अब्दुल के पीछे ही कैफ़े से बाहर दौड़कर आई थी और उसी को अपनी सफ़ाई देने की कोशिश कर रही थी, असल बात बताना चाह रही थी, लेकिन अब्दुल कार में बैठ कर निकल गया था, और मेरे मानसपटल पर वह लड़की बस गई थी।

आइपेरी ने अपनी कहानी समाप्त की, लेकिन अब उसका चेहरा बिलकुल शांत था। पूरी कहानी से एक बार फिर गुज़र कर वह दुनिया का सामना करने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुकी थी।

उसने दबे शब्दों में कहा : अब तो आप मुझे काम पर नहीं रखेंगी? और मेरा जवाब सुनने के लिए वह दूसरी तरफ़ देखने लग गई।

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प्रगति टिपणीस

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