प्रणव बाबू अकेले रहते थे। उनकी पत्नी का देहांत हुए दो साल हो गए थे। उनके बच्चे दुनिया के दो कोनों में रहते थे – अमरीका और ऑस्ट्रेलिया। हालाँकि भारत इन दो किनारों का केंद्र हो सकता था लेकिन न जाने क्यों कभी हो नहीं पाता था। वे सुबह की सैर पर अपने जैसे सेवानिवृत्त लोगों के साथ जाते थे और उनके समूह की कोशिश यही रहती थी कि रोज़ अलग-अलग जगहों पर जाया जाए। पिछले हफ़्ते वे और उनके साथी बंगाली बाज़ार की सैर पर गए थे, वहाँ एक बड़े से अहाते में प्रणव बाबू को कुछ बच्चे दिखे। बच्चों से दूर रहने का एक ख़ालीपन उनमें था, शायद इसीलिए बच्चों की तरफ उनका ध्यान अनायास ही चला जाया करता था। पर उस दिन उन्हें कुछ खटका था। उनके जीवन का अनुभव यह कह रहा था कि वे बच्चे किसी एक परिवार के नहीं थे और न ही वे किसी स्कूल से सैर पर आए हुए बच्चे थे। उन बच्चों ने उनके मन में एक अजीब उत्सुकता जगा दी थी। कुछ दिन की कश्मकश के बाद एक दिन उनके पैर अकेले उस अहाते की ओर बढ़ गए। पहले वे असमंजस में रहे कि दरवाज़े पर दस्तक कैसे दी जाए। अंदर जाकर क्या कहेंगे – यह कि मन की उत्सुकता खींच लाई? उस गली में काफ़ी देर ऊपर-नीचे करने के बाद उन्होंने अपना दिल मज़बूत किया और जाकर घंटी बजा दी। एक भद्र-सी महिला ने दरवाज़ा खोला और उसके पूरे शरीर ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा और कहा, जी?

प्रणव बाबू ने झिझकते हुए पूछा क्या यहाँ बच्चों का हॉस्टल है?

  • नहीं।
  • फिर शायद मुझे कुछ भ्रम हुआ होगा, बूढ़ा हो गया हूँ।
  • कैसा भ्रम?
  • सुबह की सैर के समय यहाँ कुछ बच्चे दिखे थे।
  • और?
  • अकेला रहता हूँ, नाती-पोतों से मिले कई बरस हो गए। बच्चे मुझे बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं।जब से बच्चों को देखा था वही दिमाग़ में घूम रहे थे, इसीलिए चला आया। अब चलता हूँ। माफ़ कीजिएगा, आपको ज़हमत दी।

वह महिला पहले तो कुछ न बोली फिर कहा, “आप चाहें तो बच्चों से मिल सकते हैं।” यहाँ जो बच्चे हैं उन्हें मैं बहुत मुश्किल से भीख़ मँगवाने वाले गिरोहों से छुड़ा कर लाई हूँ और बच्चों के लिए उपयुक्त अवसरों की तलाश कर रही हूँ। आजकल किसी पर भी भरोसा करने का जल्दी मन नहीं करता, मैं नहीं चाहती कि इन बच्चों के साथ आसमान से गिरे और ख़जूर में अटके वाली बात चरितार्थ हो जाए। आप ठहरिए, मैं अभी बच्चों को लेकर आती हूँ। उस महिला ने यह भी बताया कि वह बाल-कल्याण से जुड़ी एक ग़ैर सरकारी संस्था चलाती है।

बच्चे आए, सभी सहमे हुए से थे। थोड़े समय के बाद वे प्रणव बाबू के साथ थोड़ा खुलने लगे। कुछ को अपने माँ-बाप, गाँव, घर-आँगन याद तो थे, लेकिन वे उनका नाम-पता नहीं जानते थे। मात्र इक्का-दुक्का ऐसे थे जिन्हें अपना ठिकाना याद था। प्रणव बाबू सब बच्चों से उनके नाम पूछने लगे, जवाब में छोटू, लंगड़ू, राजू, टिंकू और ऐसे ही कई नाम सामने आने लगे, जिनसे साफ़ ज़ाहिर था कि इनमें से कोई कभी स्कूल नहीं गया, जबकि कुछ बच्चे तरह-चौदह साल के भी थे। एक बच्चा नाम पूछने पर बिलकुल चुप खड़ा रहा।

प्रणव बाबू – बेटा, तुम्हें लोग क्या कहकर पुकारते हैं?

लड़का: कुछ भी …

कुछ भी यानी?

सड़ियल, भिक्खू, मनहूस

प्रणव बाबू यह सुनकर ख़ुद कुछ क्षणों के लिए सकते में आ गए, हिम्मत जुटा कर बोले

– “घर पर तुम्हें क्या कहते थे।”

लड़का: घर?

प्रणव बाबू: हाँ, हाँ तुम्हारा घर

लड़का: घर नहीं है 

प्रणव बाबू: अच्छा, अब तुम यहाँ पर हो, यहाँ लोग तुम्हें कैसे पुकारते हैं।

लड़का: यहाँ?  गूंगा कहते हैं

प्रणव बाबू: गूंगा?

प्रणव बाबू समझ गए कि उसे सब गूंगा क्यों बुलाते होंगे।

प्रणव बाबू घर की मालिकिन से यह कह कर निकल आए कि जल्दी ही फिर मिलने आऊँगा। वापसी में पूरे समय उस बच्चे के ये शब्द कि मुझे कुछ भी कह कर पुकारते हैं, उनके कानों में गूँज रहे थे और दिमाग़ चकरघिन्नी की तरह घूम रहा था कि ऐसा क्या किया जाए कि इस बच्चे को नाम और घर मिल जाए। साथ ही दिमाग़ में कितनी ही और बातें घूमने लगीं। अगर कल यह बच्चा ग़ुम हो जाता है तो इसे ढूँढ़ा कैसे जाएगा, यह बच्चा अपना परिचय क्या देगा, क्या इसका शुमार लापता लोगों कि सूची में होगा?  और उत्तर मिला कि नहीं। यानी वह ज़िंदा होकर भी ज़िंदा नहीं था, इंसान होकर भी इंसान नहीं था! फिर अचानक उनके मन में यह ख़याल आया कि अगर मैं ख़ुद उसे गोद ले लूँ। लेकिन फ़ौरन ही ये विचार भी आए कि उम्र के जिस पड़ाव पर मैं हूँ, शायद ही किसी के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी मुझे दी जाए। पूरे रास्ते वे दिमाग़ी मशक्क़त करते रहे, सोचते रहे की बाक़ी बच्चों के लिए कोई अच्छा मुक़ाम तलाश देना भी काफ़ी होगा, लेकिन इस बच्चे को तो सबसे पहले नाम देना होगा, ताकि उसका शुमार लोगों में होने लगे। काम और मुक़ाम उस बच्चे के लिए दूसरे दर्जे की बातें हो गई थीं। सुबह भी जब सबसे पहले यही ख़याल उनके दिमाग़ में आए तो उन्होंने ख़ुद को समझाया, यों भावों में बहकने से बात नहीं बनेगी, ठोस क़दम उठाने के लिए पूरी सूझ-बूझ से काम लेना होगा और वे सुबह की सैर के लिए तैयार होने लगे।

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प्रगति टिपणीस

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