(कहानीकार – वस्येवलद गार्शिन)

(रूसी भाषा से हिंदी में अनुवाद – प्रगति टिपणीस)

I.

– महाराजाधिराज पीटर प्रथम के आदेश पर मैं इस पागलख़ाने के मुआयने का ऐलान करता हूँ!

ये शब्द ऊँचे, कठोर और खनकते स्वरों में कहे गए। स्याही से सनी मेज़ पर एक फटे-पुराने बड़े रजिस्टर में मरीज़ के बारे में जानकारी दर्ज कर रहा अस्पताल का क्लर्क यह घोषणा सुनकर मुस्कुराए बिना नहीं रह सका। लेकिन मरीज़ के साथ आए दो नौजवानों के पास हँसी फटकी तक नहीं। जिस मरीज़ को लेकर वे दोनों अस्पताल पहुँचे थे, उसके साथ उन्होंने दो मुश्किल दिन ट्रेन में अकेले गुज़ारे थे और अभी वे बड़ी मुश्किल से अपने पैरों पर खड़े रह पाए थे। मंज़िल तक पहुँचने से एक स्टेशन पहले मरीज़ के पागलपन का दौरा बढ़ गया था। किसी तरह से एक क़मीज़ का इंतज़ाम करके ट्रेन के कंडक्टरों और कुछ सैनिकों की मदद से उन्होंने मरीज़ को वह क़मीज़ पहनाई थी ताकि उसे शहर और अस्पताल लाया जा सके।

दीखने में वह मरीज़ बहुत डरावना-सा था। सफ़र में तार-तार हो गई भूरे रंग की उसकी पोशाक के ऊपर मोटे और खुरदुरे कपड़े की जैकेट कमर से बंधी हुई थी। जैकेट की ढीली और लम्बी आस्तीनों की मदद से उसके दोनों हाथों को छाती पर क्रॉस के रूप में बाँधकर पीठ पर गाँठ लगाई गई थी। दस दिनों से न सोने के कारण उसकी आँखे सूजी और चौड़ी-खुली हुई थीं, उनमें अजीब स्थिरता और चमक थी। उसके निचले होंठ का एक किनारा घबराहट के कारण रुक-रुक के फड़क उठता था। उलझे हुए घुंघराले बालों की एक भारी लट उसके माथे पर लटक रही थी। वह तेज़ और भारी क़दमों से कमरे के एक कोने से दूसरे तक चहलक़दमी कर रहा था और कागजों से लदी पुरानी अलमारियों और कमरे की कुर्सियों को बड़े ग़ौर से देख रहा था, अपने साथियों की तरफ़ उसकी नज़र यदाकदा ही जाती थी।

– इसे दाहिनी ओर विभाग में ले जाओ।

– मुझे पता है, मैं सब जानता हूँ। पिछले साल भी तो मैं आपके यहाँ आया था। हमने अस्पताल का दौरा किया था। मैं सब कुछ जानता हूँ, मुझे धोखा देना आसान नहीं होगा – मरीज़ बोला। 

वह दरवाज़े की ओर मुड़ा। चौकीदार ने फ़ौरन ही दरवाज़ा उसके लिए खोल दिया; अपनी तेज़, भारी और निर्णायक चाल में सिर ऊपर की ओर उठाए हुए वह उस कमरे से बाहर निकला और दाईं ओर स्थित मानसिक चिकित्सा विभाग की तरफ़ दौड़ता हुआ बढ़ा। उसके साथ आए उसके साथी बड़ी मुश्किल से उसकी चाल से चाल मिला पा रहे थे।   

  • घंटी बजाओ। मैं नहीं बजा सकता। तुम लोगों ने मेरे हाथ बाँध जो रखे हैं।

दरबान ने दरवाज़ा खोल दिया और वे अस्पताल में दाख़िल हुए।

यह पत्थरों की बनी एक पुरानी और बड़ी सरकारी इमारत थी। उसकी ज़मीनी मंज़िल पर दो बड़े कमरे थे; पहला- भोजन कक्ष और दूसरा शांत रोगी कक्ष। एक बड़ा गलियारा था जिसके अंत में काँच का दरवाज़ा था जो फूलों के  बग़ीचे में खुलता था। साथ ही रोगियों के लिए लगभग बीस और कमरे थे। इसके अलावा निचली मंजिल पर दो अँधेरे कमरे भी थे, एक की दीवारों पर गद्दे मढ़े हुए थे और दूसरे की दीवारों पर लकड़ी के पटरे जड़े थे – इन कमरों में अत्यधिक उग्र मरीज़ों को शांत होने तक रखा जाता था। इसी मंज़िल पर मेहराबदार और एक अँधेरे-से बड़े कमरे में ग़ुसलख़ाना था। पहली मंज़िल महिला मरीज़ों के लिए थी। जहाँ से लगातार एक बेसुरी सी आवाज़ आ रही थी, जिसमें कभी-कभी चीख़ें भी मिली होती थीं। अस्पताल में अस्सी मरीज़ों के लिए जगह थी। लेकिन चूँकि वैसा अस्पताल आसपास के कई प्रांतों में नहीं था इसलिए उसमें तीन सौ रोगियों को भी भरती किया जाता था। छोटी-सी कोठरियों में चार और पाँच मरीज़ रहते थे। सर्दियों में रोगियों को बग़ीचे में जाने की इजाज़त नहीं होती थी। इसलिए सर्दियों में सभी खिड़कियों को लोहे की सलाख़ों के पीछे सील-बंद कर दिया जाता था जिससे अस्पताल में एक  नाक़ाबिले-बर्दाश्त घुटन फैल जाती थी।

नए रोगी को ग़ुसलख़ाने में ले गए। वह जगह एक तंदुरुस्त इंसान को विचलित करने के लिए भी काफ़ी थी, उसका असर नैराश्य में डूबे और उत्तेजित मनोभाव वालों पर और भी बुरा पड़ता था। यह एक बड़ा मेहराबदार कमरा था, जिसका फ़र्श चिपचिपे पत्थर का था, उसमें रौशनी सिर्फ़ कोने में बनी एक छोटी खिड़की से ही आती थी। वहाँ की दीवारें और मेहराबें गहरे लाल तैलीय रंग से रंगी थीं; मैल से काले हो गए फ़र्श की सतह पर पत्थर के दो स्नानघर थे, जो पानी से भरे दो अंडाकार गड्ढे लगते थे। पानी गर्म करने के बेलनाकार बॉयलर, बड़े-बड़े तांबे के स्टोव और तांबे के नलों और पाइपों के जाल ने खिड़की के सामने वाले कोने को घेर रखा था। उस कमरे का दृश्य पागल मरीज़ को घोर उदासी और व्यग्रता की गिरफ़्त में लेने वाला तो था ही, भद्दा, मोटा और हमेशा चुप रहने वाला बाथरूम का केयरटेकर उसे अपनी मौजूदगी से और डरावना बना रहा था।

अस्पताल के मुख्य चिकित्सक द्वारा सुझाई उपचार प्रणाली के अनुसार सिर के पिछले भाग में एक बड़ा निशान लगाने और नहलाने के लिए मरीज़ को जब इस भयानक कमरे में लाया गया तो वह बहुत डर गया और अपना आपा खो बैठा। उसके दिमाग़ में एक से बढ़कर एक अजीबोग़रीब और ख़ौफ़नाक ख़याल आने लगे।

यह क्या है? पूछताछ, तफ़्तीश? या फिर वह ख़ुफ़िया जगह जहाँ उसके दुश्मन उसे मौत के घाट उतारने के लिए लाए हैं? या शायद यह दोज़ख़ है?

आख़िरकार यह ख़याल भी मन में कौंधा कि यह कोई आज़माइश थी। उसके सख़्त प्रतिरोध के बावजूद उसके कपड़े उतार दिए गए। बीमारी के कारण दोगुनी हो गई अपनी ताक़त के चलते उसने ख़ुद को कई गार्डों के चंगुल से ऐसे छुड़ाया कि वे सब फ़र्श पर लुढ़क गए। लेकिन आख़िरकार चार गार्डों ने उसे धर ही लिया, उसके हाथ-पैर पकड़कर उसे गर्म पानी में डाल दिया। पानी उसे खौलता हुआ महसूस हुआ और उसके उन्मत्त दिमाग़ में बिखरे-बिखरे से कई ख़याल फिर कौंध उठे कि कहीं यह उबलते पानी और तपते लोहे से ली जाने वाली आज़माइश तो नहीं। पानी में उसका दम घुट रहा था, वह अपने हाथ-पैर मारने लगा जिन्हें गार्ड ने कसकर पकड़ रखा था, ऐसी हालत में जैसे-तैसे  साँस लेते हुए वह अनर्गल-सी बातें बकने लगा, बिना पूरी तरह ध्यान से सुने जिनके बारे में कोई अंदाज़ा लगाना नामुमकिन था। उन बातों में प्रार्थनाएँ भी सुनाई देती थीं और लानतें भी। वह तब तक चिल्लाता रहा जब तक थक नहीं गया, और आख़िर में गर्म आँसुओं से डूबे हुए दबे स्वरों में उसने जो कहा वह पहले बकीं उसकी बातों से बिलकुल अलग था: 

– शहीदों के महान संत गिओर्गी! मैं अपना शरीर आपको सौंपता हूँ। लेकिन आत्मा नहीं, बिलकुल नहीं!..

हालाँकि वह शांत हो गया था लेकिन चौकीदार  फिर भी उसे पकड़े हुए थे। गर्म पानी में नहलाने और सिर पर आइस-पैक लगाने से काम बन गया था। लगभग बेहोशी की हालत में उसे जब पानी से बाहर निकाला गया और सिर पर निशान बनाने के लिए स्टूल पर बिठाया गया तो उसकी बची ताक़त और सनकी विचारों ने फिर सिर उठा लिया।

– किस लिए? यह किस लिए? – वह चिल्लाया। – मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया। मुझे किस लिए मारा जा रहा है? उफ़! हे प्रभु! वे सभी जिन्हें मुझसे पहले सताया गया! मैं आप सब से विनती करता हूँ, मुझे मुक्ति दिलाइये… 

सिर पर हुई जलन की अनुभूति ने उसे पूरी ताक़त से लड़ने पर मजबूर कर दिया। कर्मचारी उसका सामना नहीं कर सके और उन्हें यह पता भी नहीं था कि वे क्या करें।

  • “कुछ नहीं किया जा सकता” कार्रवाई को अंजाम देने वाले चौकीदार  ने कहा।
  • इसे मिटाना होगा।

इन सरल शब्दों ने रोगी को झकझोर कर रख दिया।

  • “मिटाना! ..क्या मिटाना? किसे मिटाना? मुझे!” –

उसने यह सोचा और असह्य भय से अपनी आँखें बंद कर लीं।

चौकीदार  ने एक खुरदुरे तौलिये के दो सिरों को पकड़ा और उससे रगड़-रगड़ कर मरीज़ का सिर पोंछने लगा। ऐसा करने से वह निशान भी निकल गया और सिर की त्वचा की एक परत भी। उनकी जगह पर रह गई – एक नंगी लाल खरोंच। इस ऑपरेशन के दर्द को बर्दाश्त करना किसी शांत और स्वस्थ व्यक्ति के लिए भी आसान न होता लेकिन उस मरीज़ को तो यों लगा मानो सब ख़त्म हो गया हो। उसने अपने नंगे बदन को इतनी ज़ोर से झटका कि वह पहरेदारों कीजकड़ से निकल कर पत्थर की टाइल्स पर लुढ़कने लगा। उसे लगा कि उसका सिर काट दिया गया है। वह चीख़ना चाहता था लेकिन चीख़ न सका। उसे उसके बिस्तर पर बेहोशी की हालत में ले जाया गया, बेहोशी की हालत जल्दी ही लम्बी और मौत जैसी गहरी नींद में तब्दील हो गयी।

II. 

उसको होश देर रात आया। सब कुछ शांत था; बग़ल के बड़े कमरे में सोते मरीज़ों की साँसें सुनाई आ रही थीं। कहीं दूर नीरस और अजीब-सी आवाज़ में एक मरीज़ ख़ुद से बात कर रहा था, जिसे उस रात दोनों में से किसी एक अंधेरे कमरे में रखा गया था।  महिलाओं वाली ऊपर की मंज़िल से बहुत ही निचली और कर्कश आवाज़ में कोई जंगली गीत गा रहा था। मरीज़ ने इन आवाज़ों को सुना। उसे अपने सभी अंगों में एक नाक़ाबिले बर्दाश्त कमज़ोरी का एहसास हुआ, उसकी गर्दन पर भी चोट लगी हुईं थी।

“मैं कहाँ हूँ? मुझे क्या हुआ है?” ये सवाल उसके मन में आए। और अचानक पूरी स्पष्टता के साथ पिछले महीने की घटनाएँ उसे याद आ गईं और उसे याद आया कि वह बीमार है और यह भी कि वह क्यों बीमार है। बेतुके-से  कुछ ख़यालात, अलफ़ाज़, और हरकतें उसे याद आईं, जिससे उसका पूरा वजूद काँप उठा।

– लेकिन वह दौर गुज़र चुका है, भगवान का शुक्र है कि वह गुज़र चुका है! वह फुसफुसाया और फिर सो गया।

लोहे की सलाख़ों वाली एक खुली खिड़की से बड़ी इमारतों और पत्थर की बाड़ के बीच का एक छोटा सा कोना दीखता था। इस कोने की तरफ़ कभी कोई नहीं आता था और वहाँ बकाइन (लाईलैक) सहित कुछ जंगली झाड़ियाँ उग आई थीं। साल के इस पहर में बकाइन की झाड़ियाँ अपने पूरे निखार पर होती थीं… खिड़की के ठीक सामने, झाड़ियों के पीछे एक ऊँची बाड़ पर अंधेरे की गिरफ़्त मज़बूत होती जा रही थी, जिसके पीछे से बड़े बग़ीचे के किसी बड़े पेड़ की ऊँची फुनगियाँ चाँदनी में सराबोर झाँक रही थीं। दाहिनी ओर अस्पताल की सफ़ेद इमारत की लोहे की सलाख़ों वाली खिड़कियाँ रोशन थीं, बाईं ओर बिना खिड़कियों वाले मुर्दाघर की सफ़ेद दीवार चाँदनी में चमक रही थी। खिड़की की सलाख़ों से होते हुए चाँदनी कमरे के फ़र्श पर भी गिर रही थी और बिस्तर के एक हिस्से और आँखें बंद कर सोते मरीज़ के थके और पीले चेहरे पर भी पड़ रही थी, उस चेहरे पर अब पागलपन का लेशमात्र नहीं था। यह थकान से पस्त लोगों की मानिंद ऐसी गहरी नींद में था जिसमें सपनों और किसी तरह की हलचल के लिए कोई जगह न थी,  साँस की हरकत भी न के बराबर थी। कुछ पल के लिए यकायक वह पूरे होशोहवास में यों उठा मानो स्वस्थ हो लेकिन फिर गहरी नींद सो गया ताकि सुबह वह एक पागल की तरह बिस्तर से उठे।

III.

अगले दिन डॉक्टर ने उससे पूछा- आपको कैसा लग रहा है?

मरीज़ की आँख तभी खुली थी और अब तक वह कंबल ओढ़े लेटा हुआ ही था।

– बहुत अच्छा! – उसने उठते हुए अपने जूते पहनते हुए और अपना गाउन उठाते हुए जवाब दिया। सब बढ़िया है केवल यहाँ! सिर के पिछले हिस्से कि ओर इशारा करते हुए वह बोला।

– मैं गर्दन बिना दर्द के नहीं घुमा पा रहा हूँ। लेकिन कोई बात नहीं। अगर इसे समझो तो सब ठीक है; और मैं समझता हूँ।

– आप कहाँ हैं, क्या आपको यह पता है? 

– जी बिल्कुल, डॉक्टर! मैं पागलखाने में हूँ। लेकिन अगर ठीक से समझा जाए तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। सचमुच इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

डॉक्टर टकटकी लगाए उसकी आँखों में देखता रहा। सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे से झाँकती शांत नीली आँखों और अच्छी तरह से सँवरी सुनहरी दाढ़ी वाला उसका साफ़-सुथरा चेहरा गतिहीन और भावहीन था। वह बहुत ध्यान से देख रहा था।

– आप मुझे इतने ग़ौर से क्यों देख रहे हैं? आप मेरी आत्मा को नहीं पढ़ पाएंगे, मरीज़ ने कहा, “लेकिन मैं आपकी आत्मा को साफ़-साफ़ पढ़ सकता हूँ!” आप क्यों इतना अत्याचार करते हैं? आपने क्योंअभागों की भीड़  इकट्ठी कर रखी है, क्यों उन्हें यहाँ क़ैद कर रखा है? मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता: मैं सब कुछ समझता हूँ और शांत हूँ, लेकिन वे? ये तकलीफ़ें क्यों? जब किसी इनसान के मन में कोई महान विचार घर कर गया हो तो आम विचारों और बातों – जैसे  कहाँ रहना है, क्या महसूस करना है, वग़ैरह – के उसके लिए कोई मानी नहीं रह जाते। यहाँ तक कि इस बात के भी कि ज़िंदा रहना है या नहीं?

“हो सकता है,” डॉक्टर ने जवाब दिया, और कमरे के एक कोने में एक कुर्सी पर यों बैठ गया ताकि मरीज़ पर उसकी नज़र बनी रहे। मरीज़ अभी भी तेज़ी से एक कोने से दूसरे तक चहलक़दमी कर रहा था, घोड़े की खाल से बने अपने बड़े जूते खड़खड़ाते हुए चल रहा था और चौड़ी लाल धारियों तथा बड़े फूलों वाले काग़ज़ के बने गाउन के सिरे लहरा रहा था। डॉक्टर के साथ आए नर्स और वार्डन दरवाज़े पर ही सतर्क खड़े थे।

– मेरे पास एक बढ़िया विचार है! – मरीज़ ने कहा। “और जब वह विचार मेरे दिमाग़ में आया था तो मुझे लगा था कि मेरा पुनर्जन्म हो गया है।” मेरी इंद्रियाँ अब अधिक सक्रिय हो गई हैं, मेरा दिमाग़ अब पहले से कहीं बेहतर काम करता है। पहले जिस बात को समझने के लिए मुझे बहुत माथापच्ची करनी पड़ती थी या अटकलों का सहारा लेना पड़ता था, अब उनका मुझे सहजबोध हो जाता है। मैं दर्शनशास्त्र के सिद्धांत सहज ही समझ गया हूँ। मैं ऐसी महान बातों को स्वयं अनुभूत करता रहता हूँ जैसे कि स्थान और समय कपोलकल्पना के परिणाम हैं। मैं प्रत्येक युग में रहता हूँ। मैं बिना कोई स्थान घेरे, हर जगह या फिर यों समझिए कहीं भी नहीं रहता हूँ। और इसीलिए मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं है कि आप मुझे यहाँ रखेंगे या आज़ाद कर देंगे, मैं स्वच्छंद घूमूँगा या बाँध के रखा जाऊँगा।  मेरा ध्यान इस तरफ़ भी गया है कि मेरे जैसे यहाँ कुछ और भी हैं। लेकिन अधिकांश के लिए यह स्थिति भयावह है। आप उन्हें आज़ाद क्यों नहीं कर देते?  किसे ज़रूरत है…

डॉक्टर ने उसे टोकते हुए कहा – “आपने कहा कि आप समय और स्थान से बाहर रहते हैं। हालाँकि मेरी इस बात से तो आप सहमत होंगे कि आप और हम अभी इस कमरे में हैं,” डॉक्टर ने अपनी घड़ी निकाली, “आज 6 मई, वर्ष 18** है और अभी साढ़े दस बजे हैं।” – आप की इस बारे में क्या राय है?

– कुछ नहीं। मुझे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कहाँ नहीं होना है और कब नहीं होना है। अगर मुझ पर इन बातों का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता तो क्या इसका मतलब यह नहीं हुआ कि मैं हर जगह हूँ और हमेशा हूँ?

डॉक्टर हँस पड़ा।

“आपका तर्क वाक़ई अनोखा है,” खड़े होते हुए उसने कहा। – शायद आप सही हैं। फिर मिलेंगे। क्या आप सिगार पिएँगे?

– शुक्रिया। – वह रुका, उसने सिगार लिया और उत्तेजना में उसका एक सिरा दाँत से काट लिया और बोला- “यह सोचने में मदद करता है।” – यह दुनिया सूक्ष्म-जगत है। इसके एक सिरे पर क्षार है, और दूसरे पर अम्ल… ठीक ऐसा ही संतुलन उस संसार का भी है जिसमें विपरीत सिद्धांत निष्प्रभावी हो जाते हैं। अलविदा, डॉक्टर!

डॉक्टर आगे बढ़ा। अधिकांश मरीज़ अपने बिस्तर पर लेटे हुए ही उसका इंतज़ार कर रहे थे। एक मनोचिकित्सक को जितना आदर-सम्मान अपने पागल मरीज़ों से मिलता है उतना शायद किसी भी बॉस को अपने अधीनस्थों से नहीं मिलता।

वह मरीज़ अकेले हो जाने पर भी कमरे के एक कोने से दूसरे तक तेज़ी से चलता रहा। उसके लिए चाय लाई गई; उसने बिना बैठे ही दो घूँट में बड़ा मग खाली कर दिया और एक बड़ी सी डबलरोटी भी चुटकियाँ बजाते हज़म कर गया। उसके बाद वह कमरे से बाहर निकल गया और घंटों बिना रुके पूरी इमारत का चक्कर एक छोर से दूसरे तक तेज़ और भारी चाल में लगाता रहा। उस दिन बारिश हो रही थी इसलिए मरीजों को बग़ीचे में जाने की इजाज़त नहीं थी। जब एक पैरामेडिक ने नए मरीज़ की तलाश शुरू की तो उसे गलियारे के अंत की ओर इशारा किया गया; मरीज़ अपना चेहरा बग़ीचे को जाने वाले काँच के दरवाज़े पर लगाए खड़ा था और फुलवारी को ध्यान से देख रहा था। खसखस प्रजाति के विशेष चमक वाले एक लाल फूल ने उसका ध्यान आकर्षित कर रखा था।

“चलिए, आपका वज़न लेना है,” पैरामेडिक ने उसके कंधे को छूते हुए कहा।

मरीज़ जब उसकी ओर मुड़ा तो वह सकपका कर पीछे हट गया: मरीज़ की पागल आँखों में  ग़ुस्से और नफ़रत के अंगारे थे। लेकिन जैसे ही उसने पैरामेडिक को देखा, फ़ौरन ही अपने हावभाव बदल लिए और बिना कुछ कहे एक आज्ञाकारी कि तरह उसके पीछे यों चलने लगा मानो कि गहरे विचार में डूबा हो। वे डॉक्टर के कमरे में पहुँचे, मरीज़ ख़ुद ही वज़न नापने कि मशीन पर खड़ा हो गया, पैरमेडिक ने मशीन द्वारा दिखाए परिणाम को एक पुस्तक में उसके नाम के सामने नोट किया – 109 पाउंड। अगले दिन वज़न 107 पाउंड था और तीसरे दिन 106 पाउंड।

“अगर ऐसा ही चलता रहा, तो यह ज़िंदा नहीं बचेगा,” डॉक्टर ने कहा और यह आदेश दिया कि किसी भी तरीक़े से उसे अच्छा खाना खिलाया जाए।

लेकिन इस कोशिश और मरीज़ की बहुत अच्छी खुराक होने के बावजूद उसका वज़न हर दिन कम होता रहा, और पैरामेडिक अपनी किताब में घटते पाउंड लिखता रहा। मरीज़ न के बराबर सोता था और पूरा दिन चहलक़दमी में गुज़ारता था।

IV.

वह यह जानता था कि वह पागलखाने में है और यह भी कि वह बीमार है। कभी-कभी वह दिन भर की हलचल के बाद रात के सन्नाटे में ठीक वैसे ही जाग जाता था जैसा पहली रात को जागा था। उस वक़्त उसके पूरे शरीर में दर्द और सिर में भयानक भारीपन महसूस होता लेकिन वह पूरे होशोहवास में होता। हो सकता है ऐसा इसलिए होता था कि रात के सन्नाटे और कम रोशनी की वजह से उस पर परिवेश का असर कम पड़ता था या इसलिए कि नींद से जागे इनसान के दिमाग़ को पूरी तरह से काम करना शुरू करने में थोड़ा वक़्त लगता है। और यही वे पल होते थे जिनमें वह अपनी हालत को बहुत ठीक से  समझता था और यह भी कि वह स्वस्थ है। लेकिन जैसे ही दिन होता था; रौशनी और अस्पताल की हलचल से पैदा होने वाले आभास उसे एक बड़ी लहर की तरह दबोच लेते थे जिसका सामना उसका बीमार दिमाग़ नहीं कर पाता था; वह फिर से पागल हो जाता था। उसकी हालत अजीब थी – उसके दिमाग़ में दुरुस्त खयाल और बेतुकी बातें एक साथ मौजूद रहती थीं। वह यह समझता था कि उसके आस-पास के सभी लोग बीमार हैं, लेकिन उनमें से हर किसी में उसे कोई न कोई ऐसा छिपा हुआ चेहरा दीखता था जिसे वह या तो जानता था या जिसके बारे में उसने कहीं पढ़ा या सुना था। अस्पताल हर उम्र और हर देश के लोगों से भरा था। उनमें जीवित और मृत दोनों थे। वहाँ पर दुनिया भर के मशहूर और ताकतवर  लोग थे, ऐसे सैनिक थे जो पिछले युद्ध में मारे गए थे और फिर ज़िंदा हो गए थे। वह ख़ुद को एक ऐसे मायावी चक्र का हिस्सा मानता था था जिसमें पृथ्वी की सारी शक्ति एकत्र हो और उन्माद के पलों में वह इस बात से बहुत गर्वित होता था कि वह उस चक्र का केंद्र है।  अस्पताल के उसके सब साथी एक ऐसे काम को अंजाम देने के लिए वहाँ इकट्ठे हुए थे जिसका उद्देश्य उसके हिसाब से पृथ्वी पर से बुराई को ख़त्म करना था। वह यह नहीं जानता था कि उस काम को वह अंजाम तक कैसे पहुँचाएगा लेकिन वह यह महसूस करता था कि उसके पास उसे पूरा करने की ताक़त और हिम्मत दोनों हैं। वह दूसरे लोगों के ख़याल पढ़ सकता था; उसे हर चीज़ का पूरा इतिहास साफ़ दिखाई देता था। अस्पताल के बग़ीचे में एल्म के बड़े पेड़ उसे अपने अनुभवों की लम्बी दास्तानें सुनाते थे; उसे लगता था कि वह इमारत बहुत पहले बनी थी, पीटर द ग्रेट के समय में और उसे पूरा यक़ीन था कि पल्तावा की जंग के दौरान ज़ार उसमें रहता था। उसने यह सब दीवारों पर, उखड़ते प्लास्टर पर, बग़ीचे में मिलने वाले ईंट और टाइल के टुकड़ों पर पढ़ा था; इमारत और बग़ीचे का पूरा इतिहास उन पर लिखा हुआ था। उसने मुर्दाघर की छोटी सी इमारत को बहुत पहले मर चुके दर्जनों और सैकड़ों लोगों से आबाद कर दिया था और वह उस खिड़की से टकटकी लगा कर देखता रहता था जो मुर्दाघर के तहख़ाने से बगीचे के एक कोने में खुलती थी, पुराने इंद्रधनुषी रंगों के शीशे में बनते धुँधले प्रतिबिम्बों में उसे ऐसे नाक-नक़्श दीखते थे जिनसे या तो उसका पहले आमना-सामना हो चुका था या जिन्हें उसने चित्रों में देखा था।

जल्दी ही मौसम अच्छा हो गया; बीमार पूरा-पूरा दिन बग़ीचे में बिताने लगे। बग़ीचे का उनका हिस्सा छोटा था लेकिन घने पेड़ों से घिरा हुआ था और उसमें जहाँ भी फूल लगाने की सम्भावना थी, वहाँ फूल लगे हुए थे। वहाँ का सुपरवाइज़र हर उस मरीज़ से काम करवाता था, जो काम करने लायक था; पूरे दिन वे रास्तों पर झाड़ू लगाते और रेत छिड़कते, अपने हाथों से फूलों, खीरे, तरबूज़ों और खरबूजों की क्यारियाँ खोदते, उनकी निराई-गुड़ाई करते, उन्हें पानी देते। बग़ीचे का एक कोना चेरी के घने पेड़ों से घिरा हुआ था; उसके बग़ल में एल्म के पेड़ों को क़तारें थीं। बग़ीचे के बीचोंबीच कृत्रिम रूप से बनाए गए एक टीले पर सबसे सुंदर फूलों की फुलवारी थी; उस के किनारों पर चटकीले  फूल उगे हुए थे, और उसके केंद्र में एक विरला बड़ा-सा लाल धब्बों वाला पीला डालिया इतराता था। कुछ मरीज़ उसे चमत्कारी तक समझते थे। नए मरीज़ को भी वह ख़ास लगा। बग़ीचे के सभी रास्ते भी मरीज़ ही रोपते थे। रूसी बग़ीचों में पाए जाने वाले सभी पौधे वहाँ थे: बड़े गुलाब, चटकीले पेटुनिया, छोटे गुलाबी फूलों वाली तंबाकू की ऊँची झाड़ियाँ, पुदीना, गेंदा, जलकंभी और पॉपीज़। वहीं, बरामदे से कुछ ही दूरी पर एक ख़ास नस्ल के पॉपी ​​की तीन झाड़ियाँ उगी हुई थीं; यह फूल आम पॉपी फूलों से बहुत छोटा था और उसका रंग आम पॉपी के फूलों के लाल से अधिक चमकीला और चटकीला था। यही वह फूल था जिसने मरीज़ को पहले ही दिन भरती होने के बाद अपनी गिरफ़्त में ले लिया था जब वह काँच के दरवाज़े से बग़ीचे में देख रहा था।

बग़ीचे में पहली बार आते समय, बरामदे की सीढ़ियों से नीचे उतरने के पहले ही उसने अद्भुत रूप से चटक इन फूलों को देख लिया था। तब केवल दो ही फूल वहाँ पर थे और वे बाक़ी फूलों से अलग-थलग घनी घास के बीच खड़े थे। मरीज़ एक-एक करके उस दरवाजे से बाहर आ रहे थे जिस पर एक गार्ड खड़ा था और वह सबको मोटे  काग़ज़  से बनी हुईं सफ़ेद टोपियाँ दे रहा था, जिन पर रेड क्रॉस का चिह्न था। ये टोपियाँ युद्ध में इस्तेमाल हो चुकी थीं और नीलामी में खरीदी गई थीं। लेकिन ज़ाहिर सी बात है कि उस मरीज़ के लिए रेड क्रॉस का भी ख़ास और रहस्यमयी  अर्थ था। उसने अपनी टोपी उतारी और क्रॉस की ओर देखा, फिर उसने पॉपी ​​के फूलों की ओर देखा। फूल अधिक चटकीले थे.

“वह जीत रहा है,” मरीज़ ने कहा, “लेकिन हम देख लेंगे।”

और वह बरामदे से बाहर आ गया। उसने अपनी चारों ओर देखा लेकिन चौकीदार पर उसका ध्यान न गया। वह फुलवारी की तरफ़ बढ़ा और अपना हाथ फूल की ओर बढ़ाया; लेकिन उसे तोड़ने की हिम्मत उसमें न हुई। उसे अपने आगे बढ़े हुए हाथ और फिर पूरे शरीर में गर्मी और झुनझुनाहट महसूस हुई, मानो किसी अनजान ताक़त की तेज़ तरंग फूल की लाल पंखुड़ियों से निकल कर उसके पूरे शरीर में फैल रही हो। वह उसके थोड़ा और क़रीब गया और उसका हाथ फूल तक पहुँच गया। लेकिन उसे लगा मानो फूल अपने बचाव के लिए ज़हरीली और घातक साँसें छोड़ रहा हो। उसे चक्कर आने लगा; उसने आख़िरी नाकामयाब कोशिश की और जैसे ही वह टहनी को पकड़ रहा था, एक भारी हाथ उसके कंधे पर आकर ठहर गया।

  • “फूल तोड़ना मना है” बूढ़े चौकीदार ने कहा। – “और फुलवारी में जाना भी। यहाँ पर तुम्हारे जैसे बहुत से दीवाने मिल जाएँगे, अगर हर कोई एक फूल तोड़ने लगे तो बग़ीचा तो उजाड़ ही जाए।” -उसने पूरी गंभीरता और दृढ़ता से कहा, उसका हाथ पूरे समय मरीज़ के कंधे पर था। 

मरीज़ ने उसकी ओर देखा, ख़ुद को चुपचाप उसके हाथ से आज़ाद किया और परेशान ख़यालों से आगे की ओर चल दिया।

“ओह, अभागे!” उसने सोचा। “तुम लोग इस हद तक अंधे हो गए हो कि उसे बचा रहे हो, लेकिन मैं हर हाल में उसे ख़त्म कर दूँगा, आज नहीं तो कल हम एक दूसरे से निबट ही लेंगे।” और अगर मैं मर गया, तो क्या कोई फ़र्क़ पड़ेगा …”

वह लोगों से ताल्लुक बनाता देर शाम तक बग़ीचे में घूमता रहा और हर मिलने वाले से अजीब विषयों पर बातें करता रहा। प्रत्येक वार्ताकार को उसकी बातों में अपने पागल विचारों के उत्तर अस्पष्ट और रहस्यमयी शब्दों में सुनाई दिए। मरीज़ पहले एक साथी के साथ टहलता रहा फिर दूसरे के साथ और दिन ढलने तक वह इस बात से और आश्वस्त हो गया कि “सब तैयारी हो चुकी है” जैसा कि उसने ख़ुद से कहा था। जल्दी, बहुत जल्दी लोहे की सलाख़ें गिर जाएँगी, यहाँ क़ैद सभी लोग धरती के अलग-अलग कोनों में भाग जाएँगे और तब यह दुनिया हरकत में आ जाएगी। वह अपना पुराना आवरण फेंक कर एक नए और अद्भुत सौंदर्य में सामने आएगी। वह फूल के बारे में लगभग भूल ही गया था, लेकिन बग़ीचे से निकल कर बरामदे की ओर जाते समय अँधेरे से ढक चुकी घनी घास के बीचोंबीच, जिस पर ओस भी गिरने लगी थी, उसे दो लाल अंगारे दिखाई दिए। उन्हें देखकर मरीज़ भीड़ से थोड़ा अलग हो गया और चौकीदार के पीछे खड़ा होकर सही मौक़े का इंतज़ार करने लगा। किसी ने यह नहीं देखा कि कब और कैसे वह क्यारी की तरफ़ गया और फूल को तोड़कर उसने अपनी कमीज़ के भीतर छाती पर छिपा लिया। जब ओस से भीगी पंखुड़ियों ने उसके बदन को छुआ तो उसका चेहरा मौत की तरह सफ़ेद हो गया और डर से उसकी आँखें चौड़ी खुल गईं।

अस्पताल में बल्ब जला दिए गए; अधिकतर मरीज़ बिस्तर पर लेटकर डिनर का इंतज़ार करने लगे, सिर्फ़ कुछ बेचैन मरीज़ गलियारों और हॉल में तेज़ी से चहलक़दमी कर रहे थे। फूल वाला मरीज़ भी उनमें से एक था। वह उत्तेजित-सा अपने दोनों हाथों से छाती को कस के जकड़े चल रहा था: ऐसा लगता था मानो वह वहाँ पर छिपे पौधे को मसल देना चाहता हो। दूसरों से मिलते समय इस डर से कि कहीं उसके कपड़ों के छोर उन्हें छू न लें, वह उनसे बहुत दूर चला जाता था और चिल्लाता था- “पास मत आना, पास मत आना”। लेकिन अस्पताल में ऐसी चीख़ों पर कोई ध्यान देता ही नहीं था। वह और तेज़ी से चलने लगा, उसके क़दम और लम्बे होते गए, वह एक-दो घंटे इसी उन्माद में चलता रहा।

– मैं तुम्हें थका दूँगा। मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगा! – वह दबी आवाज़ में ग़ुस्से से बोल रहा था।

कभी-कभी वह अपने दाँत पीसता था।

जल्दी ही डाइनिंग हॉल में खाना लगा दिया गया। मेज़ों पर मेज़पोश नहीं थे। उन पर बाजरे का पतला दलिया लकड़ी के रंगीन कटोरों में रखा था, मरीज़ बेंचों पर बैठ गये; उन्हें काली डबलरोटी का एक-एक टुकड़ा भी दिया गया। हर कटोरे से आठ मरीज़ लकड़ी के चम्मचों से दलिया खाने लगे। जिन लोगों को बेहतर भोजन का अधिकार प्राप्त था, उनके लिए अलग से खाना परोसा गया। हमारे मरीज़ का खाना चौकीदार अपने कमरे में ले गया, जिसे मरीज़ फ़ौरन ही निगल गया और उससे भूख तृप्त न होने पर वह डाइनिंग हॉल में पहुँचा।

“मुझे यहाँ बैठने दीजिए,” उसने वार्डन से कहा।

-क्या तुमने खाना नहीं खाया? – कटोरों में और दलिया डालते हुए वार्डन से पूछा।

– मुझे बहुत भूख लगी है। मुझे बहुत ज़्यादा खाने की दरकार  है, मैं खाने के भरोसे ही ज़िंदा हूँ। आप तो जानते हैं कि मैं बिलकुल भी नहीं सोता हूँ।

– आइए, खाइए, भले आदमी! आप सेहतमंद हों। तरास, इन्हें एक चम्मच और डबलरोटी दो।

वह एक कटोरे के पास बैठ गया और ढेर सारा दलिया फिर खा गया।

“बस, अब काफ़ी हुआ,” आख़िरकार वार्डन ने कहा जब बाक़ी मरीज़ खाना ख़त्म कर चुके थे और हमारा मरीज़ एक हाथ से कटोरे से दलिया खाए जा रहा था और दूसरे से अपनी छाती को जकड़े हुए था। –  बदहज़्मी हो जाएगी।

– “ओह, काश आपको पता होता कि मुझे कितनी ज़्यादा ताक़त की ज़रूरत है! खैर, चलता हूँ, निकालाई निकलाइच,” मरीज़ ने मेज़ से उठते हुए वार्डन का हाथ कसकर दबाते हुए कहा। – अलविदा।

-आप कहाँ जा रहे हैं? – वार्डन ने मुस्कुराते हुए पूछा।

– मैं?  कहीं भी नहीं। मैं यहीं ठहर रहा हूँ। लेकिन हो सकता है कि कल हम एक-दूसरे से न मिलें। सहृदयता के लिए आपका आभार।

उसने एक बार फिर मज़बूती से वार्डन का हाथ दबाया।  उसकी आवाज़ काँप उठी, आँखों में आँसू आ गये।

“शांत हो जाइए, भले आदमी, शांत हो जाइए,” वार्डन ने कहा।

 – ऐसे निराशापूर्ण विचार क्यों? जाइये, लेट जाइये, लेटना क्यों, सो ही जाइए। आपको ख़ूब सोना चाहिए; अगर आप ठीक से सोएँगे तो जल्दी ही ठीक हो जाएँगे।

मरीज़ ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था। चौकीदारों को मेज़ पर से बचाखुचा खाना हटाने का आदेश देने के लिए वार्डन दूसरी ओर मुड़ा। आधे घंटे बाद अस्पताल में मानो सब कुछ गहरी नींद में था, सिवाय एक आदमी के जो कोने वाले कमरे में अपने बिस्तर पर बिना कपड़े उतारे हुए लेटा था। वह यों काँप रहा था मानो उसे बुख़ार हो और रह-रहकर वह अपनी छाती को ज़ोर से भींच लेता था। उसे लग रहा था कि उसकी छाती पर किसी जानलेवा ज़हर का लेप है।

V. 

उसे सारी रात नींद नहीं आई। उस फूल को तोड़ना बहुत ज़रूरी था, उसे वह करना ही था। फूल तोड़ने के बाद इसीलिए उसे यह अनुभूति हुई कि उसने बड़े पराक्रम का कोई काम किया है। उस फूल की लाल पंखुड़ियों ने उसका ध्यान तभी आकर्षित कर लिया था जब काँच के दरवाज़े से पहली बार वह बाहर बग़ीचे में देख रहा था। वह उसी पल यह समझ गया था कि धरती पर उसके आने का मक़सद क्या है। दुनिया की सारी बुराई उसे उस चमकीले लाल फूल में एकत्र दिखी थी। वह जानता था कि अफ़ीम खसखस ​​से बनती है। इसी ख़याल ने फिर ऐसी तूल पकड़ी कि दिन-ब-दिन वह उसके दिमाग़ में और भयानक रूप लेने लगा और आख़िरकार वह एक प्रेत की तरह उसके मन में बस गया। उसकी नज़रों में वह फूल दुनिया की सारी बुराई का प्रतीक था। वह इतना लाल इसीलिए था क्योंकि उसमें सभी निर्दोषों का व्यर्थ बहा ख़ून समाहित था, उसने मानवजाति के सारे आँसू और सारे पित्त को सोखा हुआ था। यह रहस्यमयी रूप से एक भयानक प्राणी था, जिसने अत्यंत विनम्र और निर्दोष रूप धारण कर रखा था। उसे तोड़ कर मार डालना जरूरी था। लेकिन मात्र मारना पर्याप्त नहीं था। यह सुनिश्चित करना भी ज़रूरी था कि वह अपनी बुराई का लेशमात्र भी दुनिया में छोड़ कर न जाए। इसलिए मरीज़ ने उसे अपने सीने में छुपा लिया था। उसे यह उम्मीद थी कि सुबह तक फूल अपनी सारी ताक़त खो देगा और उसकी बुराई उसके सीने में, उसकी आत्मा में प्रवेश कर जाएगी। इस तरह से या तो बुराई की हार होगी या मरीज़ की – यानी मरीज़ की मौत। लेकिन तब वह एक  ईमानदार सेनानी की तरह मरेगा, मानवजाति के पहले सेनानी के रूप में। क्योंकि अब तक किसी ने भी दुनिया की सारी बुराइयों से एक साथ लड़ने का साहस नहीं जुटाया था।

– औरों ने उसे नहीं देखा। मैंने देखा। क्या मैं उसे ज़िंदा छोड़ सकता हूँ? बेहतर है मर जाना।

और वह लेटा रहा। एक मायावी, काल्पनिक संघर्ष में थक कर चूर होता रहा, लेकिन वह वास्तव में भी थक गया। सुबह पैरामेडिक को लगभग बेजान मिलने के बावजूद थोड़ी ही देर में उस पर जूनून फिर तारी हो गया। वह बिस्तर से उठ कर अस्पताल में चारों ओर दौड़ने लगा। ख़ुद से और बाक़ी मरीज़ों से ज़ोर-ज़ोर से ऐसी बेढ़ंगी बातें करने लगा, जैसी पहले कभी नहीं की थीं। उसे बग़ीचे में नहीं जाने दिया गया। डॉक्टर ने यह देखकर कि उसका वज़न लगातार घटता जा रहा है, वह सोता बिलकुल नहीं है और सारा समय चलता रहता है यह आदेश दिया कि मॉर्फिन की एक बड़ी ख़ुराक उसे इंजेक्ट की जाए। उसने इसका विरोध नहीं किया।  सौभाग्य से उस वक़्त उसके जुनूनी ख़याल किसी तरह से इस ऑपरेशन से मेल खा गए। वह जल्द ही सो गया; उसका जूनून थम गया, और उसके सतत तेज कदमों से पैदा होने वाली आवाज़ भी कानों में पड़ना हो गई। वह ख़ुद को भूल गया और हर चीज़ के बारे में भूल गया, यहाँ तक कि उस दूसरे फूल के बारे में भी, जिसे उसे तोड़ना था।

लेकिन तीन दिन बाद बूढ़े चौकीदार के सामने उसने उसे तोड़ ही लिया। चौकीदार उसका पीछा करने लगा। विजय की चीत्कार के साथ मरीज़ अस्पताल की ओर भागा। अपने कमरे में जाकर उसने फूल को अपनी छाती में छिपा लिया।

– तुम फूल क्यों तोड़ते हो? – उसके पीछे दौड़ते आए चौकीदार ने पूछा। मरीज़, जो अपने पलंग पर हमेशा की तरह अपनी बाहें छाती पर बाँधे लेटा था, जवाब में कुछ अनाप-शनाप बकने लगा। चौकीदार ने चुपचाप मरीज़ के सिर से  लाल क्रॉस वाली टोपी उतारी, जिसे मरीज़ जल्दबाज़ी में उतारना भूल गया था, और वहाँ से चला गया। मायावी संघर्ष फिर से शुरू हो गया। रोगी को महसूस हुआ कि फूल से बुराई साँप जैसे रेंगती लंबी धाराओं में निकल रही है। ये धाराएँ उसे जकड़ती जा रही हैं , उसके सभी अंगों को दबोच रही हैं और उसके शरीर को अपने भयानक तत्त्व से सराबोर कर रही हैं। मरीज़ रोने लगा, अपने दुश्मन को लानतें भेजने लगा और बीच-बीच में में ईश्वर से प्रार्थना भी करता रहा। शाम तक फूल मुरझा गया। रोगी ने काले हो गए पौधे को पहले रौंदा। फिर फर्श से उसके अवशेष उठाकर बाथरूम में ले गया। उसने सुलगते कोयलों के गर्म चूल्हे में पौधे के उस आकारहीन ढेर को फ़ेंक दिया। वह देर तक यह देखता रहा कि कैसे उसका दुश्मन पहले फुफकारा और फिर एकदम सिकुड़ गया व आख़िर में राख के एक मुलायम  बर्फ़ जैसे सफ़ेद ढेर में तब्दील हो गया। मरीज़ ने उस ढेर में फूँक मारी और सब ग़ायब हो गया।

अगले दिन मरीज़ की तबीयत और बिगड़ गई। उसके पूरी तरह से ज़र्द हो गए गाल जलती हुई आँखों के गड्ढों की गहराई में अंदर तक धँसे हुए थे, वह लड़खड़ाने तो पहले ही लगा था पर आज चाल कुछ और अधिक अस्थायी थी। लेकिन वह बिना रुके चल रहा था और बड़बड़ा रहा था।

वरिष्ठ डॉक्टर ने अपने सहायक से कहा, “मैं ज़ोर-ज़बरदस्ती से बचना चाहूँगा।”

– लेकिन इस कार्यवाही को भी थमना चाहिए। आज उसका वज़न 93 पाउंड हो गया है। अगर यह प्रक्रिया यों ही चलती रही तो दो दिन में यह मर जायेगा।

वरिष्ठ डॉक्टर विचारमग्न हो गया।

– सवालिया लहज़े में बोला – मॉर्फिन? क्लोरल?

– कल मॉर्फिन का भी कोई असर नहीं हुआ।

– आदेश दीजिए कि उसे बाँध दिया जाए। हालाँकि, मुझे आशंका है कि वह बच नहीं पाएगा।

VI

और मरीज़ को बाँध दिया गया। वह अपने बिस्तर पर पागलख़ाने की क़मीज़ में लेटा था। उसके हाथ-पैर निवाड़ की मदद से लोहे के पलंग की रेलिंग से बँधे हुए थे। लेकिन हिलते रहने का उसका उन्माद कम होने की जगह और बढ़ गया था। कई घंटों तक वह ख़ुद को बंधनों से आज़ाद करने की नाकामयाब कोशिश के बाद आख़िरकार उसके एक ज़ोरदार झटके से एक पट्टी फट गयी और जल्दी ही उसने अपने पैर आज़ाद कर लिए। फिर किसी तरह दूसरी पट्टियों के बीच से अपने शरीर को सरकाकर वह पलंग से उतर गया। सबकी समझ से परे अजीब-सा कुछ बड़बड़ाते हुए वह बँधे हाथों के साथ कमरे में चहलक़दमी करने लगा ।

“अरे! तुम यह क्या कर रहे हो!” – बूढ़ा चौकीदार अंदर आकर चिल्लाया। वह आगे चिल्लाया – “अरे! मदद के लिए आओ, इवान! ग्रित्स्को! देखो, इसने ख़ुद को आज़ाद कर लिया है।

इवान, ग्रित्स्को और बूढ़ा चौकीदार मिलकर मरीज़ को रोकने की कोशिश करने लगे। मरीज़ और उन तीनों के बीच एक लम्बी कुश्ती शुरू हुई। उस हाथापाई से अस्पताल-कर्मी थक कर निढाल हो गए लेकिन मरीज़ के लिए वह घातक थी।  मरीज़ अपनी बची हुई आख़िरी ताक़त उस हाथापाई में लगा रहा था। आख़िरकार कर्मचारी उसे बिस्तर पर लिटाने में कामयाब हुए। इस बार उन्होंने उसे पहले से भी अधिक कसकर बाँधा।

“तुम लोग समझ नहीं रहे हो कि तुम क्या कर रहे हो!” – मरीज हाँफते हुए चिल्लाया। – तुम सब ख़त्म हो जाओगे! मैंने तीसरा फूल देखा था, उसने तब खिलना शुरू ही किया था। अब वह पूरी तरह से खिल गया होगा। मुझे उसे भी नष्ट कर देने दो! उसे ख़त्म करना ज़रूरी है, उसे मारना है, मारना! जब उसका ख़ात्मा हो जाएगा तो बाक़ी सब बच जाएगा। मैं आप लोगों से यह करने को कह देता, लेकिन यह काम सिर्फ़ मैं कर सकता हूँ। उस फूल को छूने भर से ही आपकी मौत हो जायेगी।

– चुप हो जाइए श्रीमान, चुप हो जाइए! – बूढ़े चौकीदार ने कहा जो मरीज़ के बिस्तर के पास ड्यूटी पर रहता था।

मरीज़ अचानक चुप हो गया। उसने चौकीदारों को धोखा देने का फ़ैसला किया। उसे पूरा दिन बाँध कर रखा गया और रात में भी बँधा हुआ छोड़ दिया गया। उसे रात का खाना खिलाकर चौकीदार ने उसके पलंग के पास कुछ बिस्तरनुमा बिछाया और लेट गया। एक मिनट के भीतर ही वह गहरी नींद सो गया और मरीज़ अपने काम पर लग गया।

उसने पलंग के लोहे की छड़ तक पहुँचने के लिए अपना पूरा बदन झुकाया और पागलख़ाने की क़मीज़ की लंबी आस्तीन में छिपे अपने हाथ से उसे टटोलते हुए वह तेज़ी से और पूरे ज़ोर के साथ आस्तीन को लोहे की बार पर रगड़ने लगा। थोड़ी देर बाद मोटा निवाड़ ढीला पड़ गया और उसकी तर्जनी उससे बाहर निकल आई। इसके बाद उसके काम में तेज़ी आ गयी। उसने ऐसी निपुणता और लचीलेपन से पीठ के पीछे बंधी बाहों की गाँठ खोल दी जिसकी उम्मीद किसी स्वस्थ व्यक्ति से भी नहीं की जा सकती है। बाँहों के खुलते ही उसने अपनी क़मीज़ पर बँधे फीते भी खोल दिए। फिर वह काफ़ी देर तक चौकीदार के खर्राटों को सुनता रहा। बूढ़ा गहरी नींद सो रहा था। ख़ुद को पलंग से अलग करने के लिए मरीज़ ने अपनी क़मीज़ वहीं छोड़ दी। अब वह आज़ाद था। उसने दरवाज़ा टटोला, वह अंदर से बंद था और चाबी शायद चौकीदार की जेब में थी। चौकीदार जाग न जाए इस डर से उसने उसकी जेबें टटोलने की हिम्मत नहीं की और यह तय किया कि वह खिड़की के रास्ते कमरे से बाहर जाएगा।

रात शांत, गर्म और अंधेरी थी। खिड़की खुली हुई थी और काले आकाश में तारे चमक रहे थे। उसने उनकी ओर देखा और जाने-पहचाने तारा-मंडलों को देखकर उसे बहुत ख़ुशी हुई। उसकी उम्मीद के मुताबिक़ वे सब उसके हमख़याल थे और उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे। झपकती आँखों से उसने जैसे ही उन अन्नत किरणों को देखा जो तारे उसे भेज रहे थे, उसकी जुनूनी मंशा और बढ़ गयी। फूल तक पहुँचने के लिए ज़रूरी था लोहे की सलाख़  को मोड़ कर बाहर निकलने की जगह बनाना; फिर उस संकरी जगह से घनी झाड़ियों के बीच उतरना और वहाँ से पत्थर की बनी ऊँची बाड़ तक पहुँचकर उसे पार करना। फिर उसकी आख़िरी लड़ाई होगी। उसके बाद भले ही मौत आ जाए।

उसने अपने नंगे हाथों से लोहे की मोटी छड़ को मोड़ने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस न हुई। उसने अपनी क़मीज़ की मज़बूत आस्तीनों को रस्सी की तरह मरोड़ा। उस रस्सी को उसने सलाख़ के अंत के भालेनुमा हिस्से में फँसाया और उस पर लटक गया। कई नाकामयाब कोशिशों के बाद वह छड़ थोड़ी झुक तो गयी लेकिन उसकी सारी बचीखुची ताक़त इस प्रक्रिया में ख़त्म हो गयी थी। एक संकरा रास्ता खुल गया जिससे वह बाहर निकल आया। उसके नंगे कंधे, कोहनियाँ और घुटने घायल हो गए थे। झाड़ियों को चीरते हुए वह आगे बढ़ा और पत्थर की दीवार तक पहुँच कर रुक गया। सब कुछ शांत था। नाईट लैंप की रौशनी बड़ी इमारत की खिड़कियों को अंदर से हल्का रौशन कर रही थी; उसे अंदर कोई नज़र नहीं आया। कोई भी उसे देख नहीं पाएगा, उसके पलंग के पास ड्यूटी कर रहा बूढ़ा चौकीदार शायद अभी भी गहरी नींद में होगा। कोमलता से टिमटिमाते तारों की किरणें सीधे उसके दिल में उतर रही थीं।

“मैं तुम लोगों के पास आ रहा हूँ,” आसमान की ओर देखते हुए वह फुसफुसाया।

दीवार फाँदने की पहली कोशिश में हार मिलने के बाद अपने फटे हुए नाख़ूनों, ख़ून से सने हाथों और घुटनों के साथ  वह एक ऐसी जगह तलाशने लगा जो फाँदने के लिए बहुत मुश्किल न हो। वह बाड़ और मुर्दाघर की दीवार जिस जगह पर मिलती थीं, उस कोने पर बाड़ और दीवार दोनों से ही कुछ ईंटें गिर गईं थीं। मरीज़ ने अपने हाथों से इन गड्ढों का अंदाज़ा लगाया और फिर बाड़ पर चढ़ गया। उसने बाड़ की दूसरी तरफ़ के एक ऊँचे पेड़ की शाखाओं को पकड़ा और उनके सहारे ज़मीन पर उतर गया।

वह बरामदे के पास वाली अपनी जानी-पहचानी जगह पर पहुँचा। पंखुड़ियों के बंद होने की वजह से फूल का ऊपरी हिस्सा काला-सा लग रहा था और आसपास की ओस से ढकी घास के बीच वह बिलकुल साफ़ दीख रहा था।

– यह आख़िरी है! – मरीज फुसफुसाया। – आख़िरी! आज या तो जीत मिलेगी या मौत। लेकिन मुझे इससे अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। “थोड़ा और ठहरिये,” – आसमान की ओर देखते हुए उसने कहा, ”मैं जल्द ही आपके बीच हूँगा।”

उसने पौधे को उखाड़ा, रौंदा और हाथ में उसे लेकर उसी रास्ते से वह अपने कमरे में लौट आया जिससे बाहर आया था। बूढ़ा अभी भी सो रहा था। मरीज़ बमुश्किल बिस्तर तक पहुँचा और बेहोश होकर उस पर गिर पड़ा…

सुबह वह मृत पाया गया। उसके चेहरे पर चैन और शांति थी। पतले होंठ और गहरी धँसी हुई आँखों वाले उसके पतले चेहरे पर एक प्रकार की गर्वपूर्ण ख़ुशी लिखी हुई थी। स्ट्रेचर पर लिटाते समय अस्पताल कर्मचारियों ने उसकी मुट्ठी खोलकर लाल फूल निकालने की कोशिश की। लेकिन उसका हाथ अकड़ चुका था और अपना विजयचिह्न वह क़ब्र में साथ ले गया।

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