श्री लंका के अनुराधपुर युग की भाषा एवं साहित्य

एम. नधीरा शिवंती

अनुराधपुर युग श्री लंका प्राचीन इतिहास का पहला और महत्वपूर्ण युग है। श्री लंका का स्वर्ण युग भी यही है। फ़िर भी इस युग के साहित्य के विषय में अपेक्षित जानकारी प्राप्त करने के लिए आज हमें बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। इस युग के प्रारंभिक कृति ‘हेलअटुवा‘ नाम से मिलता है। श्री लंका में बौद्ध धर्म को प्रचार एवं प्रसार होने के पश्चात इस देश की जनता को बौद्ध धर्म समझाने के लिए पालि अट्ठकथा ग्रंथ सिंहली में लिखी गई थी। वहीं ग्रंथ ‘हेलअटुवा‘ प्रचलित है।

भारत और श्री लंका के साथ घनिष्ठ संबंध ढ़ाई हज़ार वर्षों से भी पुरानी है। यहाँ के राजा ‘देवानमपियतिस्स‘ तत्कालीन भारत के राजा-सम्राट अशोक के साथ दृढ़ मित्र संबंधता के कारण बौद्ध धर्म एवं बौद्ध दर्शन के प्रचार से ही दोनों देश मित्र हो गये। अति प्रसिद्ध एवं विख्यात रामायण महाकाव्य अनय में सिंहल का वर्णन है।  महाभारत, दिव्यावदान, पुरान ग्रंथ-विशेषतः स्कंधपुराण, राजतरंगणी और जातक कथाओं में भी सिंहल के बारे में कहीं-कहीं वर्णित है। दक्षिण भारत  के तमिल ग्रंथ ‘सिलप्पादिकारम, मणिमेखलै, पदिररुपत्तु और पटिनप्पलायी‘ में भी सिंहल देश का उल्लेख है। मौर्य गुप्त, चालुक्य, पल्लव आदि युग अभिलेखों में भी जगह-जगह पर सिंहल का उल्लेख है। इस प्रकार ई.पू. तीसरी शताब्दी से अनुराधपुर युग के अंत तक लिखित अभिलेखों से सिंहल द्वीप के इतिहास पर काफ़ी विस्तार-विवरण मिलते है।

तीसरी शताब्दी में भारत के सम्राट अशोक के द्वारा श्री लंका पर बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा। दूसरी शताब्दी तक बौद्ध का प्रचार एवं प्रसार होते रहे। उस समय के बहुत से अभिलेख एक या दो पंक्त्यिों से युक्त थे। अधिक्तर लेख गुफ़ा द्वारों पर ही दिख सकते हैं। इसलिए उन्हें ब्राह्मी के गुफ़ा अभिलेख भी कहते हैं। इसका निर्माण महिंद थेर के आगमन के पश्चात ही शुरू हुआ है। चतुरदिशा से अगत-अनगत भिक्षु संघ को गुफ़ा अर्पित करना हो, इसका मुख्य उद्देश्य था।

श्री लंका के पूर्व कालीन अभिलेखों की भाषा ‘आदि सिंहली‘ है। वह आगे विकसित होकर वर्तमान सिंहल भाषा बन गयी। सिंहल भाषा के उद्भव के लिए सम्राट अशोक के ब्राह्मी अभिलेखों के प्रभाव बहुत पड़े। इस प्रकार भाषा और लिपि के परिवर्तन इतिहास के काल विभाजन निश्चय करने में अति सहायक सामग्री सिद्ध हुआ। अनुराधपुर युग के अग्रभाग अर्थात नौवीं शताब्दी में महायान धर्म का प्रवेश हमारे देश में प्रवेश होने के कारण ‘संस्कृत‘ भाषा का व्यवहार भी शुरू हुआ। इस कारण संस्कृत भाषा में भी अभिलेख लिखने लगे। इस प्रकार ब्राह्मी लिपि और पालि, संस्कृत भाषा भी सिंहल भाषा के साथ-साथ धर्म एवं दर्शन, साहित्य, जन जीवन एवं संस्कृत पर गहरा प्रभाव पड़ा।

महिंद महा थेर के आगमन के पश्चात श्री लंका में ग्रंथ लिखने का कार्य समारंभ हुआ। इसके पूर्व भी शिक्षा की दृष्टिी से भाषा की उन्नती रहती रही। मूलाश्र ग्रंथ ‘महावंश‘ के अनुसार बौद्ध धर्म के आगमन के पूर्व राजा ‘पंडुकाभय‘ के समय संस्कृत और ब्राह्मण धर्म का प्रभाव यहाँ होने का उदाहरण पंडुकाभय कुमार का अध्यापक एक ब्राह्मण पंडित का नाम उल्लेख होने से ही स्पष्ट होता है।

अनुराधपुर युग के सबसे पौराणिक ग्रंथ ‘हेलअटुवा‘ नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ पर बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ जनता पर पालि से लिखित धर्म ग्रंथ आसानी से समझाने हेतु अट्ठकथा सिंहली भाषा में परिवर्तन की। कुछ समय बाद संपूर्ण पालि त्रिपिटक के लिए अट्ठकथाएँ सिंहल भाषा से रचना हुई। ‘अट्ठकथा, महापच्चरिय अट्ठकथा, कुरूंदि अट्ठकथा, अंघकट्ठकथा, संकेपट्ठकथा‘ नाम से पाँच प्रकार की अट्ठकथाएँ हैं।

पालि दीपवंश, महावंश, चूलवंश, दाथावंश, बोधिवंश, केशधातुवंश आदि वंशकथाएँ साहित्य के मूलश्रोत प्राचीन सिंहली ग्रंथ हैं। इस युग में व्याकरण एवं भाषा विज्ञान के विषय पर भी कई ग्रंथ रचना हुई। शिलालेख और सीगिरि पद्य भी और एक लिखित मूलाश्र है। भारत के अजंता गुफ़ा चित्र से बहुत समीप सीगिरि पर्वत पर निर्मित अति सुंदर सीगिरि अप्सराओं की रूपश्री वर्णन करने के लिए यात्रियों के मन पर जो श्रृंगाार प्रवेश की है, उन्हें प्रकाश करने को सीगिरि पद्य निर्माण हुए हैं। ये सभी पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि इनके रचयिता लोग संस्कृत साहित्य के उच्चतम श्रृंगार रस से परिपूर्ण हैं।

बौद्ध धर्म प्रचार के लिए भारत से यहाँ पधारे हुए बौद्ध धर्म दूतों की भाषा मागधी मिश्र पालि भाषा थी। इसके कुछ समय बाद सम्राट अशोक की पुत्री ‘संघमित्ता थेरी श्री महाबोधि की दक्षिण शाखा के साथ अट्ठारह शिल्प कुल के लोगों के साथ श्री लंका पर पहुँच गयी। यही आगमन के पश्चात हमारे देशवालों के लिए हर तरह के संस्कृति गतिलक्षण प्राप्त हुए हैं। ये सभी बातों हमारे इतिहास से कभी मिट नहीं सकते और कभी भूल नहीं सकते।

इस प्रकार अनुराधपुर युग में मौर्य साम्रराज्य के महान सम्राट राजाधिराज अशोक ने अपना पुत्र महा-महिंद थेर और अपनी पुत्री संघमित्ता थेरी प्रधान भारत के दूत मंडल यहाँ प्रवेश होने के पश्चात विहार एवं गुफ़ा निर्माण, ग्रामवासियों के साथ आपसी संबंध भिक्षु जीवन, सामाजिक जीवन आदि का वर्णन सिंहल, पालि, संस्कृत भाषाओं से लिखित साहित्य ग्रंथ और अनेक संख्याओं से युक्त लेख, शिलालेख आदि सभी से बहुत अलंकार रूप से विद्यामान है। इस प्रकार भारत और श्री लंका पर घनिष्ठ मित्र संबंधता अति प्राचीन समय तक विद्यामान है।

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