श्रीलंका का इतिहास

एम. नधीरा शिवंती

इतिहासकारों में इस बात की आम धारणा थी कि श्रीलंका के आदिम निवासी और दक्षिण भारत के आदिम मानव एक ही थे। पर अभी ताजा खुदाई से पता चला है कि श्रीलंका के शुरुआती मानव का संबंध उत्तर भारत के लोगों से था। भारत के दक्षिण में हिंद महासागर में भारत से ही लगा हुआ एक द्वीप है जिसका नाम श्रीलंका है। देश की दूरी भारत से मात्र 32 किलोमीटर है। 1972 तक इसका नाम सीलोन था, जिसे बदलकर लंका तथा 1978 में इसके आगे सम्मानसूचक शब्द श्री जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया। श्रीलंका का भारत से प्राचीनकाल से ही अटूट संबंध रहा है।

प्राचीन काल से ही श्रीलंका पर शाही सिंहला वंश का शासन रहा है। समय समय पर दक्षिण भारतीय राजवंशों का भी आक्रमण भी इस पर होता रहा है।

इसलिए भारत के दक्षिण में स्थित श्रीलंका में भी बड़ी संख्या में हिंदू रहते थे। हालांकि अब यहाँ की जनसंख्या का करीब 12.60 प्रतिशत हिस्सा हिंदुओं का है। सिंहल भाषा गुजराती और सिंधी भाषा से जुड़ी हुई है। श्री लंका का पिछले 3000 वर्ष का लिखित इतिहास उपलब्ध है। 125,000 वर्ष पूर्व यहाँ मानव बस्तियाँ होने के प्रमाण मिले हैं। 29 ईसा पूर्व में चतुर्थ बौद्ध संगीति के समय रचित बौद्ध ग्रंथ प्राप्त हुए हैं।

हिंदू पौराणिक इतिहास के अनुसार श्रीलंका को शिव ने बसाया था। शिव की आज्ञा से विश्वकर्मा ने यहाँ  सोने का एक महल पार्वती जी के लिए बनवाया था। ऋषि विश्रवा ने शिव के भोलेपन का लाभ उठाकर उनसे लंकापुरी दान में माँग ली। तब पार्वती ने श्राप दिया कि महादेव का ही अंश एक दिन उस महल को जलाकर कोयला कर देगा और उसके साथ ही तुम्हारे कुल का विनाश आरंभ हो जाएगा। विश्रवा से वह लंकापुरी अपने पुत्र कुबेर को मिली। लेकिन रावण ने कुबेर को निकाल कर लंका को हड़प लिया। शाप के कारण शिव के अवतार हनुमान जी ने लंका जलाई और विश्रवा के पुत्र रावण, कुंभकर्ण के कुल का विनाश हुआ। श्रीराम की शरण में होने से विभीषण बच गए।

एक अन्य कथा के अनुसार शिव के राक्षस पुत्र सुकेश के तीन पुत्रों माली, सुमाली और माल्यवान ने त्रिकुट सुबेल (सुमेरु) पर्वत पर एक नगर बसाया और उसका नाम लंका रखा। बाद में माली को मारकर देवों और यक्षों ने कुबेर को लंकापति बना दिया था। रावण की माता कैकसी सुमाली की पुत्री थी। अपने नाना के उकसाने पर रावण ने अपनी सौतेली माता इलविल्ला के पुत्र कुबेर से युद्ध की ठानी थी और लंका को फिर से राक्षसों के अधीन कर लिया। इसी तारतम्य में रावण ने कुबेर का पुष्पक विमान भी छीन लिया था। कुबेर रावण का सौतेला भाई था।

श्रीलंका में एक पर्वत है जिसे श्रीपद चोटी भी कहा जाता है। अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान इसका नाम उन्होंने एडम पीक रख दिया था। हालांकि इस एडम पीक का पुराना नाम रतन द्वीप पहाड़ है। इस पहाड़ पर एक मंदिर बना है। हिंदू मान्यता के अनुसार यहाँ देवों के देव महादेव शंकर के पैरों के निशान हैं। इसीलिए इस स्थान को सिवानोलीपदम (शिव का प्रकाश) भी कहा जाता है। यह पदचिन्ह 5 फिट 7 इंच लंबे और 2 फिट 6 इंच चौड़े हैं। यहाँ 2,224 मीटर की ऊँचाई पर स्थित  इस ‘श्रीपद’ के दर्शन के लिए लाखों भक्त और सैलानी आते हैं। ईसाइयों ने इसके महत्व को समझते हुए यह प्रचारित कर दिया कि ये संत थॉमस के पैरों के चिह्न हैं। बौद्ध संप्रदाय के लोगों के अनुसार ये पद चिह्न गौतम बुद्ध के हैं। मुस्लिम संप्रदाय के लोगों के अनुसार पद चिह्न हजरत आदम के हैं। कुछ लोग तो रामसेतु को भी आदम पुल कहने लगे हैं। इस पहाड़ के बारे में कहा जाता है कि यह पहाड़ ही वह पहाड़ है, जो द्रोणागिरि का एक टुकड़ा था और जिसे उठाकर हनुमानजी ले गए थे। श्रीलंका के दक्षिणी तट गॉल में एक बहुत रोमांचित करने वाले इस पहाड़ को श्रीलंकाई लोग रूमास्सला पहाड़कहते हैं।

श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहाँ के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे 50 स्थल ढूंढ लिए हैं। जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है। श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहाँ रावण की सोने की लंका थी। अशोक वाटिका, राम-रावण युद्ध भूमि, रावण की गुफा, रावण के हवाई अड्डे, रावण का शव, रावण का महल और ऐसे 50 रामायणकालीन स्थलों की खोज करने का दावा ‍किया गया है। बाकायदा इसके सबूत भी पेश किए गए हैं।

ऐसा माना जाता है कि रैगला के जंगलों के बीच एक विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहाँ उसने घोर तपस्या की थी। उसी गुफा में आज भी रावण का शव सुरक्षित रखा हुआ है। रैगला के इलाके में रावण की यह गुफा 8 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जहां 17 फुट लंबे ताबूत में रखा है रावण का शव। इस ताबूत के चारों तरफ लगा है एक खास लेप जिसके कारण यह ताबूत हजारों सालों से जस का तस रखा हुआ है। श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएँ, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। रामसेतु के बारे में तो सभी लोग जानते ही हैं।

श्रीलंका में हिंदू और बौद्ध धर्म की साझा परंपरा और संस्कृति रही है। लेकिन इसे अंग्रेज काल में खंडित कर दिया गया। लगभग 2000 से अधिक वर्षों की सभ्यता में श्रीलंका में हिंदू और बौद्धों में कभी विवाद नहीं रहा। श्रीलंकाई में हिंदू धर्म के शैव मत का प्रचलन रहा है। श्रीलंका को शिव के पाँच निवास स्थानों का घर माना जाता है। मुरुगन अर्थात शिव के पुत्र कार्तिकेय यहाँ के सबसे लोकप्रिय हिंदू देवताओं में से एक हैं। इनकी पूजा न केवल तमिल हिंदू करते हैं। बल्कि बौद्ध सिंहली और आदिवासी भी करते हैं। यहाँ कई ऐसे मंदिर हैं जो हिन्दू और बौद्धों की साझा संस्कृति को दर्शाते हैं।

हिंदू सम्राट अशोक ( 269-232 ईसापूर्व) ने कई वर्षों की लड़ाई के बाद बौद्ध धर्म अपनाने के बाद युद्ध का बहिष्कार किया और शिकार करने पर पाबंदी लगाई। बौद्ध धर्म का तीसरा अधिवेशन अशोक के राज्यकाल के 17वें साल में संपन्न हुआ। तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर बौद्ध धर्म का आगमन हुआ। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महिंद और पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इनके द्वारा श्रीलंका के राजा देवनामपिया तीस्सा ने बौद्ध धर्म अपनाया और वहाँ ‘महाविहार’ नामक बौद्ध मठ की स्थापना की। यह देश आधुनिक युग में भी थेरावदा बौद्ध धर्म का गढ़ है। श्रीलंका में हिंदू और बौद्ध धर्म की जड़ें एक ही होने के कारण यहाँहिंदू और बौद्ध मिलजुल कर ही रहते थे। लेकिन अंग्रेज काल में इन दोनों में फूट डालकर यहां का सामाजिक तानाबाना बिगाड़ दिया गया। इब्नबतूता ने चौदहवीं सदी में द्वीप का भ्रमण किया।

वाल्मीकि रामायण में लंका को समुद्र के पार द्वीप के मध्य में स्थित बताया गया है। अर्थात आज की श्रीलंका के मध्य में रावण की लंका स्थित थी। श्रीलंका के संस्कृत एवं पाली साहित्य का प्राचीनकाल से ही भारत से घनिष्ठ संबंध था। भारतीय महाकाव्यों की परंपरा पर आधारित ‘जानकी हरण’ के रचनाकार कुमार दास के संबंध में कहा जाता है कि वे महाकवि कालिदास के अनन्य मित्र थे। कुमार दास (512-21ई.) लंका के राजा थे। इसे पहले 700 ईसापूर्व श्रीलंका में ‘मलेराज की कथा’ की कथा सिंहली भाषा में जन-जन में प्रचलित रही, जो राम के जीवन से जुड़ी है।

श्रीलंका पर पहले पुर्तगालियों, फिर डच लोगों ने अधिकार कर शासन किया। 1800 ईस्वी के प्रारंभ में अंग्रेजों ने इस पर आधिपत्य जमाना शुरू किया और 1818 में इसे अपने पूर्ण अधिकार में ले लिया। अंग्रेज काल में यहाँ जहाँ मिशनरियों को फलने-फूलने का मौका मिला। वहीं, भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव आदि जगहों से यहाँ पर तमिल क्षेत्र में मुसलमानों की बसाहट शुरू हो गई और धीरे-धीरे मस्जिदें, मदरसों की संख्या बढ़ती गई। आज तमिल क्षेत्र में हालात खराब हो चुके हैं।

अंग्रेज काल में अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के तहत तमिल और सिंहलियों के बीच सांप्रदायिक एकता को बिगाड़ा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 4 फरवरी 1948 को श्रीलंका को पूर्ण स्वतंत्रता मिली। जब श्रीलंका आजाद हुआ तो सत्ता सिंहलियों के हाथ में देकर चले गए और तमिलों को हाशिए पर धकेल गए। लेकिन सिंहली यह नहीं जानते थे कि अंग्रेज और मुस्लिम सल्तनतें श्रीलंका को अशांत देखना चाहती थी। योजनाबद्ध तरीके से सिंहलियों के मन में तमिल हिंदुओं के प्रति नफरत क्यों भरी गई?

बहुत काल तक खुद को अगल थलग किए जाने के कारण तमिलों में असंतोष फैलने लगा। मई 1976 में प्रभाकरन ने लिबरेशन टाइगर्स तमिल ईलम (लिट्टे) का गठन किया गया और तमिलों के लिए अलग राष्ट्र की मांग की जाने लगी। हजारों निर्दोष सिंहलियों, उच्च पदों पर आसीन श्रीलंकाई नेताओं और भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या का दोषी बने गए।

10.ऐसा आरोप लगाया जाता रहा है कि श्रीलंकाई शासन और तमिल अलगाववादियों के बीच चली लंबी लड़ाई का फायदा मुस्लिम कट्टरपंथियों और ईसाईयों ने उठाया।उन्होंने इस बीच अपने पैर जमाना शुरू कर दिए। इससे श्रीलंका के तमिल और सिंहली क्षेत्र में सामाजिक अशांति बढ़ने लगी।

वर्तमान में श्रीलंका में करीब 2.2 करोड़ की आबादी है। देश की 70 फीसदी आबादी बौद्ध है। यहां 10 फीसदी आबादी मुस्लिम, 12 फीसदी हिंदू और 6 फीसदी कैथोलिक है। बौद्धों ने हिन्दू और ईसाइयों को धर्म की वजह से कभी निशाना नहीं बनाया।

प्रागैतिहासिक काल

इस द्वीप पर बालंगोडा लोगों (इस नाम के स्थान पर नामकृत) का निवास कोई 34,000 वर्ष पूर्व से था। उन्हें मेसोलिथिक शिकारी संग्रहकर्ता के रूप में मान्यता दी गई है। जौ और कुछ अन्य खाद्यान्नों से द्वीपनिवासियों का परिचय ईसापूर्व 15,000 इस्वी तक हो गया था। प्राचीन मिस्र में ईसा पूर्व 1500 ईस्वी के आसपास दालचीनी (दारचीनी) उपलब्ध थी जिसका मूल श्रीलंका समझा जाता है। अर्थात् उस समय से इन दो देशों के बीच व्यापारिक सम्बंध रहे होंगे। अंग्रेज यात्री और राजनयिक सर जेम्स इमर्सन टेनेन्ट ने श्रीलंका के शहर गॉल की पहचान हिब्रू बाइबल में वर्णित स्थान टार्शिश से की है।

भारतीय पौराणिक काव्यों में इस स्थान का वर्णन लंका के रूप में किया गया है। रामायण, जिसकी रचना सम्भवतः ईसापूर्व 4थी से दूसरी सदी के बीच हुई होगी।इस स्थान को राक्षसराज रावण का निवास स्थान बताया गया है। बौद्ध ग्रंथ दीपवंश और महावंश में दिए गए विवरण के अनुसार इस द्वीप पर भारतीय आर्यों के आगमन से पूर्व यक्ष तथा नागों का वास था।अनुराधपुरा के पास पाए गए मृदभांडों पर ब्राह्मी तथा गैर-ब्राह्मी लिपि में लिखावट मिले हैं जो ईसापूर्व 600 इस्वी के हैं।

प्राचीन काल

पालि सामयिक दीपवंश, महावंश और चुल्लवंश, कई प्रस्तर लेख तथा भारतीय और बर्मा के सामयिक लेख छठी सदी ईसापूर्व के श्रीलंका की जानकारी देते हैं। महावंश पाँचवीं सदी में लिखा गया बौद्ध ग्रंथ है। जिसकी रचना नागसेन ने की थी। यह भारतीय तथा श्रीलंकाई शासकों का विवरण देता है। इससे ही सम्राट अशोक के जीवनकाल का सही पता चलता है। जिसमें लिखा है कि अशोक का जन्म बुद्ध के 218 साल बाद हुआ। इसके अनुसार राजा विजय के 700 अनुयायी इस द्वीप पर कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) से आए। इस द्वीप पर विजय ने अपने कदम रखे। जिसमें उसने इसे “ताम्रपर्णी” का नाम दिया (तांबे के  पत्तों जैसी)। यही नाम टॉलेमी के नक्शे में भी अंकित हुआ। विजय एक राजकुमार था। जिसका जन्म, कथाओं के अनुसार एक राजकुमारी और सिंह (शेर) के संयोग से हुआ था। उसके वंशज सिंहली कहलाए। हंलांकि वंशानुगत वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि यहां के लोग एक मिश्रित जाति के लोग हैं।इनका भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों से संबंध अब भी विवाद का विषय है।

उत्तर भारत के लोगों के आगमन से और दक्षिण भारतीय साम्राज्यों की शक्ति बढ़ने से द्वीप पर दक्षिण भारतीय आक्रमण भी शुरु हुए। सेना और गुट्टका दो प्राचीन तमिल शासक थे। जिन्होंने दूसरी सदी इसापूर्व के आसपास शासन किया। इनके अस्तित्व का प्रमाण तो कुछ नहीं मिलता है। पर महावंश में इनका अप्रत्यक्ष जिक्र किया गया है।

इसी प्रकार प्राचीन भारत के महाजनपद कम्बोजों से भी इनका संबंध लगाया जाता है। यवन (ग्रीक), जोकि उत्तर पश्चिम भारत में कम्बोजों के पड़ोसी थे। इनका व्यापारिक संबंध था। उनके व्यापारिक उपनिवेश भी इन क्षेत्रों में थे।खासकर अनुराधपुरा के इलाके में।

मध्यकाल

देवनमपिया तिस्सा (ईसापूर्व 250 इस्वी – ईसापूर्व 210 इस्वी) के संबंध राजा अशोक से थे। जिसके कारण उस दौरान श्रीलंका में बौद्ध धर्म का आगमन और प्रसार हुआ। अशोक के पुत्र महेन्द्र (महेन्द), संघमित्र के साथ, बोधि वृक्ष अपने साथ जम्बूकोला (सम्बिलितुरै) लाया। यह समय थेरावाद बौद्ध धर्म तथा श्रीलंका दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।

प्रसिद्ध चोल राजा एलारा ने 217 ईसापूर्व से ईसापूर्व 161 ईस्वी तक राज किया। कावन तिस्सा के पुत्र दुटु गेमुनु ने उसे ईसापूर्व 161 ईस्वी में, कथाओं के अनुसार17 वर्ष के संघर्ष के बाद हरा दिया। इसके बाद पाँच तमिल सरदारों ने यहाँ राज किया। जिसके बाद तमिल शासन का तत्काल अंत हो गया। इसी समय बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक की रचना हुई।

महासेन (274-301 ईस्वी) ने थेरावाद का दमन किया और महायान बौद्ध धर्म प्रधान होता गया। पांडु (419 ईस्वी) इस द्वीप का पहला पांड्य शासक था। उसके वंश के आखिरी शासक को मनवम्मा (684-718 ईस्वी) ने पल्लवों की  मदद से हरा दिया। अगले तीन सदियों तक पल्लवों के अधीन रहने के बाद दक्षिण भारत में पांड्योंका फिर से उदय हुआ। अनुराधपुरा पर पांड्यों का आक्रमण हुआ और उसे लूट लिया गया। हंलांकि इसी समय सिंहलियों ने पांड्यों पर आक्रमण किया और उन्होंने पांड्यों के नगर मदुरै को लूट लिया।

दसवीं सदी में चोलों का उदय हुआ।राजेन्द्र चोल ने सबको दक्षिण-पूर्व की ओर खदेड़ दिया। पर 1055 ईस्वी में विजयबाहु ने वापस पूरे द्वीप पर अधिकार कर लिया। तेरहवीं सदी के आरंभ में कलिंग के राजा माघ ने तमिल तथा केरलाई लड़ाकों के साथ इस द्वीप पर आक्रमण कर दिया। उसके और परवर्ती शासकों के काल में राजधानी अनुराधपुरा से दक्षिण की तरफ़ खिसकती गई और कैंडी पहुँच गई। साथ ही जाफना का उदय एक प्रांतीय शक्ति के रूप में हुआ। पराक्रम बाहु षष्ठ (1411-66) एक पराक्रमी शासक था। जिसने सम्पूर्ण श्रीलंका को अपने अधीन कर लिया। वो कला का भी बड़ा प्रशंसक था।उसने कई कवियों को प्रोत्साहन दिया। उसके शासनकाल में राजधानी कोट्टे कर दी गई जो जयवर्धनपुरा के नाम से आज भी श्रीलंका की प्रशासनिक राजधानी है।

यूरोपीय प्रभाव

सोलहवीं शताब्दी में यूरोपीय शक्तियों ने श्रीलंका में कदम रखा।श्रीलंका व्यापार का केन्द्र बनता गया। देश चाय, रबड़, चीनी, कॉफ़ी, दालचीनी सहित अन्य मसालों का निर्यातक बन गया। पहले पुर्तगाल ने कोलम्बो के पास अपना दुर्ग बनाया। धीरे धीरे पुर्तगालियों ने अपना प्रभुत्व आसपास के इलाकों में बना लिया। श्रीलंका के निवासियों में उनके प्रति घृणा घर कर गई। उन्होंने डच लोगो से मदद की अपील की। 1630 इस्वी में डचों ने पुर्तगालियों पर हमला किया।उन्हें मार गिराया। पर उन्होंने आम लोगों पर और भी जोरदार कर लगाए। 1630 में एक अंग्रेज का जहाज गलती से इस द्वीप पर आ गया। उसे कैंडी के राजा ने कैद कर लिया। उन्नीस साल तक कारागार में रहने के बाद वह यहाँ से भाग निकला। उसने अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक लिखी। जिसके बाद अंग्रेजों का ध्यान भी इसपर गया। नीदरलैंड पर फ्रांस के अधिकार होने के बाद अंग्रेजों को डर हुआ कि श्रीलंका के डच इलाकों पर फ्रांसिसी अधिकार हो जाएगा। इसलिए उन्होंने डच इलाकों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। 1800 इस्वी के आते आते तटीय इलाकों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 1818 तक अंतिम राज्य कैंडी के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। इस तरह सम्पूर्ण श्रीलंका पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 1930 के दशक में स्वाधीनता आंदोलन तेज हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 4 फरवरी 1948 को देश को यूनाइटेड किंगडम से पूर्ण स्वतंत्रता मिली।

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