सच्चा साथी
– अंजू घरभरन
विद्या रातभर पढ़ने के बाद पौ फटने पर लेटी थी।आँखे बोझिल और नींद से भारी हो चुकीं थी। मन की चिंता को छुपाते हुए माँ से बोली सात बजे उठा देना, नहीं तो सब पढ़ा-लिखा बेकार हो जाएगा, कहा कुछ ऐसे जैसे कि पढ़ाई करके माँ पर अहसान कर रही हो। माँ ने प्यार से कहा बेटी तुम चिंता मत करो, समय से उठा दूँगी। माँ अच्छे से जानती थी अगर सो गई तो परीक्षा क्या ये दुनिया भी भूल जाएगी। सोने की कोई परीक्षा होती तो कहने से पहले भाग ले चुकी होती और शत प्रतिशत अंक भी ला चुकी होती।
आज विद्या अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो नौकरी कर रही थी। माँ अनेक बार कहती कि नौकरी लग जाने के बाद उसने पुस्तकों की ओर पलट कर देखा तक नहीं छूना और पढ़ना तो दूर की बात थी। माँ का दिन तो पुस्तकों,पत्रिकाओं,उपन्यास और कहानियों के साथ ही बीतता था। खरीदारी सब्ज़ी की हो य अन्य चीजों की कोई न कोई किताब या पत्रिका की खरीद जुड़ी ही रहती थी। पुस्कालय के चक्कर भी शामिल रहते थे। घँटों पोर्ट लुई और नगरपालिका में भी बीतते थे और माँ का मन था कि जैसे किताबों से कभी भरता ही नहीं था। जब मॉल में सब शॉपिंग का लुत्फ उठाते, वो कहीं कॉफ़ी या चाय के प्याले के साथ किसी अखबार अथवा वहीं किसी पत्रिका का आनंद ले रही होतीं थी। जानकारी सभी चीजों की पूरी थी, पर खरीदारी का भार माँ ने अब ढील रखा था।
माँ का कमरा तो क़िताबों से भरा हुआ ही था । जैसे घर मानों एक पुस्तकालय में परिवर्तित हो गया था। किताबों का जुनून ही तो था। कहीं किसी के घर जाना या बच्चों के लिये उन्हें तोफे,उपहार में बस किताबें ही दिखती और मिलती थीं।
आज माँ को गये ग्यारह महीने हो गये थे। घर में पूजा हुई , हार चढ़ी माँ की तस्वीर के पास दीपक जल रहा था और पास ही मेज़ पर क़िताबों के ढेर रखे थे। कुछ देश विदेश की पत्रिकाएं, उपन्यास और न जाने क्या क्या। अब उनमें से कोई न कोई पुस्तक विद्या के हाथ में होती थी। वे पुस्तक लेती पन्ने पलटती , खुशबू लेकर एक प्यार और अपनेपन के एहसास के साथ उसे देखती पलटती और फिर पढ़ती। जो लड़की माँ को कहती थी कि माँ हर वक्त बस तुम्हारे लिए एक ही साथी क्या?पुस्तको के अलावा और कुछ भी सोच लिया करो। आज किंडल, लैपटॉप और भी हज़ारों चीजें हैं आस -पास, पर तुम्हारे हाथों में बस पुस्तकें ही हैं। उफ तुम्हारी सच्ची साथी है। विधा को कई बार माँ की इस आदत से कोफ्त सी होती थी। पर आज हर पुस्तक से जैसे माँ की खुशबू और यादों का दौर ताज़ा हो जाता था। अब पुस्तकों से जुड़ कर माँ की मौजूदगी का अहसास पाती है। आज विद्या भी अपना सच्चा साथी पा चुकी थी।
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