स्त्री मरेगी नहीं

स्त्री मरेगी नहीं

अलस्सुबह खिलेगी

गुलाबों की तरह

महकती रहेगी

मोगरे जैसी

बिखरती रहेगी

ज़िन्दगी के मरुथल में

तुहिन कणों सी

कंधे के थैले में

भर कर लाएगी

सुनहरी किरणें

बिखेर देगी

घर के दालान में

गूंजेगी

भैरवी के सुर में

सूने मकान में

स्त्री मरेगी नहीं

कभी ख़्वाबों की

चमकीली चांदनी में

प्रेम के गीत रचेगी

कभी प्रकृति बन 

धानी रंग में सजेगी

कभी मेंहदी की खुशबू में

अधखिली सी लजाएगी,

कभी छुई मुई नवोढ़ा सी

सिमटेगी, सकुचाएगी

कभी माँ बन लोरियां 

सोहर गीत जाएगी

कभी सुहाग के लिए

करवा चौथ का व्रत करेगी

कभी बच्चों के लिए

अहोई अष्टमी मनाएगी

और कभी अन्नपूर्णा सी

रोटी सब्ज़ी पकाएगी

स्त्री अनुभव के

रेशमी धागों से

दिल का हर रफू भरेगी

रिश्तों के माधुर्य के लिए

बार बार मर कर भी जियेगी

कभी आशाओं की

रजाई उड़ा देगी

कभी अपने आँचल

के मुलायम कोने से

आंसू के कतरे सुखा देगी 

और सनातन रहेगी

युगों तक

सृष्टि के प्रारंभ से

अंत तक

***

-रेखा राजवंशी

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