बूंदों से वार्तालाप
मेरे आँगन की खिड़की पर कल
वर्षा की बूंदों ने दस्तक दी
आहिस्ता से चटखनी खोलकर मैंने
उन्हें अंदर आने की दावत दी
पहले कुछ शर्मायीं, सकुचायीं
फिर मुसकुराकर धीमे से
बैठ गईं सहजता से हथेली पर मेरी
फिसलकर खिड़की के शीशे से
थे बहुत से प्रश्न हृदय में मेरे
पूछना चाहती थी कब से
सोचा आज संयोग हुआ है
पूछ ही लेती हूँ अब इनसे
कहा उनसे विनम्रता से मैंने
क्या कुछ उत्तर वे दे पाएंगी
बोलीं, पूछो शीघ्रता से
हम अधिक देर नहीं रुक पाएंगी
है क्षण भंगुर हमारा जीवन
और रूप हमें बदलना है
मिटा कर अपना अस्तित्व हमें
फिर विलीन अनंत में होना है
पूछा उनसे मैंने प्रश्न फिर
क्यों बार-बार मिट जाती हो
छूकर गगन की ऊँचाई
फिर नीचे क्यों आ जाती हो
मानव तो एक बार यदि
ऊँचाई पर चढ़ जाता है
नहीं झुकना चाहता वह नीचे
और दंभ लिए इठलाता है
क्या है तुम्हारी कोई चाहत
या भूल तुम कुछ जाती हो
अम्बर के मुकुट को त्याग कर
क्यों धरा के चरणों में गिरती हो
बनती मिटती हो बार-बार
नहीं स्थाई कोई रूप तुम्हारा है
करती न्योछावर अपना सर्वस्व
क्या स्वार्थ कोई तुम्हारा है
मिटा कर अपना अस्तित्व तुम
हो जाती हो अदृश्य पल भर में
उड़ जाती हो वाष्पित होकर फिर
और खो जाती हो जाकर मेघों में
संघनित हो कर तुम पुनः
क्यों वापस आ जाती हो
प्रदान कर शीतलता धरा को
तपिश उसकी ले जाती हो
बोली बूंदें, ना है कोई चाहत
और ना ही कोई स्वार्थ हमारा है
चलता रहे सतत जीवन धरा पर
बस यही उद्देश्य हमारा है
जीवन तो है क्षण भंगुर सभी का
पर कैसे उसको जीते हैं
कर पाते हैं किसी का संताप कम
या बस स्वार्थी बन कर जीते हैं
उनका यह निस्वार्थ त्याग देख
कृतज्ञता से मेरा मस्तक झुक गया
नेत्रों से लुढ़का अश्रु जल
और हथेली की बूंदों से मिल गया
कहा वर्षा की बूंदों से झुककर मैंने
कुछ मेरे अश्रु भी लेती जाना
घमंड, क्रोध और अहम रहित जीवन का
कुछ पाठ इन्हें भी समझाना
काश सीख ले मानव भी
तुम वर्षा की बूंदों से जीना
स्वार्थ सिद्धि को त्याग कर
शीतलता से जीवन जीना
घट रहा था शनैः शनैः
करतल पर उनका आकार
बोलीं लेती हैं विदा अब
मिलेंगे हम फिर अगली बार
हो गईं लुप्त वे शून्य में
जा मिली फिर उस अनंत में
राह निहारती हूँ अब मैं उनकी
वे फिर कब आएंगी मेरे आँगन में
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-अदिति अरोरा