बापू के नाम एक खुला पत्र
विश्व को हिंसा से
मुक्त कराने का बीड़ा उठाया था तुमने।
विश्व तो क्या, यहां तो घर में भी
शांति-निवास के लाले पड़ गए हैं।
अब तो घरेलू हिंसा दिन ब दिन
बढ़ने लगी है।
तुमने कहा था
अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखो।
तुमने स्वयं ऐसा करके
एक उदाहरण पेश करने की भी कोशिश की।
पर क्या हम आपसे सीख कर
ऐसा कुछ भी कर पाए? नहीं ना!
तुम्हारा यह विश्वास और दृढ़ता तो
हमें भी विरासत में मिली थी।
फिर यह अचानक क्या हो गया?
दूसरों पर विश्वास करना तो दूर की बात है
यहां तो खुद पर ही विश्वास करने की हिम्मत
टूट सी गई है।
मुझे गलत मत समझना बापू
मैं आपसे कोई शिकायत नहीं कर रही।
पर करुँ भी तो क्या करुँ।
आपकी और मेरी मातृभूमि पर जो हो रहा है
उसे देखकर चुप भी तो नहीं रहा जाता।
लगता है देश की अंतरात्मा, न्याय, भलाई और निष्पक्षता
पूरी तरह से पलायन कर चुके हैं।
देश के रखवाले बिक चुके हैं
और
राजनीति, भ्रष्टाचार का एक अखाड़ा
बन कर रह गई है।
इस साल फिर हम हर साल की तरह
जोर-शोर से तुम्हारा जन्मदिन मनाएंगे।
छोटे-बड़े सभी नेता बड़े-बड़े वायदे करेंगे।
देश को आगे बढ़ाने के स्वप्न महल बनाएंगे।
जाति-पाति के भेदभाव को
जड़ से उखाड़ डालने का
बीड़ा उठाने की होड़ फिर से लगेगी।
बस आपसे एक विनम्र आवेदन है
अपनी मातृभूमि पर फिर से पैर रखने के अपने इरादे को
समय रहते बदल लें।
हमें तो यह सब देख कर अनदेखा करने की आदत सी पड़ चुकी है
पर आपसे शायद यह सब सहन न हो पायेगा।
अगर हो सके तो ऊपर से दुआ दे देना
शायद आपकी दुआ का कुछ असर हो जाये
इस पल-पल बिखरते समाज पर
भेड़ियों की खाल में छिपे इंसानों पर
नैतिक मूल्यों से विहीन नेताओं पर
धर्म के ठेकेदारों पर
और
रक्षक का बाना पहन
भक्षक का व्यवहार करने वाले
मनुष्यों पर।
आपसे फिर से आपके अगले जन्मदिवस पर
अपने दुख और निराशाओं को बांटने को आतुर….
आपकी ही अपनी
निर्भय बनने की आस लिए एक मासूम बालिका।
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-पुष्पा भारद्वाज-वुड