बनजारन 

जीवन-रेगिस्तान में
मरीचिका-प्रेम ढूढ़ने
बनजारन-मैं…
रोज़ करती हूं तय
रेत-भरा-मीलों सफर …!!

टांग-सूरज-बालों में
टाँक चांद-दुपट्टे में
नव-यौवन को ढकती, चुनरी से
पसीने से उजागर होते, अधर
श्वेत-चांदनी पहन-ओढ़
भटकती हूं रात-दिन-कहीं- मैं
इस बंजर जमीन पर…!!

कभी-कहीं-कब-क्या मैं
प्यास-जल-खुद की तलाश में…??

सूखे-दरिया-से-नमकीन-होंठ
आँधी-रेत-सी-सूखी-आँखे
नागफनी-लहूलुहान-दर्द-मन
रेगिस्तान में भी जैसे
बहा-अश्क़-आँखों से
करता है बिन-बादल-बारिश..!!

अब-जब-तब- लेकर-नाम
तेरा-रोप देती हूं कुछ पौधे-पेड़
इस कोशिश में यह बंजर-मन
हरा-भरा जंगल जाए बन …
खिलें रंग- बिरंगे-नव फूल…!!

बादल-से तुम-बारिश सी मैं
यूँ गुज़रूँ आँखों के रस्ते
मिल रहा हो अनायास
रेगिस्तान से जैसे समुद्र ..!!

जीवन-रेगिस्तान में
मरीचिका-प्रेम ढूढ़ने
बनजारन-मैं…
रोज़ करती हूं तय
रेत-भरा-मीलों सफर …!!

*****

-सुनीता शर्मा

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