दाई मां
नितीन उपाध्ये
भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने जब आजादी के गुमनाम नायकों को उचित सम्मान देकर उनकी वीर गाथा आज की पीढ़ी को बताने की आवश्यकता पर बल दिया तो मुझे दाई मां का स्मरण हो आया। जब मेरे बेटे का जन्म हुआ था, तब हम अपना पचासवां स्वतन्त्रता दिवस मना रहे थे। मैं रतलाम शहर अपनी ससुराल आया हुआ था। एक माह के गोल मटोल बच्चे को दाई माँ कड़वे तेल से बढ़िया से मालिश कर के कुनकुने पानी में नहला कर साफ़ कपड़े में लपेट कर अपनी आँखों से काजल निकालकर दिठौना लगाकर जब बाहर लाती तो घर के सभी हाथ उसे लेने के लिए आगे बढ़ जाते। पर दाई माँ सबसे पहले उसे उसकी माँ को ही देती। कहती “नहा कर राजा बाबा को भूख लगी होगी”। मैं आपको दाई माँ के बारे में बताना ही भूल गया। दाई माँ मेरे ससुराल में पिछले 50 वर्षों से आ रही थी। मेरे ससुर साहब, मेरी पत्नी और अब मेरे बेटे की मालिश और नहलाने का कार्य कुशलतापूर्वक कर रही थी। दाई माँ करीबन 70-75 वर्ष की एक स्थानीय आदिवासी महिला थी, पर अब पूरी तरह से शहरी जीवन को अपना चुकी थी। शुद्ध शरबती गेहूं सा तपा हुआ रंग और माथे पे चन्दन का बड़ा सा टीका, यूँ लगता मानों सूरज की सुनहरी धुप पर किसी ने शरद पूर्णिमा के चन्दा का टीका लगा दिया हो। चुस्ती फुर्ती ऐसी कि 20-25 साल की लडकियां भी उनके सामने पानी मांगे। आभूषण रहित हाथ पाँव और गले में सिर्फ तुलसी की माला। एक मोटी सी खादी की साडी पहने जिस सतर चाल से चलती कि देखते ही बनती। हाथों में ऐसा जादू कि कमजोर से कमजोर बच्चे की ऐसी मालिश करती कि महीने दो महीने में गुलगुथना होकर माँ को भी उठाना भारी हो जाता।
उस दिन जब दाई माँ अपनी साड़ी घुटनों के ऊपर कर के बेटे को दोनों पावों पर उलटा लेटाकर दम लगाकर मालिश कर रही थी, तभी साले साहेब ने बाहर से आकर कहा “अपने पड़ौसी नरेश कुमार जी को इस स्वतंत्रता दिवस पर मुख्यमंत्री स्वतंत्रता-वीर की उपाधि देने वाले है। 5 लाख का नकद इनाम भी मिलेगा और एक सरकारी आवास भी। “मेरी दादी सास ने कहा- ये भी खूब कही, यह मुआ नरेश तो बड़ा ही बदमाश लड़का था, स्वतंत्रता के पहले जुआ खेलने के चक्कर में दो दिन जेल क्या हो आया, बस अपनी उसी जेल यात्रा को भुनाकर स्वतन्त्रता सेनानियों की कतार में जा खड़ा हो गया।“
मैंने दाई माँ से पूछा “जब भारत स्वतंत्र हुआ, आप कहा थी? आपको कुछ याद भी हैं? आपको तो गाँव में पता ही नहीं चला होगा कि हम कब गुलाम हुए और कब आज़ाद हुए।”
एक पीड़ा भरी मुस्कान उनके होठों पर आकर यूँ विलीन हो गई मानो एक क्षीण जल धारा मरुस्थल में जाकर विलुप्त हो गई हो। मैं पेशे से एक मनोचिकित्सक हूँ, इसलिए वह अपने मन के भावों को जो उनके चेहरे पर उभर कर पल में विलीन भी हो गए थे, छुपा नहीं पाई। मैं समझ गया कि इनके अंदर गहरे कही दर्द का एक सुप्त ज्वालामुखी है, जो शायद ही कभी फटेगा। आज इस ज्वालामुखी के ऊपर जो हरियाली छाई है और इतने रंग-बिरंगे फूल खिले है, उसके पीछे अंतर्मन की उसी उष्मा का परिणाम है । मैंने उनसे उनके बचपन के बारे में पूछना प्रारम्भ किया। मेरी शिक्षा और अनुभव से मुझे मानव मन पर लगे हर तरह का ताला खोलने का हुनर आ गया है।
दाई माँ के मन के उस कोने को जिसे वह जाने कब से सारी दुनिया के लिए बंद कर चुकी थी, मेरी बातों से खोलने लगी। मन्त्रवत हाथों में तेल लेकर बेटे के पेट और पीठ पर मलते हुए अपने जीवन के गुमनाम हिस्सों में मुझे ले जाने लगी।
19420 का अगस्त महीना था, अगले ही सप्ताह रक्षा बंधन का त्यौहार था। पिछले दो दिनों से बरखा की ऐसी झड़ी लगी थी कि फुलवां तहसील वाले बाजार में जा ही नहीं पाई थी। चावल भी ख़त्म होने आ रहे थे। यही सब सोचते सोचते उसने अपने चार माह के दुधमुंहें बच्चे को झूले में लिटाया और बाहर जाकर भूरी गाय को देखकर आई। भूरी ब्याने वाली थी। उसका घर गाँव से बाहर था और ऐसे में ये दिन रात की बरसात। वह सोच में पड़ गई कि वह अकेली यह सब कैसे संभालेगी। कच्ची उमर में ब्याह करके वो अपने पति मंगू के साथ जब से इस घर में आई थी तब से ही उसकी सास की आँखों की रोशनी कम होने लगी थी। अब तो वह पूरी तरह से अंधी हो गई थी और पिछले महीने ही आँगन में गिरकर अपने कूल्हे की हड्डी तुड़वा बैठी थी। गांव के वैद्य जी ने दवा तो दी थी, पर तब से उसने जो खटिया पकड़ ली कि उठी ही नहीं।
मंगू भी 6-7 माह पहले शहर के एक कारखाने में काम करने चला गया था। जाते हुए बोल गया था कि जल्दी ही रहने का कोई बंदोबस्त कर लूंगा तो तुम सब को भी शहर बुला लूंगा। तब दोनों ही यह बात कहाँ जानते थे कि शहर में काम तो मिल जाता है, छत नहीं मिलती। उसकी चिट्ठियां आती थी, पर उसे पढ़ना लिखना कहाँ आता था जो वह उत्तर दे पाती। मंगू ने तो अभी अपने बेटे को भी नहीं देखा था। पिछली बार जब वह तहसील के बाजार गई थी उसने सुना था कि गाँधी बाबा ने गोरे साहेब लोगों से कहा है कि आप हमारा देश छोड़कर वापस अपने देश चले जाओ। पहले तो फुलवा को यह सब बाते समझ ही नहीं आती थी, उसे तो गोरी गोरी मेम साहब बड़ी ही अच्छी लगती थी। उनका रंग भूरी के दूध जैसा सफ़ेद होता था और वो बिलकुल परियों जैसे कपड़ें पहनती थी। जब कभी पास से निकलती थी तो मानों चम्पा,चमेली और मोगरा के फूल ही महक जाते थे। मंगू ने एक दिन उससे कहा कि “शहर जाकर वह भी उसके लिए ऐसे ही कपड़ें लाकर देगा”। मंगू आगे बोला कि “जब यह गोरे लोग यहां से सात समंदर पार अपनी रानी के पास वापस चले जायेंगे तो अपने देश पर हमारा राज होगा”। तब उसने बड़े भोलेपन से पूछा था “पर यह लोग क्यों जायेंगे?” मंगू ने कहा “एक तो गाँधी बाबा ने इनको परेशान कर रखा है और कई नौजवान लड़के, लड़किया इन गोरे साहबों को गोली भी मार रहे है”। गोली का नाम सुनकर वह डर गई और धीरे से मंगू की फौलादी सीने पर अपना सर रख दिया। मंगू की देह से आती पसीने की गंध भी उसे किसी अत्तर से कम नहीं लगती थी।
तभी दरवाजे पर बजती कुण्डी की आवाज से वह चौकीं, और दरवाजा खोला तो बाहर रेवा दीदी और संजीव भैया को देखा। दोनों अभी दो महीने पहले ही तहसील की एक पाठशाला में पढ़ाने के लिए आये थे। वह उनके यहाँ दूध पहुँचाती थी। दोनों पूरी तरह से भीग चुके थे। उसने पूछा “आप लोग इत्ती रात, यहाँ? संजीव ने रेवा की आँखों में देखा और कहा “फुलवा हम दोनों क्रांतिकारी है और तबादला होकर आये गोरे साहेब को मारने का दॄढ़ संकल्प लेकर यहाँ आये थे। इस गोरे साहेब ने हमारे कई साथियों को धोखे से मारा और अब डरकर यहाँ आ गया। हम मौके की तलाश में थे। आज हमने अपना प्रण पूरा कर लिया। अब हमारा यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं। हमें जल्द से जल्द दिल्ली पहुँच कर आगे के काम करने है। हम अपने घर नहीं जा सकते और तेज बारिश में हमें यह घर दिखाई दिया तो यहां आ गए । हमें पता नहीं था कि तुम यहाँ रहती हो। हम दोनों कल सुबह बारिश थमते ही निकल जायेंगे। उसने उन दोनों को सूखे कपड़े दिए और गरम दूध लाकर दिया। फिर उसने जल्दी जल्दी रोटियां बना दी, जिसे उन्होंने प्याज और हरी मिर्ची के साथ खाया। वह तो संजीव भैया को बड़ा नाजुक सा समझती थी, पर जब उन्होंने आँगन से पत्थर को लाकर दरवाजे के सामने रख दिया तो वह हैरान हो गई। सोचने लगी फूल सी सुकुमारी रेवा दीदी ने कैसे गोली चलाई होगी। उस रात किसी की पलक नहीं झपकी। रात को कोने में बैठे दोनों आपस में कुछ बातें कर रहे थे। पूरब से सूरज महाराज के आने का संदेशा लेकर भोर की उजास धीरे धीरे आँगन में उतरने लगी। संजीव भैया ने उससे कहा “फुलवां तुम हमारी एक मदद कर दो, अभी सुबह 10 बजे पास के स्टेशन पर दिल्ली जाने के लिए एक ट्रेन आएगी। रेवा को भेष बदलना होगा, तो तुम इसे अपनी कोई साड़ी दे दो और तुम हमारे साथ चलो। हम तुम्हारे मुन्ने को रेवा की गोद में दे देंगे, तो इसकी तरफ पुलिसवाले का ध्यान नहीं जाएगा। हम सब अलग अलग डब्बों में चढ़ेंगे। कल जब दिल्ली पहुंचेंगे, तब ऐसे ही स्टेशन के बाहर निकल जायेंगे। फिर हम तुम्हे तुम्हारे मुन्ना के साथ वापस ट्रेन में बैठा देंगे। तुम्हारा पति भी यहाँ नहीं है। तुम गाँव के बाहर भी रहती हो। किसी का ध्यान तुम पर नहीं जाएगा। इस तरह से तुम भारत माता की आजादी के लिए अपना योगदान दोगी। “यह सुनते ही 18 वर्षीया तरुणी एक प्रगल्भ प्रौढ़ा में परिवर्तित हो गई। उसने झटपट अपने बेटे को उठाया, दूध पिलाया और रेवा दीदी को अपनी एक साड़ी देकर उनकी गोदी में दे दिया और कहा “दीदी आज से मेरा मुन्ना आपका और देश का।” बाहर जाकर भूरी के सामने घास रखी और पीछे कोठरी में सास के पास केला और दूध रखकर आ गई।
फिर तीनों स्टेशन के तरफ निकल पड़े। स्टेशन पर पुलिस का कड़ा पहरा था। मुन्ने को गोद में लेकर गठरी बनी हुई रेवा दीदी की तरफ पुलिस ने देखा तक नहीं। ट्रेन आई तो तीनों अलग अलग डिब्बों की तरफ बढ़ें। ट्रेन ने सिटी बजाई तो वह चुपके से दूसरी तरफ के दरवाजे से उतर गई और घर की तरफ चल दी।
यहाँ तक मैं भी उसी काल में पहुँच गया था, पर यह बात सुनकर जैसे मैं आसमान से गिर पड़ा। मैंने कहा “दाई माँ आप दिल्ली क्यों नहीं गई?”
दाई माँ ने कहा “घर पर मेरी अंधी अपाहिज सास मेरा रास्ता देख रही थी, भूरी भी ब्याने वाली थी, इन दोनों को कुछ हो जाता तो मंगू को क्या मुँह दिखाती मैं?”
मैंने पूछा “फिर आपने अपने बेटे को रेवा को क्यों दे दिया?”
“उन्होंने भारत माता की आज़ादी के लिए मेरे बेटे को मांगा था, कैसे मना करती”
यह सुनकर मेरा शरीर सुन्न हो गया और मेरी आँखों में गंगा जमुना उतर आई। रुंधे गले और धुंधली आँखों से मैं बस सुनता रहा कि कैसे शहर में “अंग्रेजों भारत छोड़ों” का नारा लगाते हुए मंगू पुलिस की गोली से मारा गया। बेटे की मौत का समाचार सुनते ही बूढ़ी माँ ने दम तोड़ दिया। जब फुलवां निपट अकेली रह गई तो सरकारी दवाखाने में दाई का काम करने वाली उसकी मौसी उसे शहर ले आई। इस तरह से फुलवां अपने बेटे को देश पर न्योछावर करके सैकड़ों-हजारों बच्चों की दाई माँ बन गई।
मेरे बेटे को काजल का दिठौना लगा कर मेरी गोद में देती हुए बोली “जमाई बाबू अगले घर भी जाना है।” मैंने पूछा “बाद में आपकी रेवा या संजीव से कोई भेट नहीं हुई? आपको आपके मुन्ना की कोई खबर नहीं मिली।” दाई माँ का मौन मुझे सब कुछ कह गया। मेरे सामने हमारे समय की पन्ना धाय खड़ी थी। मैं यह भी जानता था कि यह अकेली नहीं, वरन ऐसी कई गुमनाम मां होंगी जिनकी दखल भगवान के अलावा किसी ने नहीं ली होगी। मैंने दाई माँ से पूछा “आजाद होने की बाद आपने सरकार से मंगू के स्वतन्त्रता सेनानी होने और मुन्ने की बात बताकर कुछ जमीन या मासिक खर्चे की अर्जी क्यों नहीं लगाई।” दाई माँ ने मुस्कुराकर कर कहा “भगवान् को चढ़ाये गए प्रसाद का मोल नहीं मांगा करते।”
बाहर नरेश जी के सम्मान में बजने वाले ढोल ढमाकों की आवाज़ को चीरते हुए दाई माँ चुपचाप अपने दूसरे बेटे की मालिश करने निकल पड़ी।
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