गंगासागर
नितीन उपाध्ये
आज जब से डाकिया जान्हवी दीदी की चिट्ठी दे कर गया है, सारे घर का वातावरण ही बदल गया है। अम्मा तो रसोईघर में जाकर सुबह से शायद प्याज ही काट रही है। आँखों में आये आँसू और सुबकने की वजह से लाल हुई नाक की तरफ इशारा कर के सुधा चाची ने जब पुछा तो अम्मा ने यहीं उत्तर दिया “अरे छोटी, प्याज काट के आ रही हूँ” यह कह के फिर से रसोई घर में घुस गई है। इस चिट्ठी के आने और सुधा चाची के एक ही दिन आने के पीछे शायद कुटिल नियति ही कोई खेल खेल रही है। चाची आज सुबह ही अपने भांजे प्रमोद के विवाह में सम्मिलित होने दिल्ली से भोपाल आई थी। इसी भांजे के लिए दीदी का रिश्ता जब पिताजी ने यह कहकर मना कर दिया था “सुधा मेरी बेटी को उसकी तरह कला और संगीत `से जुड़ा हुआ लड़का मिलना चाहिए और मुझे नहीं लगता कि प्रमोद में ऐसे कोई गुण है” तो चाची मन मसोसकर कर रह गई थी, पर कुछ कह नहीं पाई थी। पर आज सुबह से दीदी की चिट्ठी का पता चलने पर मुंह को छोड़कर अपनी हरकतों से यह जताने में लगी थी कि तब हम सब ने कितनी बड़ी गलती कर दी थी। पिताजी ऊपर के कमरे में जाकर पुराने बक्से खोलकर बैठ गए थे। शायद इस एक पंक्ति की चिट्ठी को बार बार पढ़ रहे थे। चिट्ठी में लिखा था “पापा मैं वापस आना चाहती हूँ”। पिताजी को मनाने का दीदी का यह खास तरीका था, जो भी बात बतानी होती थी उसे एक पेज पर एक पंक्ति में लिखकर उनकी मेज पर रख आती थी। फिर चाहे नाटक के लिए अम्मा की बनारसी साडी से घाघरा चोली बनवा ली हो या बुढ़िया का पात्र करते हुए दादी की ऐनक तोड़ आई हो, सबको पता लगने से पहले पिता जी के पास एक पंक्ति वाली अर्जी पहुंचाकर मानों दुनिया से लड़ने का अमोघ कवच पा लेती । अब चाहे दादी, अम्मा या कोई कितनी भी शिकायतें लगाए, पिताजी हँसकर टाल देते। मैं जानती हूँ जायदाद के पुराने कागजात का बहाना बनाकर वही चिट्ठी बार बार पढ़ रहे होंगे।
चाचा जी अपने ससुराल की शादी के बाद दादी को गंगासागर की यात्रा पर ले जाने के लिए टिकट निकलवाने के लिए गए थे। दादी की गंगासागर जाने की कब से इच्छा थी, पर किसी न किसी वजह से जा ही नहीं पाई थी। दादी की गंगा जी में बहुत श्रद्धा थी, क्यों न होती आखिर हरिद्वार में जो जन्मी थी। उन्होंने अपनी दोनों पोतियों का नाम गंगा जी के नाम पर रखे थे, दीदी का जान्हवी और मेरा मेघा। जान्हवी दीदी थी भी तो बिलकुल गंगोत्री से निकली गंगा की तरह निर्मल, चंचल और अपनी प्रतिभा के तेज बहाव में सभी कुछ बहा ले जाने की क्षमता रखने वाली। दीदी के ऊपर सरस्वती का वरद हस्त था। मैं तो मजाक में कहती थी “प्रयाग राज में लुप्त हुई सरस्वती तुम्हारे अंदर आ गई है”। वह कला, संगीत, नृत्य और नाटक जिस क्षेत्र में अपना हाथ आजमाती, उसी में सबसे पहली पायदान पर जा खड़ी होती। विद्यालय से लेकर महाविद्यालय तक दीदी ने गायन, नृत्य और नाटक में न जाने कितने पदक जीते थे।
मुझे आज भी याद है जब वह शकुंतला बनकर दुष्यंत के दरबार में गाती थी:
“प्रियवर कैसे दिखलाऊ तुमको वो मुंदरी जो अपने हाथों से तुमने पहनाई थी,
हाथ यही तो मेरा थामा था तब तुमने, छुड़ा नहीं पाई थी और मैं लजाई थी.
प्रीति के उस मधुर स्पर्श के साक्षी वृक्ष, लता,चंद्र, सूर्य और ये गगन सारा है,
अपनी पवित्रता को क्यों दूँ परीक्षा मैं? मुझको तुम भूले हो, दोष ये तुम्हारा है”
तब सभागार में उपस्थित सभी दर्शक मन ही मन यह प्रश्न दोहराते कि पुरुष की भूल का दंड एक स्त्री को क्यों भुगतना पड़ता है। दीदी की बहुत इच्छा थी कि दिल्ली जाकर राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय में प्रवेश लेकर इसी क्षेत्र में अपना नाम करे। पर तब चाची ने पिताजी को निर्भया कांड और ऐसे अन्य कई किस्सों का हवाला देकर दीदी को दिल्ली भेजने नहीं दिया। चाची तो मन ही मन चाहती थी कि दीदी कि शादी इनके भांजे के साथ हो जाये। पिताजी ने अपने बचपन के दोस्त के बेटे रूद्र के साथ दीदी की शादी की बात भी पक्की कर दी थी। रूद्र जर्मनी में रोबोटिक्स के क्षेत्र में अनुसंधान करने गया था और बाद में आकर अपने पिताजी की कंपनी संभालने वाला था। पिताजी कहते थे “मेरी अल्हड जान्हवी को यह रूद्र ही संभाल सकता है”। पर दीदी के मनोमष्तिष्क पर तो नाटक और अभिनय ऐसे छा गए थे कि एक दिन अपनी नाट्य मण्डली के साथी शिरीष के साथ मुंबई के लिए निकल गई। जाने के पहले हमेशा की तरह एक पंक्ति की चिट्ठी पिताजी की मेज पर रख दी थी “मैं मुंबई जा रही हूँ”। उस दिन के बाद पिताजी को किसी ने हँसते हुए नहीं देखा। दादी ने कहा “छोटी के भांजे से ही शादी कर देनी थी लल्ला”। पर उसके बाद तो घर में दीदी का नाम भी कोई नहीं लेता था। बीच बीच में दीदी के मुंबई में होने के समाचार मिलते रहते। किसी कला चित्रपट में दीदी दिख जाती थी। अच्छी अभिनेत्री थी तो चेहरे पे संघर्ष की छाया दिखाई नहीं पड़ती थी, पर हम दोनों तो एक ही डाल के फूल थे, एक के कुम्हलाने की खबर दूसरे को कैसे नहीं होती? अभी थोड़े दिनों पहले ही मैंने सुना था कि शिरीष भी दीदी को छोड़ कर अपने से उम्र में बड़ी एक स्थापित नायिका के साथ रहने चला गया है। मैं तो डर के मारे पिताजी को बता भी नहीं पाई थी, और फिर मेरे मेडिकल का अंतिम वर्ष भी था। मेरा पढ़ाई में ही काफी समय व्यतीत होता था ।
दोपहर का खाना खाने के बाद पिता जी ने चिट्ठी सब के सामने रख दी और कहा “आप सबकी क्या राय है ?” चाचा जी चाची का मुँह देखने लगे। जब कोई कुछ नहीं बोला तो चाची ने कहा “भाई साहब, अब मेघा भी शादी के लायक हो गई है, हमारे यहां भी लड़की वाले चक्कर लगा रहे हैं, घर में दो दो बहुएँ लानी है। घर से निकली बेटी और गंगोत्री से निकली गंगा क्या कभी वापस जा सकती है? उसे वहीँ रहने दे, चाहे तो आर्थिक मदद करते रहे”। अम्मा की ख़ामोश सिसकियाँ जिन्हे कोई नहीं सुन रहा था, मेरे कानों में ढोल नगाड़ों की तरह बज रही थी। एकादशी के उपवास में सुबह से भगवान् के सामने बैठी दादी उठकर बैठक में आई और कहने लगी “छोटी तुझसे किसने कही कि गंगा फिर से हिमालय के पास नही जा सकती। यह तो उसकी मर्जी है कि उसे खारा सागर स्वीकार है या नही? मेरी गंगा में इतनी शक्ति है कि वह जब चाहे अपनी धारा मोड़कर हिमालय की गोद में आ सकती है और हिमालय का ह्रदय भी इतना विशाल है कि वह वापस आई हुई गंगा को आपने आँगन में फिर से हंसने खेलने देगा। सोचो अगर हिमालय ने उसे वापस न लिया तो उसे अपनी इच्छा के विपरीत खारे सागर में या किसी गंदे नाले में जा गिरना पडेगा।” फिर दादी चाचा जी की तरफ देखकर बोली “सुन छोटे गंगासागर की टिकट बदलकर अब हम सबकी मुंबई की टिकट करा ला।
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