सुन्दर बाबा की कहानी

हाइन्स वरनर वेस्लर

सुंदरपुर नामक बिल्कुल मामूली एक गांव था। वहाँ रहते थे सुंदरलालजी। मालूम होता है कि नाम इसलिये रखा गया था क्योंकि सुंदरपुर में ही इनका जन्म हुआ और यों समझिये कि इस जगह से बाहर कभी नहीं रहे। इस गांव में ही बड़े हुए। शादी हुई, बच्चे हुए और बूढ़े भी हुए। लोगों के बहुत बच्चे होते थे और इसी तरह से सुंदरलालजी के बहुत बाल-बच्चे हुए। तब और अब में फर्क है। बाबाजी से पूछें तो वह गिनना शुरू करेंगे। लोग ज्यादातर अपने और उनके रिश्तेदारों के बच्चों का फर्क नहीं करते थे। खैर, सुंदरलालजी के सभी बच्चों का विवाह धीरे-धीरे हो गया और उनके भी बच्चे हो गये। दादा और नाना बन गये और अपने ही आंगन में बच्चों का ढेर लग गया। सुंदरलाल हर एक का नाम तो नहीं याद कर सकते थे, पर सथियों के साथ खेलते रहते थे और प्यार भी करते थे। धीरे-धीरे इन बच्चों के भी बच्चे होने लगे, शादियां हुईं, बहुएं आईं। इस बीच में सुंदरलालजी बूढ़े होते चले गये।

वह माली तो न थे पर पेड़-पौधों और हर तरह के जानवरों से उनका प्रेम उम्र के साथ बढ़ता गया। पूरे गांव में यह बात अजीब-सी लगने लगी। गांव वाले खेती-बाड़ी और गाय-बकरी पर सुबह से रात तक बहस करते थे, पर इससे बाहर प्रकृति का उनके लिये कुछ मतलब नहीं था। सुंदरलालजी का मजाक होने लगा। पड़ोस में जितने भी पेड़-पौधे थे उनकी रखवाली करना अब उनके बास का न था, फिर भी एक-आध चक्कर लगाकर देख लिया करते थे कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हुई या किसी ने कोई पेड़-पौधे काट व उखाड़ तो नहीं डाले।

जानवरों में विशेषकर बंदरों से उनकी दोस्ती होने लगी। बंदर सुंदरलालजी के साथ खेलने लगे और कभी-कभी उनके कंधों पर बैठते और कभी-कभार बच्चों की तरह सुंदरलालजी की गोद में सो जाते। यही था बूढ़े सुंदरलालजी का जीवन।

धीरे-धीरे उनके बस में वह भी नहीं रहा और बुढ़ापा उन्हें तेजी से घेरता रहा। बढ़ी दाढ़ी और सफेद बालों वाले सुंदरलालजी अब केवल घर के आंगन तक ही सीमित हो गये। बच्चे अब भी उनके साथ खेलते थे। सुंदरलालजी वहां एक ही जगह पर बैठते रहे। हंसते भी और सोते भी थे, पर संत की तरह मांगते कुछ नहीं थे। जब खाना खाने के लिये कोई इनको कुछ देता था तो चुपचाप खाते तो जरूर थे, पर जब पेट भरने के लिये जब कुछ न मिलता था, तो वह शिकायत कहां करते? इस तरह से घरवाले बिल्कुल भूल जाते कि सुंदरलाल अभी तक हमारे साथ हैं और इसमें बूढ़े सुंदरलालजी एक बरगद का पेड़ बन गये।

बाद में किसी को पता नहीं था कि यह परिवर्तन कब हुआ। किसी दिन बच्चों को हैरानी होने लगी। वह सब इतना धीरे-धीरे हुआ कि बच्चों का सुंदरलालजी के साथ खेलना और वही सुंदरलालजी का अपनी जटाओं को झूला बनते देखना सहज हो गया।

मनुष्य वृक्ष बन जाये, यह कोई साधारण बात नहीं। ऐसा केवल कहानियों और चित्रों में ही संभव है। पर ऐसा भी नहीं कि यह बात सत्य नहीं है। यों समझिये कि इस दुनिया में कभी-कभी कल्पना और सत्य का फर्क नहीं है। ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो तथाकथित वास्तविक जीवन में देखने को नहीं मिलतीं।

बजाय इसके कि सुंदरलालजी एक भूत-प्रेत बन जाते या भगवान बन जाते, वह बस वट वृक्ष बन गये। एक बड़, एक साधारण बरगद। आखिर बरगद की विशेषता क्या है? वह एक ही जगह पर खड़ा रहता है, उसका जो भी चलन है उसमें सिर्फ शाखाओं और पत्तों के जरिये हिलना-झुलना है, बस! बिल्कुल उसी तरह सुंदरलालजी थे, बच्चे इनके साथ खेलते रहे, इन पर चढ़ते रहे और बंदरों के साथ इनके ऊपर बैठते रहे, बस इसमें ही सुंदरलालजी खुश रहे।

शांत स्वभाव के सुंदरलालजी तो वैसे थे ही। पर वृक्ष का रूप धारण करके वह और भी शांत हो गये। पहले वह कभी-कभी बच्चों को पुराने जमाने की कहानियां और कविताएं सुनाया करते थे, लेकिन बाद में यह सिलसिला खत्म होने लगा। बोलने में तकलीफ भी होने लगी और खुशी में चुपचाप वहीं बैठते ही रहे और जब इस तरह से धीरे-धीरे इनका आवाज गायब होने लगी। तब लोग इन पर ज्यादा ध्यान भी नहीं देते। बच्चे कभी-कभी सुंदरलालजी के साथ हंसते-खेलते तो जरूर थे और बड़ों के लिये सुंदरलालजी का न बोलना अच्छा ही था बुर्जुग तो थे, इसलिये अच्छा लगा कि चुपचाप रहते थे। शिकायत नहीं करते और किसी को परेशान नहीं करते।

अजीब लगते थे सुंदरलालजी, पर लोग सोचते, “”पता नहीं किस जमाने के हैं? इनके मुंह खोलने से क्या फायदा? बेहतर है कि चुपचाप ही रहते है, बोलते थे तो बस हमको परेशान करते।””

इस तरह से सुंदरलालजी झूला, हवा, ठंडक, छाया देने तक ही सीमित हो गये। बाद में लोगों को थोड़ा शक तो होने लगा किन्तु इनके खानदान के लोग इस परिवर्तन के बारे में कुछ न कह सके, कारण है कि किसी को सुंदरलालजी के रहन-सहन के बारे में फिक्र न थी। सिर्फ बच्चे यह न भूल सके कि वह आंगन में बैठे रहे। इनको कब से खाना नहीं मिलता इस बात को अब कोई नहीं बता सकता। खामोश तो थे, मांगते कुछ न थे। इस तरह से किसी दिन पता चला कि सुंदरलालजी सचमुच एक वृक्ष बन गये हैं। पर यह कब और कैसे, यह कोई न बता सका।

पूरे गांव को इस बात पर जरूर बड़ा ताज्जुब हुआ। आंगन में पहले कोई वृक्ष न था यह सभी जानते थे। अब इस वृक्ष की शाखा-प्रशाखा ऐंठ सुंदरलालजी की नाक, मुख का आभास देती थी। और उससे ही घर वाले इन्हें पहचानते थे और जब बाहर वाले कहते कि यह बरगद का पेड़ है तो घर वाले कहते, “”नहीं, पेड़ नहीं है, बाबाजी हैं, पितामह हैं।””

घर वाले अब वटवृक्षरूपी बाबाजी की देखभाल अचानक करने लगे। गर्मियों में रोज रात को उनके आसपास की मिट्टी को पानी देने लगे और हमेशा परेशान रहते कि कहीं गाय-बकरी इनके पत्ते तो नहीं खा गई। हां, खानदान वालों ने यह जरूर महसूस किया कि बाबाजी के बारे में पहले से ख्याल न रखकर कहीं गलती तो नहीं की।

इस तरह बरगद आंगन में फलता-फूलता रहा और साथ ही सुंदरलालजी की मृदुलता की यादें जीवित रहीं और लोग इनका गुनगान करते रहे।

इस तरह से बाबाजी के वृक्ष बनने की विचित्र कथा फैलती रही। पूरे गांव को इस बात पर गर्व भी होने लगा। वृक्षस्वरूप सुंदरलालजी को जो ध्यान दिया करते थे, वह मनुष्यरूपी बाबाजी को कभी न मिला। और फिर पूरे जिले के लोग दर्शन करने आने लगे। इस जादू के करिश्मे की वार्ता का पाठ होता था और साथ में धीरे-धीरे लोग बरगद के नीचे बैठे रहे और भजन गाने लगे। फिर बाबाजी का यश इस तरह से फैलने लगा कि शहर में भी लोग आने लगे और अखबारों में बरगद का चित्र छपता था। अचानक गांव के लोग बाबाजी की बहुत कहानियां बताने लगे और वे सब अब इनकी बहुत यादें रखते थे।

पर किसी ने ठीक से याद नहीं किया कि मनुष्यरूपी सुंदरलालजी का ध्यान किसी ने उस वक्त क्यों नहीं किया और अब इनके यश की सीमा न था।

शाकर बाबाजी के खानदान वाले बेवकूफ न थे। आखिर बाबाजी कौन थे और बरगद अब कहां फलता-फूलता था? आंगन जिसमें अब लोग जमा करते थे, वह तो उनका था और भक्तों की भीड़, दिन-रात का यह तमाशा किसको परेशान करता था? पूरा गांव इसके यश का फायदा उठाने के लिये तैयार था, क्या सिर्फ इन्हीं के वंश के लोगों को इसका नुकसान भोगना पड़ता था? फिर जब किसी ने मजाक में सुझाव दिया कि आंगन के प्रवेश के लिये टिकट बेचना तो वह सुझाव घर वालों को एकदम बेवकूफाना न लगा।

और किसी दिन दीवारें और किवाड़ के सामने छोटा-सा एक टिकट कक्ष, अब से प्रसाद के लिये प्रवेश करने वालों को डोनेशन की रसीद चाहिये थी। नहीं तो आंगन में प्रवेश न हुआ और बरगद के सामने कोई पुजारी बैठते रहे और लोगों को माथे पर तिलक लगाने लगे और आंगन से सटी हुई दो-तीन छोटी-सी दुकानें भी खुलने लगीं।

और लोग रसीद लेकर आते रहे। किसी को यह तरक्की अजीब नहीं लगी, सिर्फ यह बात थी कि दूसरे गांव वालों को ईष्र्या होने लगी और यह खासकर तब, जब दो-तीन विदेशी भी दिखते थे। उनमें एक बाबाजी पर “शोध-प्रबंध” लिखने की बात कर रहे थे और उनके शहर से आये हुये सहायक गांव के हर एक से अजीब ढंग से सवाल पूछने लगे और हर एक के साथ चाय पीने लगे।

इस तरह, सुंदरलालजी जो आंगन में थे, पिता या पितामह, दादा या नाना थे, वह खानदान वालों के लिये सोने की खान साबित हो गये। इसलिये घर में सुख-सुविधा की हर चीज आ गई। सुंदरलाल के घर वाले चालाक तो थे ही, लेकिन बाबाजी का मंदिर बनवाने का ख्याल इनको मन में नहीं आया। बिना कुछ किये घर ही में दिन-रात लोगों का तांता लगा रहता था। इसलिये बाबाजी की पूजा करवाने का ध्यान जरूरी न था। पर पुजारी महाराज कहने लगे कि इधर के लोगों के लिये यही ठीक है, पर जो भक्त बाहर से आते हैं, इनके लिये विशेष प्रबंध आवश्यक है और वटवृक्ष के सामने छोटा-सा एक मंदिर बना, जिसमें बाबाजी की एक नई फैशन की सुंदर-सी एक तस्वीर रखी गई। इसी क्रम से कई साल बीत चुके थे। बरगद पर हर साल शाखा-प्रशाखाओं की कोपलियां फूट रही थीं। नई-नई जड़ें जो पेड़ के वजन को धरती में संभाले रहती थीं वह भी खंभे बन गईं। इस तरह से छोटे कद के पेड़ से बड़ा ही एक पेड़ बन गया। और जो लोग बाबाजी को पहले से जानते थे, वे खुद बूढ़े हो चुके थे। अब बाबाजी की हर तरह की कहानियां प्रचलित थीं जो गांव वाले लोगों को खूब बताते थे। इस प्रकार सुंदरलालजी का बरगद बनना केवल एक ही बार का समाचार नहीं रहा बल्कि कुछ न कुछ नया होता ही रहता था। अब हो सकता है कि लोगों ने कुछ पानी-वानी चढ़ाने की कोशिश भी की हो! पूजा की पद्धति बनती रही और यह सिलसिला जारी रहा। साथ-साथ सुंदरलालजी उनके खानदान वालों के लिये खुश रहे। पूजा-पाठ के दान, तस्वीरों और इस तरह की छोटी-छोटी बिकाइयों और रेस्टोरेन्ट की कमाई से धर्म के ठेकेदार अमीर बन गये। हर एक अब बाबाजी को संत मानता था। किसी को इनकी शाखा-प्रशाखा को तोड़ने की हिम्मत नहीं थी। पुजारी के सहायक इसका ध्यान करते थे। बरगद बढ़ता रहा। बड़ा आंगन तो था, पर अंत में बरगद की बढ़ाई के कारण से जगह कम होने लगी। जमीन जाने वाली जड़ें फूटती गईं। छोटा-सा मंदिर कई बार दूसरी जगह पर रखना पड़ा। किसी दिन बरगद की कुछ शाखाएं दीवार पार करके आंगन के बाहर के अंदर में जगह अब बहुत कम होने लगी। साथ में खानदान का विस्तार भी होता गया। इस मामले में कि इसका कुछ बंदोबस्त उन्हें करना है, उन्हें पहले यह ख्याल नहीं आया।

धीरे-धीरे खानदान वाले सोचने लगे और जगह मांगने लगे। पर बरगद की शाखा कैसे काटी जा सकती थी। अंत में कहानियों में हर शाखा सुंदरलालजी की बाजू बताई गई थी। बाजुओं के इधर-उधर फैलने तथा स्वयं वनस्पति बन जाने का सुख सुंदरलालजी भोग रहे थे। वनस्पति बन जाने का सुख भोगना – यह शायद अपने आप में एक अजीब बात है। पर लोगों की कल्पना इस तरह थी। यदि वास्तव में हम ऐसा कर पायें तो कितना अच्छा होगा। हम पेड़-पौधे, घास, झाड़ी, इनका दुख और सुख शायद समझ पायेंगे। पर सुंदरलालजी के लोगों ने इनके पेड़ में परिवर्तित होने को महज एक व्यापार तथा पैसे कमाने का जरिया बना लिया। पहले बरगद के साथ सुख-से रहते थे। मामूली मकान में रहते थे और आने-जाने वाले भक्तजन से उनको कोई तकलीफ न थी। बाद में दो-मंजिल वाली एक हवेली बनाई गई थी। जिसका द्वार दूसरी तरफ से था। तब आंगन में भक्तजन और धर्म के ठेकेदार ही आते-जाते थे और इस तरह से हर एक अपना-अपना धर्म और कर्म पूरा करता था। फिर हवेली में नई पीढ़ी के साथ नये लोग भी आते गये। गांव में दो-तीन इस तरह की दो-मंजिल वाली हवेलियां तो थीं, पर यह सब देहाती तरीके की बनी थी। पुरानी और देखने में एकदम साधारण लगती थीं, दीवारें कच्ची तो जरूर थी, पर गर्मियों में कमरे ठंडे रहते थे, पंखे का तो सवाल ही नहीं उठता था।

अब घर वालों के मन में इच्छाएं बढ़ती रहीं। वे चाहते थे कि शहरी जिन्दगी का सुख भोगें। गांव के मकान में रहना उनके लिये मुश्किल होने लगा और औरतें तंग करने लगीं। मर्दों के साथ इसके बारे में झगड़ा मचाया गया। इस पर कुछ समय के बाद फैसला हुआ कि नया एक मकान बनाया जाये और मिस्त्री बुलाया गया, जो उधर का सबसे पहला वास्तुकार था।

मिस्त्री को सबसे पहले समझना पड़ा कि बरगद को कुछ काटना है इस पर वह कहने लगा कि, “”अरे, यह तो बाबाजी का घर है। और इनका ही स्वरूप है यह बरगद। दूर-दूर से लोग दर्शन करने आते रहते हैं। इसे कैसे तोड़ोगे?”” बहुत समझाने पर ही मिस्त्री तोड़ने को तैयार होने लगा।

जमीन खरीदने की बहुत परेशानी थी, इसलिये बरगद तोड़ने की बात होने लगी। पुराने जमाने में आसपास खेती होती थी। अब उसके आसपास मकानों और झोपड़ियों के अलावा कुछ न था। इसलिये आसपास में जमीन तो नहीं मिली। पर यह भी हो सकता था कि बड़े-बूढ़ों ने ज्यादा मेहनत नहीं की। दबाव करने पर कुछ न कुछ जरूर कर सकता था, पर शायद वहीं रहने की आदत हो गई और अंदर ही अंदर में नये फैशन का मकान बनाना पसंद नहीं था। गांव से कहीं बाहर रहने को कोई राजी नहीं था। पर अब नई पीढ़ी शहर में मकान बनाने का सुझाव देती रही। पहले कोई मानने के लिये तैयार तो नहीं था, पर कुछ ही दिनों में आपस में खूब बहस होती रही। हरेक अपनी-अपनी राय देता रहा और ऊंची आवाजें सुबह से शाम तक घर से बाहर सुनाई पड़ने लगीं। आपस में झगड़ा होने लगा। सारे गांव को यह तमाशा अजीब लगने लगा और लोग मजाक करने लगे, पुजारी को बिल्कुल ठीक नहीं लगा। पर इसी हाल में पुजारी की बात सुनने के लिये कौन तैयार था।

उन दिनों दर्शन करने वालों की संख्या कम होने लगी और बाबाजी की वीरगाथा गाने वालों का जोश वैसे ही कम होने लगा। इसका दोष एक-दूसरे पर लगने लगा। इसी बीच “हम सब भाई-बहन हैं” जैसी आवाजें जरूर कम न थीं। चेहरे लाल-पीले होते जाते थे और हर तरह की निंदा अब होने लगी। अब उनको यह भी नहीं पसंद था कि पूरे आंगन में जगह नहीं थी। अगर बरगद इस तरह से बढ़ता रहता है तो जल्दी में मकान में भी कोई नहीं रह सकता।

जो दर्शनकारी इस बीच में रह गये वे अब कहने लगे कि अरे देखो, यादववंशी अब नशे में एक-दूसरे को मारने पर तुले हैं और उस मकान से दूर हटने लगे। ज्योतिषी का कहना था कि नक्षत्र बहुत खराब दिखते हैं। इस पर गांव के हिन्दू और मुसलमान पूजा-पाठ और नमाज करने लगे कि गुनाह जरूर हुआ है, पर गुनाहगारों को बख्श दो। उस वक्त बाबाजी के घर वाले बिल्कुल पागल बनकर बरगद की शाखाएं तोड़कर इससे आपस में मार-पीट करने लगे। विचित्र बात यह थी कि किसान, संघ वाले, सीपीआई के मकार्मा दफ्तर आने लगे, पर वहां भी आवाजें धीमी होने लगी।

सुंदरलालजी के पेड़ बनने की वजह से उनका खानदान अमीर हो गया था। गांव में ये लोग ही सही रूप से अब अमीर थे और उनके पैसे की आवाज के सामने कोई आवाज न उठती थी और जब इन लोगों का आपस में यह हाल था तो गांव की भगवान जाने।

इसी हाल में एक दिन एक चमचमाती फस्र्ट क्लास गाड़ी बाबाजी के घर के सामने रुकी। आगे ड्राइवर और पीछे कोई बड़े साहिब बैठे थे। गाड़ी को तंग गलियों से गुजरने में परेशानी हुई। इस पर सारा गांव बहुत प्रभावित तो जरूर हुआ। “इधर हवाई अड्डा पास में नहीं है इसलिये गाड़ी में आना पड़ा।” ऐसा गांव में लोग कहने लगे। और समझने लगे कि शायद प्रधानमंत्री की ओर से भेजी गई एक गाड़ी है। जब गाड़ी गली में उसी आंगन के सामने रुकी, तो पहले शानदान फैशन पहनने वाला ड्राइवर निकला और साहब का दरवाजा खोलने लगा। गाड़ी की बात सुनकर पड़ोस में रहने वाले लोग सब दर्शन करने आये। सब लोग चुप रहे और कुछ बड़े-बूढ़े लोग स्वागत करने लगे, पर साहब अचानक हंसते हुये सबसे हाथ मिलाने लगा। इस पर लोग आपस में पूछने लगे, “यह कौन आदमी है?” पहले ड्राइवर से पूछने की हिम्मत किसी को नहीं हुई। मिठाई वाला कहने लगा कि रास्ता इन्होंने हमसे पूछा। पर बाबाजी वाले जानते थे। अरे, वास्तुकार है, वास्तुकार। कांग्रेस पार्टी का है। लोग बस यही समझते थे कि कोई बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति आया है और बाबाजी को दर्शन के लिये आये। पर सीधे बाबाजी को घर वालों के साथ मिलने गये – ड्राइवर गाड़ी में बैठकर अखबार पढ़ने लगा और गाड़ी लोगों की दिलचस्पी का मामला रहा। बीच में गाड़ी के आस-पास से बच्चों को हटाने में परेशानी हुई, पर किसी के कहने पर जवाब नहीं देता। और किसी से चाय नहीं मांगता। ऐसे जताया कि कुछ सुनता ही न हो। वैसे पहले भी कई गाड़ी वाले जरूर आ चुके थे। बाबाजी के दर्शन के लिये लेकिन इस बार बात बिल्कुल अलग थी। बड़ी अजीब बात यह थी कि बाबाजी से मिलने नहीं। पर बाबाजी के घर वालों से मिलने आये थे।

जब तक कुछ दिन बाद गांव वालों ने बाहर से आया हुआ लकड़हारा आता देखा तो बात खुल गई कि बरगद कटवाकर घर को तुड़वाया जा रहा है। गांव वालों को पहले विश्वास नहीं हुआ। चकित जरूर हुये। भला बरगद काटना, बाबाजी को काटना है। कौन करेगा यह पाप? पर बाबाजी के अपने लोग कुछ सुनने और समझते नहीं थे और बिना नया मकान बनवाये उनका झगड़ा खत्म नहीं होने वाला था। इसलिये पेड़ कटवाना जरूरी होने लगा।

कहते थे, इस गांव को सही ढंग से शानदार बना रहे हैं। आजकल बाबाजी के दर्शन के लिये कौन आता है। छोड़ दो इस बात को। क्या इस गांव में और कोई मंदिर-वंदिर नहीं है? जिलाधिकारी भी यही कहता है। देखो, सुंदरपुर आजकल देहाती नहीं है। शहर बढ़ता जाता है। सभी जानते हैं कि यह गांव कुछ ही दिनों में शहर के अंदर में एक मुहल्ला बनेगा। खेती-बाड़ी अब भी कम होती जा रही है। इधर डिपार्टमेंट स्टोर बनेगा, डिपार्टमेंट स्टोर! इसमें दुकानें बहुत होंगी। हर चीज़ सस्ते में मिल जायेगी। बाहर से लोग खरीददारी करने आयेंगे। न सिर्फ दूसरी मंजिल, तीसरी और चौथी भी होंगी। वास्तुकार ने सब कुछ समझाया।

गांववाले यह सुनकर चुप रह गये। फिर किसी ने पूछा, “”कैसे काटेंगे बाबाजी का बरगद?”” साथ में कुछ आर्य समाज के लोग थे, जो बाबाजी का पेड़ बनना न मानते थे। पर उनको भी पेड़ काटना ठीक नहीं लगा। “”सभी को फायदा होगा। पूरा गांव तरक्की करेगा। समझा।”” पर बाबाजी के लोगों को भी पूरी बात कुछ अजीब लगी। पर जमीन उनकी ही थी और फैसला किया गया था। इस तरह से बात खत्म होती रही।

गांव वाले एक तरह से राजी नहीं हुये। जो कहता था कि बरगद काटना ठीक नहीं, बाबाजी का स्वरूप हो या नहीं हो, पर डिपार्टमेंट स्टोर बहुत बड़ी बात थी और लोग अपने को समझाकर कहने लगे कि ये लोग ठीक करते हैं। वक्त बदल रहा है। गांव में जरा-सी तरक्की आये तो अच्छा है। बाल-बच्चों का भी ख्याल रखना तो चाहिये। और बरगद की बढ़ाई पिछले सालों में बहुत थी। देखो, अब पूरे आंगन में बरगद की शाखाएं फैली पड़ी थीं और जमीन को छूने के कारण वहां भी जड़ें फैलने लगीं। दीवार के बाहर भी कुछ झोपड़े जड़ों से सट चुके थे। छोटा-सा मंदिर जो पहले आंगन में ही रखा गया था अब दीवार से बाहर मिलता था और एक बूढ़ा पुजारी मुश्किल से उठकर दिन में कई बार बाबाजी की सड़ी हुई तस्वीर के सामने पूजा-पाठ तो जरूर करता, पर कुछ दिनों से बाबाजी के लोगों से बात नहीं हुई। पर सुंदरलालजी के जैसे बच्चों के साथ हंसने-खेलने लगे। जब उनको बरगद को काटने की बात पता चली, तो गुस्से में नहीं आये। “कलियुग तो है, बाबाजी,” ऐसा कहकर अपनी गंदी धोती संभालकर खाट पर बैठ गये। पुजारी के अपने बच्चे नहीं थे, बीवी अब भी नहीं थी। बहुत सालों से बाबाजी की पूजा करते थे और मंदिर के साथ लगी हुई किसी छोटी-छोटी झोपड़ी में रहते थे। पहले जब बहुत लोग आते थे तब हाल बिल्कुल अलग था, पर आज जब से यही हाल रहा तब से मुश्किल थी।

पहले प्रवेश के लिये जब दान करना पड़ा, तब पुजारीजी को हर महीने में वेतन भी मिलता था। अब कोई इनसे कुछ नहीं पूछता और कोई इनकी राय पर ध्यान नहीं देता। पड़ोस में रहने वाली औरतों की कृपा पर रहते थे।

खैर, फैसला यह हुआ कि बरगद कटवा दिया जाये। पर सवाल यह था कि गांव में कौन इस काम को करने के लिये तैयार था। गांव के लकड़हारे कहने लगे कि जरूर काटेंगे पर बाबाजी को कैसे काटें? फिर बाबाजी के लोगों में बहस यह हुआ कि मुसलमान लोग जरूर काटेंगे, इनसे पूछें। पर जो मुसलमान गांव में थे। वे भी इस काम के लिये तैयार नहीं थे। इसलिये बाहर से लकड़हारों को बुलाना पड़ा। उस वक्त मालूम नहीं बंदरों को यह बात कैसी सूझी, पर ये सब एकदम चले गये।

इस बीच में बरगद कट गया होगा या नहीं, इसका जवाब आप ही देंगे। नई पीढ़ी आ गई होगी। पुजारीजी गुजर गये होंगे और बरगद की कुछ ही यादों के अलावा कुछ और बाकी नहीं है। यह भी हो सकता है कि अंत में जमीन का पानी कम हो गया होगा और फिर हरियाली सूखकर अपने आप से मर गई होगी। फिर गांव वाले अपनी जमीन को छोड़कर किसी शहर की किसी बस्ती में आ गये होंगे। इसकी कल्पना आप ही कर सकते हैं। मैं सिर्फ यही बात कह सकता हूं कि हमारे सुंदरलालजी किसी दिन सही रूप से एक बरगद में परिवर्तित हुये और इस बात से इनके लोगों ने अपना फायदा ढूंढ़कर सुंदरलालजी को नुकसान पहुंचाया और सुंदरलालजी मौन ही रहे और किसी दिन विदा न लेकर ऐसे ही चुपचाप चले गये।

बस अब यह बात है कि निश्चित रूप से कह सकता हूं कि सुंदरलालजी अब नहीं है…।

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