बेइन्तहा मुहब्बत

सच है, मैंने किया है तुमसे अटूट प्रेम
बेइन्तहा मुहब्बत
ले ली है दुनिया भर से लड़ाई
पर जुनून ही न हुआ तो मुहब्बत कैसी
सच है, मैंने दीवानावार चाहा है तुम्हें।

हालांकि, मैं नहीं हुई शामिल कभी
तुम्हारे नाम पर निकाले जलसे-जुलूसों में
नहीं लगाए तुम्हारे नाम के नारे
पर टस से मस नहीं हुई अपने उसूलों से
मुश्किल कर ली मैंने अपनी जिंदगी
मगर अकेले दिए-सी
जलती रही मेरे प्यार की लौ
यकीन करो, ईमानदारी भी जरूरी है
सच्ची मुहब्बत के लिए!

विश्व बाजार में
एक ग्राहक से अधिक है मेरी हैसियत
इसलिए कभी देखा नहीं
चाइना बाजार की तरफ,
यकीनन कठिन होगा
होगा महंगा
पर मुझे भाया स्वदेशी सामान
स्वदेशी भाव।

अवसर की तलाश में
पलायन करने के बदले
बुलाते रहे मुझे घरेलू उद्योग,
बेआवाज चलती विदेशी मशीनों की
तेज रफ्तार से कहीं ज्यादा
लुभाता रहा मुझे
लयबद्ध चलता लकड़ी का चरखा
और खड्डी की आवाज।

स्वाभिमान से भरता रहा
हाथ से काता खद्दर,
डायमंड कट वाले कांच के बरतनों से
ज्यादा भाते रहे
भट्टी में पकाए मिट्टी के कुल्हड़!

पेट्रोल की धौंस को दरकिनार कर
साइकिल से तय कर लेना
लंबी दूरियां भी होता है
इजहारे मुहब्बत,
लिखती हूं मैं भी
देसी जूते की ठाठ पर
स्वावलंबन के गीत।

और हां,
अपनी भाषा को प्यार करना
बोलना अपनी मादरे जुबान भी
भरती है मुझे
मुहब्बत के अहसास से।
सुनो, बंदगी से कम नहीं होती है
सच्ची आशिकी,
धर्म और मजहब से ऊपर होती है
मिट्टी से मुहब्बत,
मंत्र और अजान से बढ़कर होता है
देशभक्ति का गान।

भले ही मैंने सरहद पर जाकर
बंदूकें नहीं थामीं
नहीं बरसाए तोप के गोले
मगर थामे रही
भीतर की बागडोर
जैसे घूमते पहिए से
निकल गई कील की जगह
फंसा रखी हो अपनी उंगली
कि लड़खड़ाने न पाए मेरा देश रथ।

ये बात और है
कि न मेरी जिंदगी पर कोई कहानी बनी
न हुई मेरी मौत पर कोई चर्चा,
किसी की बातों में
जिक्र तक न आया मेरा,
मेरी शहादत पर किसी ने
कोई गीत न गाया,
न ही मेरी देह को
तिरंगा ओढ़ाया।

पर यकीन करो
देश की मिट्टी में गुमनाम मिल जाना भी
होता है पाकीजा मुहब्बत का निशान,
सच्ची निष्ठा भी होती है
वतनपरस्ती
देश सेवा
और देश भक्ति।

*****

– अलका सिन्हा

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