अमेरिका के पटल पर हिंदी भाषा और साहित्य

अनिल प्रभा कुमार

यह एक तथ्य है कि वर्तमान समय में विश्व पटल पर भारतीय छाए हुए हैं। स्वाभाविक है कि उनके साथ उनकी भाषा, उनका साहित्य, उनकी परम्पराएं, उनका खानपान और रीति-रिवाज़ भी साथ-साथ चले आए। एक व्यक्ति अकेला कहीं नहीं स्थानतरित होता। वह अपने साथ प्रकट और अप्रकट रूप से अपना देश ही बांध कर ले जाता है। यदि नहीं ला पाता तो कम से कम लाने का पूरा प्रयास तो करता ही है। भारत से विदेशों में आकर बसने वाली पीढ़ी भी अपने साथ अपनी भाषा और उसके संस्कार लेकर प्रविष्ट हुई। आरम्भिक संघर्ष के बावजूद वे लोग न केवल अपनी भाषा से जुड़े रहे बल्कि उसे भविष्य में आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाने, उसे जीवित और समृद्ध रखने के लिए भी कटिबद्ध रहे।

नई परिस्थितियों और परिवेश के कारण विदेश में अपनी भाषा को जीवित रखना इतना सरल नहीं होता। आश्रय देने वाले देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने के प्रयत्न में कई बार उस देश की अन्य बातों की तरह उस देश की भाषा भी आपके ऊपर आधिपत्य ज़माने लगती है। स्पष्ट है कि नये परिवेश में जीविका उपार्जन के साथ साथ अल्प-संख्यक होने के कारण, अपने अस्तित्व को मान्यता और स्वीकृति दिलवाने के लिए भी आपको काफी हद तक उन्हीं में से एक दिखना पड़ता है। ऐसे में संशय रहता है कि कहीं आपकी अपनी भाषा की सार्थकता कमजोर न पड़ने लगे। इसके बहुत से कारण हैं। एक तो यह देश है बेगाना। यहां के लोग बेगाने , भाषा , संस्कृति , पहनावा, खान -पान और जीवन-मूल्य तक बेगाने। ऐसे में यहां हर क्षेत्र में काम करने के लिए

आपको आधिकारिक रूप से  उसी देश की भाषा सीखने, समझने और प्रयोग करने की अनिवार्यता बन जाती है।

नये देश की नई भाषा का सामान्य पुस्तक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। आपको उस भाषा का उच्चारण भी उसी देश के वासियों की तरह सीखने की आवश्यकता होती है। स्थानीय बोलचाल की भाषा की अपनी निजी शब्दावली भी होती है। उनके निजी मुहावरे, उनके अपने ही अर्थ और उच्चारण की अपनी विशिष्टता होती है। यह सब बारीकियां आपको पुस्तकों में कही नहीं लिखी हुई मिलतीं। विदेशी सामान्य जीवन में गहरे उतर कर ही यह भाषा की बारीकियां सीखनी पड़ती हैं।

अमेरिका में जो साठ -सत्तर के दशक में आप्रवासियों की पहली पीढ़ी आई उसे भी यहाँ आकार भाषा की नई ज़मीन तैयार करनी पड़ी। उन्हें भाषा के दो मोर्चे संभालने थे। एक विदेश की भाषा का बाह्य स्तर पर और दूसरा अपनी मातृभूमि  की ही भाषा और संस्कारों का आंतरिक स्तर पर। दोनों को ही संतुलन बनाकर साधने का सराहनीय प्रयास इन भारतीयों ने किया। बहुत कुछ तो यहां एक अच्छा जीवन जीने की बाध्यता से होता है। अबाध्य होता है अपनी भाषा के प्रति अटूट मोह। परस्पर भारतीयों में या अपने मूल स्थान , अपनी जड़ों  से जुड़े रहने में सम्प्रेषण के लिए आप अपनी भाषा के अतिरिक्त और कोई भाषा सोच ही नहीं सकते।

पहली पीढ़ी जो भारत से अमेरिका या यूरोप के किसी भी देश में जाकर बसी  उनके लिए हिन्दी एक स्वाभाविक सम्प्रेषण की भाषा थी। वह भारत से जुड़े हुए थे और हिन्दी भाषा से भी। यह अपनी  भाषा और संस्कृति का मोह इतना प्रबल था कि जहां कहीं भी जरा सी भी संधि पाई गई वहीं अपनी भाषा का बीज डालने के  प्रयास आरंभ हो गए। बहुत छोटे से प्रयास के रूप में स्थानीय भारतीय मंदिरों में पश्चिम के ‘संडे स्कूल’ की तर्ज पर हिन्दी की कक्षाओं का प्रादुर्भाव हुआ। पढ़ाने वालों ने तो बहुत उत्साह से इसमें भाग लिया ही उनसे भी अधिक उत्साहित थे वे माता- पिता जो अपने बच्चों को अपनी भाषा और संस्कृति के संपर्क में रखने के लिए प्रतिबद्ध थे। स्थानीय सभागारों में हिन्दी फिल्में, कवि-सम्मेलनों और त्यौहारों का आयोजन साथ ही  संगीत और नृत्य कार्यक्रमों में भारतीयों की उत्साहपूर्ण उपस्थिति, भारत से आए अतिथि कलाकारों के भव्य कार्यक्रम आदि ये सब लघु धाराएं थीं जो धीरे -धीरे समय के प्रवाह में सबल होती  गईं।

समस्या तब उत्पन्न हुई जब पटल पर दूसरी पीढ़ी उभरने लगी। इस पीढ़ी में अपनी भाषा के संस्कार और पकड़ उतनी सुदृढ़  नहीं रही। यह नई पीढ़ी हिन्दी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में सपने  देखती  थी। इनके मस्तिष्क में विचार पहले अंग्रेजी में आते थे फिर वह उसका अनुवाद हिन्दी में करने का प्रयास करते। जिन अभिभावकों ने अपने बच्चों से घर में हिन्दी में ही बातें की उन बच्चों की शब्दावली तो समृद्ध रही पर व्याकरण और लिपि की अनभिज्ञता बनी रही। तब भारतीय समाज सचेत हुआ कि हिन्दी भाषा और साहित्य को विलुप्त होने से बचाने के लिए कुछ प्रयास करना आवश्यक है। तभी सभी स्थानीय भारतीयों और सरकारी ,गैर सरकारी संस्थाओं के सहयोग से विश्व पटल पर हिन्दी साहित्य और भाषा को जीवित , जागृत और पल्लवित करने के गंभीर प्रयास आरंभ हो गए। इस बार जो भी प्रयास थे उसके पीछे मूल कारण था  कि युवा पीढ़ी के हाथ से कहीं अपनी विरासत की डोर ढीली पड़ कर छूट न जाए।

युवा होती दूसरी पीढ़ी के भारतीयों के पास अपनी पैतृक भाषा सीखने के पीछे अपने पृथक कारण थे।पहला तो यह कि वे अपने भारत में रह रहे सगे -संबंधियों के साथ संपर्क बनाए रखने के लिए , उन्हीं की भाषा में वार्तालाप  करने के लिए  हिन्दी सीखने के लिए उत्सुक थे। वे यह नहीं चाहते थे कि जब वे  भारत जाएं तो भाषा की अनभिज्ञता के कारण अपने परिवार और संबंधियों से कट जाएं।

दूसरा कारण था हिन्दी फिल्मों का ज़बरदस्त आकर्षण। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित करने के लिए हिन्दी फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। मेरे हिन्दी शिक्षण के दौरान बहुत से युवाओं ने मुझे बताया कि उनका हिन्दी भाषा सीखने के पीछे बहुत बड़ा प्रेरक तत्व यह है कि वे हिन्दी फिल्मों का मूल भाषा में ही आनंद लेना चाहते हैं , अंग्रेजी के उप-शीर्षकों के माध्यम से नहीं। यहां तक कि गैर भारतीय देशों के युवाओं और अमेरिकी छात्रों का भी बॉलीवुड फिल्मों के प्रति गहरा आकर्षण है। उसी आकर्षण में बंधे वे भी हिन्दी भाषा को सीखने के लिए लालायित होते हैं।

तीसरा और एक अन्य सकारात्मक कारण बना है – भूमंडलीकरण। भारत का एक आर्थिक दृष्टि से समर्थ राष्ट्र के रूप मे उभरना और वैश्विक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए , दक्षिण पूर्वी भाषाओं को प्रोत्साहन देने हेतु अमरीकी सरकार का प्रोत्साहन। राजनीतिक परिस्थतियों के कारण अमेरिका की सरकार को लगा कि  अब समय आ गया है जब मध्यपूर्वी देशों को भी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।भारत  विश्व का ऐसा देश था जो अपनी आर्थिक प्रगति के पथ पर बहुत तेजी से अग्रसर हो रहा था। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार , विद्वता और विश्व -शांति में सहयोग के लिए दोनों देशों में बेहतर संबंधों और अधिक घनिष्ठता की आवश्यकता थी। यह भी एक मूलभूत तथ्य है कि यदि किसी भी देश की संस्कृति या इतिहास  से परिचित होना है तो उसका एकमात्र माध्यम उस देश की भाषा ही होती है। भाषाएं आपके जीवन को समृद्ध करती हैं।इस बात को ध्यान में रखते हुए अमेरिकन विश्व -विद्यालयों में अन्य भाषाएं सीखने के लिए प्रोत्साहन दिया गया।

अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने वर्ष 2007 में कुछ अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी को भी अमेरिकी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाए जाने के लिए एक स्पष्ट और ठोस योजना प्रस्तावित की। भारत का आर्थिक रूप से एक समर्थ ईकाई के रूप में विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ते हुए आगे बढ़ना ,हिन्दी के महत्व पर बल देने के लिए एक बहुत बड़ा कारण है। भारत से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि इस देश को जाना जाए और जानने के लिए आवश्यक है वहां के जन-जीवन की भाषा को जानना। प्रमाण स्वरूप भारत की पारंपरिक भाषाओं के संरक्षण और प्रोत्साहन का वातावरण अमेरिका में तैयार हो चुका है। अब आश्चर्यजनक रूप से अमेरिका के विश्व -विद्यालयों में हिन्दी में रुचि लेने वाले और और अध्ययन करने के इच्छुक छात्रों की संख्या में वृद्धि भी हो रही है।कई निजी और सरकारी सहयोग से बने संस्थानों में हिन्दी के कार्यक्रम नियमित रूप से हो रहे हैं।

वर्तमान समय में तकनीकी विकास अपने चरम पर है। भारतीय प्रतिभा अपने योगदान के लिए अमेरिका के प्रत्येक क्षेत्र में विद्यमान है। जहां जहां भारतीय  बहुसंख्या में हैं वहीं वहीं एक छोटा सा भारत ही बस गया है। अमेरिका के जिन राज्यों में भारतीय लोगों की आबादी सघन है वहीं विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य की कक्षाएं, भारतीय धर्मों के मंदिर और गुरुद्वारे , खान पान से संबंधित दुकानें और रेस्तरां  और मुख्य सिनेमा भवनों में बॉलीवुड की फिल्मों का प्रदर्शन। यह सब विदेश में भी भारत की संस्कृति और समृद्धि की ओर इंगित  करता है। विदेश में , अमेरिका में तो हिन्दी की दशा भी अच्छी है और वह सही दिशा में भी जा रही है। संशय है तो भारत में हिन्दी के भविष्य को लेकर जहां हिंगलिश और अंग्रेजी का बहु उपयोग कई प्रश्न उठाने को विवश कर देता है। दूसरी ओर यह भी देखा गया है कि जब पाश्चात्य देशों में किसी बात को मान्यता दी जाती है तो भारत में भी उसका मूल्य और सम्मान बढ़ जाता है। जिस तीव्र  गति से  विदेशों में  हिन्दी का प्रचार और प्रसार हो रहा है उससे संभावना लगती है कि संभवत: अब यही सिद्धांत भारत में हिन्दी को प्रथम दर्जे की भाषा बनाने में सहायता करेगा।

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