अपना बसिंदा

आज कल न जाने क्यों
दिन घिसते-घिसते
रात हो जाती है
और रात – एक लम्बी बनवास
दिखाई देती है मुझे
ये सूरज चाँद सितारे
लेकिन दिखता नहीं क्यों
अपना बसिंदा आम का पेड़
जो सालों मे खड़ा
आँगन में हमारे
मिलती है
बदामी, केसर और तोतापुरी
मिलती है
रस भरी रसपुरी
लेकिन मिलता नहीं क्यों
अपना बसिंदा आम का पेड़
सुना है तूफान आने वाला है
माँ एक-एक आम गिन चुकी होगी
अगर विंस्टन से जान बच गई
तो एक नई कहानी बनेगी
लेकिन उस में
मैं न रहूँगा
मेरा अस्तित्व
न रहेगा
आऊँगा मैं एक दिन
इस वनवास के बाद
ये रात ढल जाने दो
सुबह हो जाने दो
आऊँगा मैं
फिर सात समुद्र पार
उस माटी के पास
जहाँ अपना बसिंदा है।।

*****

खेमेंद्र कमल कुमार

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