फीजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष
सुभाषिनी लता कुमार
पं. तोताराम सनाढ्य भारत से 1893 में एक करारबद्ध मजदूर के रूप में फीजी लाए गए थे। आपका जन्म 1876 में उत्तर प्रदेश के फ़िरोज़ाबाद जिला के हिरनगाँव में हुआ था। पिता के देहान्त के बाद उनकी सारी सम्पत्ति कर्ज देने वाले साहूकारों ने हड़प ली। माँ तथा छोटे भाइयों के जीवन-यापन के लिये पैसा कमाने के उद्देश्य से उनके बड़े भाई घर छोड़कर कलकत्ता चले गए। परिवार की दशा अत्यन्त दयनीय बनी रही जिससे तोताराम भी खुद को परिवार पर बोझ समझकर 1893 में घर छोड़कर काम की तलाश में बाहर निकल गए और धोखे से फीजी आ गए।
फीजी में बंधुआ मजदूर के रूप में उनसे काम कराया गया किन्तु वे अपने अधिकारों के लिए निडर होकर संघर्ष करते रहे। करार की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने एक छोटे किसान और पुजारी का जीवन शुरू किया और उसके साथ-साथ अपना अधिकांश समय उन लोगों की सहायता में लगा दिया जो बंधुआ मजदूर के रूप में वहाँ काम कर रहे थे। वे भारतीय नेताओं के सम्पर्क में रहे और भारत से अधिक शिक्षक, वकील, कार्यकर्ता आदि भेजने का अनुरोध किया ताकि फीजी के भारतीय लोगों की दुर्दशा को कम किया जा सके।
फीजी में 21 वर्ष रहने के बाद 1914 में वे भारत लौटे तथा फीजी में अपने अनुभवों को ‘फीजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। भारत के राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर इस पुस्तक के संबंध में कहते हैं-“ ‘फीजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष’ पुस्तक ने एक समय तहलका मचा दिया था। गुजराती में उसके अलग-अलग भार अनुवाद प्रकाशित हुए थे। इस पुस्तक के अनुवाद मराठी और बंगला में भी निकले थे। दीनबंधु एंडरूज़ ने इस किताब का अनुवाद अंग्रेजी में किया। यह रचना इतनी सफल रही कि इसे पढ़ने से यही अनुमान होता है कि पं. चतुर्वेदी जी फीजी आए थे, लेकिन सच तो यह है कि वे खुद फीजी नहीं गए। (विवेकानंद शर्मा.1979.Girmit- A Centenary Anthology 1879-1979. Ministry of Information, Fiji. पृष्ठ.2.)” एक गिरमिटिया श्रमिक के दृष्टिकोण से लिखी यह पहली कृति रही जो फीजी की करारबद्ध मजदूरी की प्रथा को समाप्त करने के लिए बहुत सहायक सिद्ध हुई।
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी के सहयोग से पं. तोताराम सनाढय ने प्रवास की त्रासदी एवं समस्याओं पर ‘फीजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष’ में अपने विचार रखे। इस रचना में फीजी द्वीप के प्रवासी भारतियों के अनुभव तथा दुख-दर्द को बहुत ही प्रभावशाली शैली में लिखा गया था जिससे उनकी रचना ने हिंदी जगत के बहुत से बुद्धिजीवियों, राजनेताओं तथा सामान्य जनता का ध्यान अपनी तरफ खींचा। यह पुस्तक कई भाषाओं में अनुदित भी हुई। इसके अतिरिक्त उनकी ‘बूतलैन की कथा’ भी गिरमिटियों के जीवन पर आधारित रचना है।