जोगिन्द्र सिंह कंवल : फीजी के प्रेमचंद

डॉ. सुभाषिनी लता कुमार

स्वर्गीय श्री जोगिन्द्र सिंह कंवल एक महान लेखक, अद्भुत व्यक्तित्व और सामान्य रूप में शिक्षा और समाज में योगदान देने वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। वे फीजी के प्रमुख लेखकों में से एक हैं। भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में उनका कहना था- “मुझे भाषा से इश्क है।’’ यह भाषा के सम्बन्ध में उनकी उत्साहवर्धक उक्ति रही है जो प्रवासी भारतीय युवा पीढ़ी के लिए प्रेणादायक साबित हुई। फीजी में व्यवस्थित रूप से उपन्यास लेखन का प्रारंभ श्री जोगिन्द्र सिंह कंवल की औपन्यसिक कृतियाँ ‘सवेरा’, ‘धरती मेरी माता’, तथा ‘करवट’ द्वारा हुआ जो फीजी में हिंदी गद्य साहित्य की ऐतिहासिक कृतियाँ हैं, जिनमें लेखक ने फीजी के प्रवासी भारतीयों की कठिनाइयों और उनकी महत्वाकांक्षाओं को विविध अनुभावों के सहारे कथा-सूत्र में पिरोया है। उनकी रचनाओं ने हमेशा फीजी के जन जीवन का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है और इसीलिए उन्हें फीजी का प्रेमचंद कहते हैं।

        जोगिन्द्र सिंह कंवल का जन्म 1 दिसम्बर, 1927 ई. को भारत के पंजाब राज्य के जलंधर जिले में झिक्का नामक गाँव में हुआ। उनके पिताजी का नाम सरदार चानण सिंह तथा माँ का नाम बंत कौर है। उनके पिताजी अपनी पत्नी और अपने दोनों बेटों को छोड़कर सं 1928 में फीजी आ गए थे। श्री कंवल ने अपनी शिक्षा भारत में ही पूरी की। वह शुरू से समाज की सेवा करने में रुची रखते थे। सं 1947 में भारत में जब धार्मिक मतभेद के कारण विभाजन हो रहा था, तब श्री कंवल जी ने अध्ययन करते हुए शरणार्थी शिविरों की मदद की थी। उन्होंने कला स्नातक में अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में डिग्री प्राप्त की और फिर उन्होंने अमृतसर पंजाब में अपनी मास्टर ऑफ आर्ट्स में डिग्री प्राप्त की। आगे चल कर उन्होंने सं 1955 में चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुवेट टीचर्स कॉलेज में दाखिला लिया और उसी वर्ष उन्हें नए स्थापित कॉलेज में पढाने लगे। तीन साल बाद वे अपने पिताजी की सलाह पर फीजी आ गए और यही बस गए थे।

       कंवल जी सन् 1958 में अपनी माँ, मातृभूमि, पत्नी अमरजीत कौर, प्रिय गाँव झिक्का की गलियों, मित्रों और शुभचिंतकों की फौज को पीछे छोड़कर फीजी के लिए रवाना हुए जो उनके लिए बहुत कठिन दौर था। फीजी में उनके पहले कुछ सप्ताह बहुत कठिनाई से बीतें। वह बहुत बेचैन, अस्थिर एवं अशांति महसूस करते थे। यह नया देश, नए लोग एवं यहाँ के वातावरण में वे बहुत अजीब महसूस करते थे। यहाँ सब उनके लिए भारत से भिन्न था और यह उनके लिए बहुत अजीब था। उनकी स्थिति जैसे ‘बिन पानी मछली’ सी थी और अपने इस अनुभव को उन्होंने ‘माई रूट्स’ नामक निबंध में दर्शाया है। फिर धीरे-धीरे कंवल जी ने फीजी को अपना घर बना लिया था और शिक्षा, साहित्य, संस्कृति और कई अन्य क्षेत्र में उन्होंने बहुत योगदान दिया है। उनका विवाह फीजी की सुप्रसिद्ध साहित्यकारा एवं कवयित्री अमरजीत कौर के साथ हुआ। उनके चार बच्चे है; दिलजीत, हरप्रीत, सरबजीत और सतप्रीत। उनके पास एक दमाद बलदेव और दो बहुएँ भी है, रंजिनी एवं शर्मीला। उनके पास सात पोते और पोतियाँ भी हैं; पवन, अमन, सिमरन, अनु, प्रशांत, विक्रांत और नवप्रीत। अफसोस की बात है कि उनकी मृत्यु एक बीमारी के चलते सं 2017 में हो गई। उनके परिवार का कहना है कि उनके जाने के बाद आशियाना निवास (वरंडोली, बा में उनका घर) अब पहले की तरह नहीं रहा।

          श्री कंवल जी जब भारत से फीजी आए थे तब सं 1950 में डी.ए.वी कॉलेज में वे शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। सं 1960 से सं1987 में फिर उन्होंने बा के खालसा कॉलेज में प्रधानाचार्य का पद संभाला। वह 27 वर्ष तक खालसा कॉलेज से जुड़े रहे। श्री कंवल जी ने खालसा कॉलेज की स्थापना और उसके विकास के लिए बहुत कष्ट सहे। लोगों का मानना है कि वहाँ की दीवारों में उनकी आवाज़ गूँजती है। सं 1987 से सं 1991 तक फीजी इंस्टयुट ऑफ टेक्नोलोजी में बिज़नेस कम्यूनिकोशन और अंग्रज़ी के प्राध्यापक थे। श्री कंवल जी ने सं 1993 से लेकर सं 2003 तक फीजी भारतीय कल्चर सेंटर के प्रशासक का पद भी संभाला था। वह कई अन्य संस्थाओं से जुड़े थे तथा अध्यक्ष भी रह चुके थे जैसे कि वह ‘बहुजातिएं सांस्कृतिक परिषद’, फीजी प्रिंसिपल एसोसिएशन और सिख एजुकेशनल सोसाइटी ऑफ फीजी। इसके अलावा श्री कंवल जी कुछ संस्थाओं के सदस्य भी थे जिसमें शामिल हैं;  फीजी टीचर्स यूनियन और कॉमनवेल्थ कांउसिल फॉर एजुकेशनल एडमिनिसेट्रशन। वह विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़े हुए थे। वह बा शहर में जस्टिस ऑफ पीस भी रह चुके हैं।

           श्री कंवल जी की व्यक्तित्व के विषय में जितना कहा जाए, उतना कम है। वह एक महान शिक्षक थे। उन्होंने खालसा कॉलेज की स्थापना की और उसे एक सफल कॉलेज में विकसित किया। श्री कंवल जी ने वहाँ पर 27 वर्ष तक प्रधानाचार्य के पद पर सेवा प्रदान की जिससे उनका समर्पण, दृढ़ मूल्यों, और इच्छा शक्ति झलकती है। वह बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति थे जो युवा पीढ़ी को शिक्षित करने में रुची रखते थे। उन्होंने कभी भी सीखना और प़ढ़ना बंद नहीं किया। यह उनके पुस्तकालय में किताबों की संग्रह देखने से पता चलता है। उनमें शामिल है अंग्रज़ी, हिन्दी, पंजाबी और उर्दू की बहुत सारी किताबें। यह उनके पढ़ने और लिखने के अतृप्त जुनून को दर्शाता है। श्री कंवल जी ने अवकाश ग्रहण करने के बाद भी काम करना जारी रखा और अपने लिखने के जुनून को आगे बढ़ाते गए। वह आशावादी और रचनात्मकता की भावना को दर्शाते थे जो उनके काम और औपन्यासिक कृतियों में परिलक्षित है। उसमें हास्य की अद्भुत भावना थी जो कई लोगों को याद रहेगी। लोग उन्हें सोने का दिल रखने वाला व्यक्ति कहते थे क्योंकि जो कोई भी उनके पास मदद माँगने को जाते थे तो वह उसकी सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। श्री कंवल जी एक सच्चे सिख थे जो न्याय करने में कभी भी जल्दबाजी नहीं करते थे।

          श्री कंवल जी को शिक्षा, भाषा, और साहित्य के क्षेत्र में अनेक योगदान के लिए फीजी, भारत, और न्यूयोक में भी विभिन्न पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित किया गया। फीजी में उन्हें कई सम्मान से सम्मानित किया था जिसमें साऊथ पैसीफिक विश्वविद्यालय ऑवार्ड (1978), फीजी टीचर्स युनियन प्रशंसा पत्र (1980), फीजी के राष्ट्रपति द्वारा ‘ऑडर ऑफ फीजी’ नैशनल ऑवार्ड (1995) और फीजी हिन्दी साहित्य समिति सम्मान (2001) शामिल है। उनको भारत में कई पुरस्कार से सम्मानित किया जो है; उत्तर प्रदेश (भारत) हिन्दी संस्थान पुरस्कार (1978), प्रवासी भारतीय परिषद पुरस्कार, अमरोहा, भारत (1981), भारतीय संस्कृति संवर्धन परिषद, नई दिल्ली, भारत (2001) और विश्व हिन्दी सम्मान (2007) आदि। सं 1984 में श्री कंवल जी को साहित्य के क्षेत्र में अनुकरणीय सेवाओं के लिए बा टाऊन काऊंसिल की ओर से उत्कृष्ट नागरिक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

            श्री कंवल जी की कलम में एक अद्भूत शक्ति थी। वह जानते थे कि भावनाओं को कैसे अभिव्यक्त किया जाता है और दूसरों के कष्टों और पीड़ाओं को कैसे कलात्मक रूप से लिखा जाता है। श्री कंवल जी ने अपनी लिखने की यात्रा ‘मेरा देश मेरे लोग’ निबन्ध संग्रह से शुरू किया था। उसमें उन्होंने फीजी के जनजीवन पर लिखा है। उसके बाद उन्होंने कई सारी रचनाएँ की जिसमें उपन्यास सवेरा (1976), धरती मेरी माता (1978), करवट (1979) और सात  ‘सात समुद्र पार’ (1983), आदि रचनाएं हिंदी भाषा, साहित्य और प्रवासी शोध अध्ययन के लिए बहुमूल्य हैं। है। उन्होंने कहानी संग्रह भी लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘हम लोग’ (1992)। श्री कंवल जी ने कहानी और उपन्यास के साथ-साथ कविता संग्रह की भी रचना की जिसमें शामिल हैं, यादों की खुशबू, कुछ पत्ते कुछ पेखुड़ियाँ, दर्द अपने-अपने और हिन्दी काव्य साहित्य। उन्होंने अंग्रज़ी में भी साहित्य सृजन किया था जिसमें द मोरनिंग, दी न्यु माएग्रेंटस, अ लव स्टोरी और मेनी रेइनबोस ऑफ लव। श्री कंवल जी इन रचनाओं के अलावा फीजी के अंग्रज़ी समाचार पत्र ‘द फीजी टाइमस’ में भी अपना लेख दिया करते और उसके साथ फीजी के स्थानीय भाषा हिन्दी समाचार पत्र ‘शान्ति दूत’ में भी अपना लेख दिया करते थे। वे एक ऐसे महान लेखक थे जो जानते थे कि भावनाओं को कैसे व्यक्त किया जाता है, और पीड़ाओं को कैसे विस्तार से बताना चाहिए जिसे उनके पाठकों ने पढ़ते समय महसूस भी किया है।  

            अतः यह कहा जा सकता है कि कंवल जी एक ऐसे लेखक हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन लेखकीय अस्मिता की पहचान है। कंवल जी गिरमिट के दर्द भरे इतिहास को मानवीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि उनकी रचनाएँ सत्य पर आधारित है जो फीजी के प्रवासी भारतीयों की हृदय की गहराइयों में उतरकर वहाँ की दशा का सजीव और मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं।

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