दलदल के फूल

मैंग्रूव के जंगलों में छितरायी
अनगढ़ और भयावनी दुनिया
बदलती रहती है
हर घण्टे अपना चेहरा
पीछे से समन्दर भी
मैदान बदल-बदल कर
खेलता रहता है
लहरों के खेल…

सरकण्डों और मिट्टी के सहारे टिकी भीतों पर
सिर पटकते लोग
कोसते रहते हैं-ढूहों को, देवताओं को
पूनो के चाँद को भी
जो महीने में केवल एक ही दिन उठाता है ज्वार…

झंझाओं में अक्सर उड़ जाते हैं मछुआरों के छप्पर
और बिलकुल नंगे हो जाते हैं उनके बसेरे
खाली पेट
कुलबुलाती हैं नींदें
ऐसी मनहूस रातों में
चाँदनी में सोना भी उनके लिए होता है अशुभ …

सुबह पौ फटते ही
गाँव के सारे पुरुष व्यस्त हो जाते हैं
बची-खुची दीवारों को छत उढ़ाने में
और औरतें निकल जाती हैं बच्चों को छोड़कर
कहीं दूर खाना तलाशने …

तूफानों से तहस-नहस हाथी-घासों में टोहना
खोयी हुयीं पगडण्डियाँ,
भूखे बाघों को चकमा देकर
गुजर जाना बिलकुल सामने से,
अजगरों की कुंडली काटते हुए
जंगलों को पार करना,
ये कुछ शानदार जोखिम हैं
जो शामिल हैं उनकी खुशियों में…

हिंसक भालुओं की आँखों के ठीक नीचे
मधुमक्खियों के छत्तों से शहद चुरा लेना,
मैंग्रूव की झाड़ियों में
ठेगुनी तक कीचड़ में बूड़कर
सीपियाँ और घोंघे इकठ्ठा करना-
जैसे जीवन को किरणोज्ज्वल करना है…

तभी तो
ज्वार उतरने पर
समन्दर द्वारा किनारे फेंके गये
झींगे
अल्युमिनियम के बर्तनों में
भर देते हैं उजास
जबकि कलेवे में
केले के पत्तल पर परोसे गये
उबले हुए सूर्ख केकड़े
लगते हैं
दलदल के फूल…

*****

-राजीव श्रीवास्तव

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