शैक्षणिक दृष्टि से विदेशी भाषा के रूप में हिंदी तथा सिंहली भाषाओं का संरचनागत व्यतिरेकी अध्ययन
-अतिला कोतलावल
विदेशों में हिंदी और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी… इन दोनों में स्पष्ट अंतर है. वस्तुतः विदेशों में हिंदी का संबंध समाज भाषाविज्ञान से है तो विदेशी भाषा के रूप में हिंदी का संबंध भाषा शिक्षण से है। किसी भी भाषा का निर्माण अपने देश के भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक पक्षों को स्पर्श करता हुआ होता है। जिस भाषा को कोई अपनी मातृभाषा के रूप में बचपन से सुनता है, वह उसे अनायास ही हृदयंगम कर लेता है। उसी भाषा में सुनना, समझना और फिर उसी भाषा में बोलकर अपनी बात को व्यक्त करने की क्षमता विकसित करना एक अनायास और सहज प्रक्रिया है। अतः वह सहज रूप से मातृभाषा की ध्वनियों, शब्दों, वाक्य रचनाओं तथा भाषिक प्रयोगों से परिचित होता है। मातृभाषा के शिक्षण के द्वारा बालक की पूर्व अर्जित भाषिक शक्ति एवं कौशलों को संवर्धित किया जाता है। परंतु अन्य भाषा सीखनेवाले को नई ध्वनियाँ, नई शब्दावली, नई वाक्य संरचनाएँ और नये भाषिक प्रयोगों का सामना करना पड़ता है। यह भी सहज है कि कोई अन्य भाषा को सीखने का प्रयास करता है तो वह अपनी मातृभाषा के संरचनात्मक, अर्थगत एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ उसे अपनाने लगता है। परिणामस्वरूप उसे अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार मातृभाषा का प्रभाव अन्य भाषा पर पड़ना स्वाभाविक है। इसे ही भाषा विज्ञान में मातृभाषा व्याघात कहा जाता है।
इस शोध पत्र में मैं हिन्दी तथा सिंहली भाषाओं का संरचनागत समानताओं व असमानताओं पर प्रकाश डालूँगी। श्रीलंका तथा भारत के आपसी संबंधों का एक लंबा अतीत है। प्राचीन काल से ही दोनों देश सामाजिक, सांस्कृतिक अथवा आर्थिक आदान प्रदान के कारण एक दूसरे से इस प्रकार जुड़े हैं कि आज भी इनका संबंध भाई –भाई जैसा है। इतना ही नहीं जहाँ तक दोनों देशों की भाषाओं की बात आती है सिंहली और हिन्दी का भी काफ़ी लंबा अतीत है जो संस्कृत भाषा प्रधान काल से चला आ रहा है। दोनों भाषाएँ आर्य भाषा परिवार की हैं । दोनों भाषाओं की लिपियों का स्रोत भी एक ही ब्राह्मी लिपि है। दोनों भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। अतः व्याकरणिक संरचना और शब्द –भंडार भी इन्हें संस्कृत भाषा से ही विरासत में मिला है।
संस्कृत से निकली सिंहली भाषा श्री लंका के उत्तर और पूर्वी प्रांतों को छोड़कर अन्य सभी प्रांतों में बोली जाती है। सिंहली भाषाविद श्री माटिन विक्रमसिंह के कथन के अनुसार ‘‘सिंहली भाषा की उत्पत्ति तमिल भाषा से नहीं बल्कि हिन्दू आर्य प्राकृत से हुई है। पहले पाली से और इसके बाद संस्कृत तथा अन्य भाषाओं से इसका विकास हुआ। लेकिन सिंहली भाषा की उत्पत्ति हिन्दू आर्य प्राकृत से ही हुई है। यह वितर्क मान सकते हैं।”
237 ई॰ पू॰ में महिंद महाथेर के आगमन से पूर्व ही भारत के लाट राज्य के क्षत्रिय राजा सिंहबाहु के पुत्र विजय का आगमन श्री लंका में हुआ है। कहा जाता है कि उनके साथ सात सौ और लोग भी आए थे और और यहीं बस गए थे। आगे चलकर उनसे बसा प्रदेश सिंहल कहलाया और उनकी भाषा सिंहली। राजा विजय के बाद भी कई बार उत्तर के लोग श्रीलंका आये और उत्तर भारत की भाषाओं का संबंध सिंहली से बना रहा। विजय के आगमन से ही इस देश में एक लेखन प्रक्रिया चलती रही इस बात का प्रमाण सिंहली वंश कथाओं में मिलता है। 237 ई॰ पू॰ में महिंद महाथेर के आगमन के बाद पूरे देश भर में ब्राह्मी वर्णमाला का प्रसार शीघ्र गति से होने लगा था। कहा जाता है कि कई शतकों तक विकसित होने के बाद यह ब्राह्मी वर्णमाला पहले से विकसित रूप लिए हुए थे। नूतन सिंहली वर्णमाला का उद्भव इन दोनों के संकलन से हुआ है।
उक्त प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए मैं अपने लेख में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी सीखनेवालों पर व्यतिरेकी विश्लेषण के माध्यम से प्रकाश डालना चाहूँगी।भाषा विकास की दृष्टि से देखें तो प्राकृत, संस्कृत और पालि भाषा के माध्यम से दोनों भाषाओं में अधिक समानताएँ देखने को मिलती हैं। ऐसे होते हुए भी कुछ असमानताएँ भी देखने को मिलती हैं। जब किसी भी भाषा की शिक्षण की बात आती है तो दोनों भाषाओं की संरचनागत असमानताओं को ध्यान में रखकर थोड़ा सचेत होकर उन भाषाओं को आसानी से सीखा जा सकता है।
हिन्दी और सिंहली भाषाओं के ध्वनि / वर्ण रचना
विदेशी भाषा के रूप में हिंदी सीखने में सर्वप्रथम हिंदी की अपनी विशिष्ट और अर्थभेदक ध्वनियों पर बल देना पड़ता है। हिंदी ध्वनियों के उच्चारण में कुछ ऐसी ध्वनियाँ हैं जो सिंहली भाषा में भिन्न ढंग से उच्चरित होती हैं या जिनसे श्रीलंका के लोग पूरी तरह से अपरिचित हैं।
देवनागरी और सिंहली भाषा की वर्तमान में प्रयुक्त वर्णमाला
स्वर :
अ आ – – इ ई उ ऊ ऋ – – ए ऐ – ओ औ अं अः
අ ආ ඇ ඈ ඉ ඊ උ ඌ ඍ ඎ එ ඒ ඓ ඔ ඕ ඖ අං අං
- सिंहली वर्णमाला में आनेवाले कुछ स्वर हिन्दी वर्णमाला में नहीं हैं, जैसे कि ඇ ඈ ඎ එ ඔ
- सिंहली वर्णमाला में सम्पूर्ण स्वर 18 होते हैं जबकि हिन्दी में 13 हैं।
व्यंजन :
क ख ग घ ङ
ක ඛ ග ඝ ඞ
च छ ज झ ञ
ච ඡ ජ ඣ ඤ
ट ठ ड ढ ण
ට ඨ ඩ ඪ ණ
त थ द ध न
ත ථ ද ධ න
प फ ब भ म
ප ඵ බ භ ම
य र ल व
ය ර ල ව
श ष स ह
ශ ෂ ස හ
- सिंहली में व्यंजन 42 होते हैं जबकि हिन्दी में 33 हैं।
- इनके अलावा हिन्दी वर्णमाला में और कुछ व्यंजन हैं जो सिंहली वर्णमाला के अंतर्गत नहीं आते
हिन्दी में 2 विशिष्ट व्यंजन हैं। (ड़, ढ़ )
हिन्दी में 4 संयुक्त व्यंजन हैं। (क्ष, त्र, ज्ञ , श्र ) सिंहली में ज्ञ / ඥ नूतन प्रयोग में होने पर भी, वह अक्षर माला के अंतर्गत नहीं आता।
हिन्दी में कुछ आगत वर्ण भी हैं। (ऑ-अंग्रेजी से, ज़, फ़ -अरबी –फ़ारसी से )
हिन्दी और सिंहली भाषाओं की शब्द / पद रचना
हिन्दी के शब्द या पद संबंधी नियमों को ठीक प्रकार से पहचानने या याद रखने में भी हिंदी सीखनेवाले श्रीलंका के सिंहली लोगों को समस्याएँ होती हैं। किसी एक संज्ञा पद के लिंग, वचन, पुरुष, कारक आदि व्याकरणिक कोटियों के अनुसार अन्य पदों का स्वरूप किस तरह परिवर्तित होता है, इस पर भी ध्यान देना विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी सीखने में आवश्यक होगा।
लिंग :
सिंहली भाषा में तीन लिंग होते हैं।
पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग
सिंहली में चेतन संज्ञाओं का व्याकरणिक लिंग सामान्यतः प्राकृतिक लिंग के अनुरूप होता है और सभी अचेतन संज्ञाओं का लिंग सिंहली में नपुंसक लिंग का होता है।
लेकिन हिन्दी भाषा में दो ही लिंग होते हैं।
पुल्लिंग और स्त्रीलिंग
हिन्दी में भी बहुधा चेतन संज्ञाओं का व्याकरणिक लिंग प्राकृतिक लिंग के अनुरूप होने पर भी कुछ मनुष्येतर चेतन संज्ञाओं से दोनों जतियों का बोध होता है। पर वे व्यवहार के अनुसार नित्य पुल्लिंग व नित्य स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होती हैं। जैसे,
पुल्लिंग – पक्षी, कौआ, चीता, उल्लू, भेड़िया, खटमल इत्यादि।
स्त्रीलिंग – चील, कोयल, बटेर, तितली, मक्खी, गिलहरी, मछली, मैना इत्यादि।
हिन्दी में अचेतन संज्ञाओं का लिंग पुल्लिंग भी हो सकता है, स्त्रीलिंग भी, जिनका निर्धारण बहुत सुस्पष्ट और नियमित नहीं। यहाँ पर विशेष रूप से विदेशियों के लिए लिंग जानना विशेष कठिन हो जाता है। क्योंकि यह बात अधिकांश व्यवहार के अधीन निर्धारित होती है। अचेतन संज्ञाओं के अर्थ और रूप दोनों के अनुसार लिंग निर्धारण करने के लिए कई नियम हिन्दी व्याकरण ग्रन्थों में मिलते हैं। पर ये अव्यापक और अपूर्ण हैं। अव्यापक इसलिए कि एक नियम में जितने उदाहरण हैं उतने ही अपवाद हैं। अपूर्ण इसलिए हैं कि ये नियम थोड़े ही प्रकार के शब्दों पर बने हैं। शेष शब्दों के लिए कोई नियम नहीं हैं।
लिंग संबंधी नियमों में होनेवाली कठिनाइयाँ निम्न उदाहरणों से स्पष्ट होगा।
एक ही प्रकार की ध्वनियों से अंत होनेवाले कई शब्दों का कहीं-कहीं लिंग भिन्न होता है। जैसे
· खेत (पुल्लिंग ) / रात (स्त्रीलिंग )
· पानी (पुल्लिंग) / गाड़ी (स्त्रीलिंग)
· नमक (पुल्लिंग) / सड़क (स्त्रीलिंग)
· मधु (पुल्लिंग) / वायु (स्त्रीलिंग)
· गिरि (पुल्लिंग) / हानि (स्त्रीलिंग)
· गुलाब (पुल्लिंग) / शराब (स्त्रीलिंग)
· मकान (पुल्लिंग) / दुकान (स्त्रीलिंग)
· होश (पुल्लिंग) / लाश (स्त्रीलिंग)
· गुनाह (पुल्लिंग) / सलाह (स्त्रीलिंग)
· चलन (पुल्लिंग) / जलन (स्त्रीलिंग)
· जुलूस (पुल्लिंग) /मिठास (स्त्रीलिंग)
· आँसू (पुल्लिंग) / दारू ( स्त्रीलिंग)
· दिया (पुल्लिंग) / डिबिया (स्त्रीलिंग)
एक ही अर्थ के कई अलग-अलग शब्द कभी अलग–अलग लिंग के होते हैं। जैसे
· नेत्र (पुल्लिंग ) / आँख (स्त्रीलिंग)
· पत्र (पुल्लिंग ) /चिट्ठी (स्त्रीलिंग)
· विद्यालय (पुल्लिंग)/ पाठशाला (स्त्रीलिंग)
· पक्षी (पुल्लिंग) / चिड़िया (स्त्रीलिंग)
· रास्ता (पुल्लिंग) / सड़क (स्त्रीलिंग)
· ग्रंथ (पुल्लिंग) / किताब (स्त्रीलिंग)
· चित्र (पुल्लिंग) / तस्वीर (स्त्रीलिंग)
· सवेरा (पुल्लिंग ) /सुबह (स्त्रीलिंग)
· कथन (पुल्लिंग) /बात (स्त्रीलिंग)
कभी यह कहा जाता है कि बड़ी और विशाल वस्तुएँ पुल्लिंग में प्रयुक्त होती हैं और छोटी और मृदु वस्तुएँ स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होती हैं। जैसे
· पहाड़, पत्थर, आकाश, पाताल, देश, समुद्र, नगर, द्वीप, डाल, पेड़ इत्यादि शब्द पुल्लिंग के हैं,फिर भी
सरकार, पुलिस आदि शब्द स्त्रीलिंग के हैं।
· नदी, वायु, झील, आँख, लता, बेल इत्यादि शब्द स्त्रीलिंग के हैं, फिर भी फूल, गुलाब आदि पुल्लिंग के शब्द हैं।
निष्कर्ष यह है कि लिंग संबंधी इस व्यवस्था के कारण हिन्दी का अध्ययन अधिक जटिल प्रतीत होता है। विदेशी छात्रों के लिए हमेशा यह एक चुनौती रहती है। क्योंकि आगे की हिन्दी पढ़ाई में जगह – जगह पर व्याकरणिक नियमों का आधार इन्हीं लिंगों पर निर्भर रहता है।
सर्वनाम :
हिन्दी सीखनेवाले सिंहली विद्यार्थियों को हिन्दी की सर्वनाम व्यवस्था अधिक सुगम लगती है, क्योंकि सिंहली की सर्वनाम व्यवस्था में सर्वनामों की संख्या सिंहली में अधिक है और प्रयोग भी हिन्दी से अधिक जटिल है। जैसे
· मैं – मम/ मा
· हम – अपि/अप
· तू – तो / उंब
· तुम – तोपि/ नुंब
· आप – ओब
· यह – मोहु, मेय, मू, मे
· वह – ओहु, एय,ऊ, हेतेम,ए
· ये – मोवुहु, मेयला, मुन, मेवा
· वे – ओवुहु, एयला, उन, एवा
· कौन –कवुद(एकवचन ) कवुरुन्द(बहुवचन)
· जो –एतमेक (एकवचन) एतमहु (बहुवचन)
विभक्ति चिह्न / कारक / परसर्ग
हिन्दी और सिंहली भाषाओं में विभक्ति व्यवस्था में हिन्दी में अधिक सुव्यवस्था है जब कि सिंहली में यह व्यवस्था अधिक जटिल है। फिर भी कहीं–कहीं हिन्दी की ने विभक्ति और संबंध विभक्ति का, के, की के कारण हिन्दी सीखनेवाले विदेशियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
हिन्दी भाषा में आठ कारक होते हैं।
1. कर्ता कारक (Nominative) -ने
2. कर्म कारक (Objective) -को
3. करण कारक (Instrumental) -से, के द्वारा
4. संप्रदान कारक (Dative) -के लिए
5. अपादान कारक (Ablative) -से
6. संबंध कारक (Possessive) -का, के, की
7. अधिकरण कारक (Locative) -में, पर
8. संबोधन कारक (Vocative) -हे, अरे
सिंहली लेखन में नौ प्रकार की विभक्तियों की व्यवस्था है।
1. प्रथमा विभक्ति -तेम, तोमो, तुमू, आ, उ, एक, अक, ए, हु, ओ, वल-सिर्फ संज्ञा के साथ
2. कर्म विभक्ति -व
3. करण विभक्ति -विसिन
4. करण विभक्ति -न, मगिन
5. संप्रदान विभक्ति -ट, वेनुवेन
6. अवधि विभक्ति -न
7. संबंध विभक्ति -गे
8. आधार विभक्ति -हि, तुल, मत
9. आलापन विभक्ति – अ, आ, ए, ओ, इनि, इन, उनि, उने, एनि, अनि, नि-सिर्फ संज्ञा के साथ हिन्दी में कारक संबंधी एक नियम यह है कि किसी भी संज्ञा के साथ जब कारक का प्रयोग होता है तो दोनों अलग –अलग लिखे जाते हैं जबकि सर्वनाम के साथ एक साथ लिखे जाते हैं।
सिंहली में इन दोनों स्थितियों में अधिकतर एक साथ ही लिखे जाते हैं।जैसे
सर्वनाम के साथ विभक्तियों का प्रयोग : संज्ञा के साथ विभक्तियों का प्रयोग
मुझे –मट पेड़ पर – गसे
मुझसे –मगेन आदमी को –मिनिसाट
तुम्हारा – ओयागे घर में – निवसे
सामान्यतः संबंध कारक सहित वाक्यों में उत्तर पद के परिणामस्वरूप पूर्व में आनेवाला संबंध विभक्ति का विकार होता है जबकि सिंहली में इस प्रकार से कोई परिवर्तन विभक्ति चिह्न में नहीं होता। जैसे
मेरा बेटा – मगे पुता
मेरे बेटे – मगे पुताला
मेरी बेटी – मगे दुव
मेरी बेटियाँ – मगे दुवला
कारक संबंधी सबसे बड़ी समस्या हिन्दी के कर्ता कारक ने के कारण उत्पन्न होती है। सिंहली में ऐसी संकल्पना ही नहीं है, जिसके कारण भूतकालिक सकर्मक वाक्य बनाने में अक्सर विद्यार्थियों को चुनौती का सामना करना पड़ता है।
विशेषण :
विशेषण संबंधी नियम भी सिंहली की अपेक्षा हिन्दी में सीमित हैं। क्योंकि हिन्दी में संज्ञा के अनुसार जहाँ कुछ विशेषणों का विकार होता है तो कुछ विशेषणों का विकार नहीं होता। लेकिन सिंहली में कहीं पर भी संज्ञा के अनुसार विशेषण नहीं बदलता। जैसे
हिन्दी में सिंहली में
अच्छा लड़का होंद पिरिमिलमया
अच्छे लड़के होंद पीरिमिलमइ
अच्छी लड़की होंद गहनुलमया
अच्छी लड़कियाँ होंद गहनुलमइ
हिन्दी में विशेषण संबंधी नियमों में आ स्वरांत विशेषण विकारी होते हैं।यानि ये विशेषण संज्ञा के अनुसार बदलते है। जैसे
अच्छा, बुरा, छोटा, मोटा, पुराना, पतला, ऊँचा इत्यादि
ऐसे होते हुए भी कुछ आ स्वारांत विशेषणों का संज्ञा के अनुसार विकार नहीं होता। जैसे
बढ़िया, घटिया, ताज़ा, ज़्यादा इत्यादि
बढ़िया घर
बढ़िया गाड़ी
बढ़िया दावत
हिन्दी में संख्यावाचक शब्द संज्ञा से पूर्व प्रयुक्त होता है, जबकि संख्यावाचक शब्द संज्ञा के बाद प्रयुक्त होता है। जैसे,
दोनों आँखें – एस देक
पाँच घर – गेवल पह
बहुत लड़के – कोललो गोडक
हिन्दी और सिंहली भाषाओं की वाक्य रचना
हिन्दी और सिंहली दोनों भाषाओं की भाषिक अभिव्यक्तियों के स्वरूप में भी पर्याप्त समानताएँ होने पर भी कहीं–कहीं कुछ असमानताएँ भी देखने को मिलती हैं। दोनों भाषाएँ SOV (subject/object/verb)भाषाएँ हैं। दोनों में मुख्यतः कर्ताप्रधान होता है।
अन्विति
हिन्दी वाक्यों में कर्ता या कर्म के साथ क्रिया का, संज्ञा या सर्वनाम के साथ विशेषण का या और कोई पदों के मध्य अन्वय होता है। जब वाक्यों के किसी एक संज्ञा पद के लिंग, वचन, पुरुष, कारक आदि व्याकरणिक कोटियों के अनुसार अन्य पदों का भी स्वरूप निर्धारित होता है, तब इसे अन्विति कहा जाता है। हिन्दी में अन्विति के प्रमुख चार प्रकार हैं।
1) कर्ता, कर्म और क्रिया की अन्विति
(क) कर्ता और क्रिया की अन्विति
(ख) कर्म और क्रिया की अन्विति
2) संज्ञा –सर्वनाम की अन्विति
3) विशेषण –विशेष्य की अन्विति
4) संबंध –संबंधी की अन्विति
इसी अन्विति को सिंहली भाषा में “उक्त-आख्यातय कहते हैं क्रिया के करनेवाले को “उक्तय” (कर्ता)कहा जाता है और कर्ता द्वारा की जानेवाली क्रिया को “आख्यातय” कहा जाता है कर्ता के द्वारा करने वाली क्रिया के अधीन जो वस्तु या प्राणी है, उसे कर्म कहा जाता है। हिन्दी भाषा में कर्ता के अनुरूप ही क्रिया का प्रयोग होता है। इसलिए सिंहली में केवल कर्ता क्रिया अन्विति होती है।
1. कर्ता और क्रिया की अन्विति
यह दोनों भाषाओं में हैं। यदि वाक्य में कर्ता परसर्ग रहित हो तो क्रिया कर्ता के लिंग, वचन तथा पुरुष के अनुसार बदलता है। जैसे,
रवि पानी पीता है। रवि वातुर बोन्नेय।
सीता खाना बनती है। सीता केम हड़न्नीय।
हम घर जाते हैं। अपि गेदर यन्नेमु।
मैं काम करता हूँ। मम वेड करमि।
2. कर्म और क्रिया की अन्विति
हिन्दी में यदि क्रिया परसर्ग सहित है यानि कर्ता के साथ “ने” अथवा कोई और परसर्ग हो तो क्रिया की अन्विति कर्ता के साथ नहीं होती है। इस स्थिति में कर्म या पूरक के बाद किसी अन्य परसर्ग का प्रयोग न हुआ हो, तो क्रिया की अन्विति कर्म या पूरक के लिंग, वचन तथा पुरुष के अनुसार होती है। लेकिन सिंहली भाषा में हिन्दी भाषा की तरह कर्म और क्रिया की अन्विति नहीं होती। जैसे,
• रवि ने दूध पिया। रवी किरि बिव्वेय।
• रवि ने चाय पी। रवी ते बिव्वेय।
• सीता ने दो आम खाये। सीता अम्ब देकक केवाय।
• सीता ने दो रोटियाँ खायीं। सीता रोटी देकक केवाय।
3. निरपेक्ष अन्विति (शून्य अन्विति )
यदि वाक्य में कर्ता या कर्म दोनों के बाद परसर्ग हो तो क्रिया की अन्विति न तो कर्ता के साथ होती है और न ही कर्म के साथ होती है। इस स्थिति में क्रिया हमेशा क्रिया हमेशा पुल्लिंग एकवचन में आती है। लेकिन सिंहली भाषा में यह अन्विति भी नहीं होती। यहाँ पर भी क्रिया हमेशा कर्ता पर निर्भर रहती है।
• अध्यापिका ने छात्रों को पढ़ाया। गुरुतुमिय शिष्यन्ट इगेन्नूवाय।
• रवि ने नौकरानी को डाँटा। रवी सेविकावट बेन्नेय।
• सीता ने नौकरानी को डाँटा। सीता सेविकावट बेन्नाय।
• उसने कुत्ते को मारा। ओहु बल्लाट गेहुवेय।
4. विशेषण –विशेष्य की अन्विति
हिन्दी में यदि विशेष्य से पहले या बाद में विशेषण का प्रयोग हो, तो आकारांत विशेषण विशेष्य के लिंग तथा वचन के अनुसार बादल जाते हैं। आकारांत विशेषणों को छोड़कर अन्य सभी विशेषण विशेष्य के अनुसार न बदलकर एक समान ही होते हैं। लेकिन सिंहली भाषा में विशेषण शब्द विशेष्य के लिंग तथा वचन के अनुसार कभी नहीं बदलते, विशेष्य के साथ एक समान ही प्रयोग होते हैं।
• वह लड़का अच्छा है। ए पिरिमिलमया होदई।
• वे लड़के अच्छे हैं। ए पिरिमिलमई होदई।
• वह लड़की अच्छी है। ए गहनुलमया होदई।
• वे लड़कियाँ अच्छी हैं। ए गहनुलमई होदई।
5. संबंध –संबंधी की अन्विति
हिन्दी में संबंध कारक लिंग तथा वचन संबंधी के लिंग तथा वचन के अनुसार बदलता है। लेकिन सिंहली में संबंध कारक अविकारी होते हैं इसलिए संबंध कारक लिंग तथा वचन के अनुसार कभी नहीं बदलते।
• यह मेरा स्कूल है। मेक मगे पासलय।
• यह मेरी माँ है। मेय मगे अम्माय।
• ये मेरे गुरु जी हैं। मेतुमा मगे गुरुतुमाय।
सिंहली विद्यार्थियों को वाक्य संरचना में समस्या उत्पन्न होनेवाली कुछ स्थितियाँ इस प्रकार के भी हैं।
1.सिंहली में शक्यार्थ में कर्ता के साथ को का प्रयोग होता है जब की हिन्दी में को का प्रयोग नहीं होता।
हिन्दी में सही हिन्दी में गलत
मैं गीत गा सकती हूँ। (मुझे गीत गा सकती हूँ। )
लड़का नाच सकता है। (लड़के को नाच सकता है )
बहन खाना बना सकती है। (बहन को खाना बना सकती है।)
2.सिंहली में आता, चाहिए क्रिया के साथ कर्ता में को विभक्ति का प्रयोग नहीं होता, जबकि हिन्दी में होता है।
मुझे कार चलाना आता है।
मुझे घर जाना चाहिए।
3.सिंहली में चाहता के प्रयोग के साथ कर्ता में को विभक्ति का प्रयोग होता है, जबकि हिन्दी में को विभक्ति नहीं लगती।
मैं संगीत सीखना चाहती हूँ।
भाई गाड़ी चलना चाहता है।
4.वाक्यों को जोड़ने वाले कि अव्यय का प्रयोग सिंहली में वाक्य के अंत में होता है, जबकि हिन्दी में वाक्य के बीच में इसका प्रयोग होता है।
लोग कहते हैं कि वह महान् आदमी है।
मुझे पता है कि कल छुट्टी है।
इस प्रकार सही भाषा शिक्षण के लिए यह आवश्यक है कि त्रुटिविश्लेषण और व्यतिरेकी विश्लेषण के द्वारा तुलनात्मक अध्ययन करते हुए नई भाषा को सीखनेवाले नवागत छात्रों को शिक्षण बिंदुओं से अवगत कराया जाए और इनका सतत अभ्यास करवाया जाए।
