पीला पत्ता
रुको साथी, हटा लो हाथ को,
न तोड़ो, छोड़ दो, पीले पड़े इस पात को।
कहा तुमने, हरित इस डाल पर,
यह अब नही सजता।
नये, चिकने, चमकते किसलयों के बीच,
है कुछ अलग सा लगता।
किन्तु यह रंग पीला ही,
अगर पहचान है इसकी,
निहारो ध्यान से, परखो,
सराहो शान को इसकी।
लिये अपना कलेवर पीत,
यह कैसा दमकता है,
कि जैसे गहन काली रात में,
जुगनू चमकता है।
समझता नहीं निज को कम,
उमंगों से भरा है मन,
लिये उत्साह–सौरभ,
आज चन्दन सा गमकता है।
और सोचो ज़रा साथी,
नहीं यह मंच पर अब है।
प्रफुल्लित, शाख पर अटका हुआ,
बस देखता सब है।
अगर यह चाहता है,
रुक सके इस डाल पर कुछ और,
रहे थामे करों से देर कुछ,
अपना पुराना ठौर,
करे यह चाह पूरी,
आज यह अधिकार इसका है।
गिरे भू पर, रुके ऊपर,
चुने, यह भार इसका है।
ग्रीष्म के हर तपित निश्वास ने
इसको जलाया है।
शिशिर के कठिन झंझावात में,
यह कँपकपाया है।
भला थे कौन से पत्थर
नहीं इस पर गये तोड़े?
प्रकृति ने कब दुलारा,
कब हटाये राह से रोड़े?
समय की चोट खाकर भी,
हठी यह मुस्कराया है।
नियति के वार से आहत हुआ
पर खिलखिलाया है।
अपरिमित यातना सह,
पीत इसने वर्ण पाया है।
पल्लवों पर नये सुंदर,
इसी की सुखद छाया है
और फिर . . .
सका है कौन विधि के नियम से लड़
जो लड़ेगा यह?
नही यदि आज तो कल, थक,
धरा पर आ गिरेगा यह।
प्रतीक्षित, भूमि पर फैले,
समय की धूल से मैले,
विगत के संग छूटे साथियों से
जा मिलेगा यह।
मगर तब तक इसे, इसकी प्रिया
इस डाल पर छोड़ो।
नही साथी, हटा लो हाथ,
मत इस पात को तोड़ो॥
*****
-अचला दीप्ति कुमार