लोग सो रहे हैं या साजिशें कर रहे हैं

एक बार फिर
मेरे गाँव में
फसलों के मौसम में
बच्चे उग आए हैं
और मैं
कलम थामे तैयार हूँ
कविता करने के लिए।

यहाँ-वहाँ लोग
या तो सो रहे हैं
या साजिशें कर रहे हैं

जो सो रहे हैं
वो जानते हैं
उन्हें
किसी तह में जाने की जरूरत नहीं
ऊपर वाला अच्छा है
अच्छा ही करता होगा
हम ही पिछले जन्म में
रोज
खोलते होंगे किसी की भैंस।

वैसे
मुझसे परेशान दोनों ही हैं
जो साजिशें कर रहे हैं
वे कहते हैं
ये हर मौसम में
कविता ही क्यों लिखता है
और कविता करने के लिए
इसे क्यों नहीं मिलता
जम्हाई लेता सूरज
ललसाया- सा चाँद
लिखे किसी आदर्श पर।

कैसे लिखूँ-किसी आदर्श पर
जब मैं देख चुका हूँ
कि तुमने अपने छोटे बेटे के हाथ
पिछली गली से
रात में पकाने के लिए आदर्श ही भेजे हैं।

मेरे दोस्त
मेरी सोच मेरी मजबूरी है
तुम नहीं जानते
एक तनावग्रस्त आदमी के लिए
लिखना
कितना जरूरी है।

हो सकता है
मेरी कविता से
इस मौसम में न उगे
कोई बेर
पर मैं
कंटीले झाड़ तो उगा सकता हूँ
जो किसी की गुद्दी में फँस जाएँ
और पूछे
ऐसा क्यों है ?

तुम अब घबरा गए
मैंने कहा घबराओ मत
मुझे
राहत शिविरों में खाये जा रहे चन्दे से कोई सरोकार नहीं
मैं तो
उस ओस की बूँद को बचाने आया हूँ
जिसे
चारों तरफ से हत्यारे घेर चुके हैं।

तुमने कहा
कितना हरामी है
सब कुछ कहता है
जान लो
जितना लिखा है, थोड़ा है
मन में तो
बहुत कुछ रहता है।

पूरा तो
सिर्फ मेरी पत्नी जानती है
उससे पूछो
रात की थकी हुई
कैसे दिन धकेलती है
कभी पेट
कभी बच्चे की कसम खा
उधार देने वाले बनिए से
कैसे झूठ बोलती है
तब तुम्हें
समझ में आ जायेगी कविता
वरना
मैं तो
शालीन हूँ
समझदार हूँ
सभ्य हूँ
कवि हूँ न।

पर मेरी शालीनता ही
मुझे थप्पड़ मारती है
दिन-रात
कभी ऐसा हुआ है
आपके साथ ?

जब आपको पता लगा हो
जीने के लिए
बदतमीज़ होना कितना जरूरी है
बदतमीज़ लोग
औरों का दिल दुखाते हैं
शालीनता जलाती है
अपनी ही चमड़ी
पर
मैं तो सभ्य हूँ, शालीन हूँ, कवि हूँ न
इसीलिए तो
हाशिए छोड़कर लिखता हूँ।

तभी एक अजनबी पेड़ से
सतर्क हवाओं की गिरफ्तारी की बात सुन
मुझे
कोई आश्चर्य नहीं हुआ
मैं जानता हूँ-
पेचीदगियों से बेखबर लोग
कैसे फँस जाते हैं
तब तुमने मुझसे कहा था
छोड़ो ईमानदारी
देखो
एक ईमानदार आदमी
जिन्दगी भर भूखा रहकर
क्या अर्जित करता है आज
चन्द बेईमान लोगों का विश्वास
जिन्हें छुरा घोंपते हुए
चेहरा देखने की आदत नहीं होती।

और वो लोग
जो कर रहे हैं
गंगा प्रकट होने का इन्तजार
हर बार की तरह
इस बार भी
कुआँ खोदने के बजाए
प्रार्थना के लिए
इकट्ठे हो गए हैं
मैंने उनसे कहा था
दो-चार बगुले छोड़ दो
इस काम के लिए।

कान फोड़ती आवाज के
पहुँचने पर ही
वे जानेंगे
कि आज चूहे भी
बिल्ली के गले में
घन्टी बाँधने
इकट्ठे हो गए हैं।

दरअसल
आदमी को
कोई नहीं डराता है
वो
अपने आप से ही
भय खाता है
हो सकता है
टूट ही जाए कोई दीवार।

पर कोई नहीं आता
मैं ही चीखता हूँ-चिल्लाता हूँ
पतझड़ में
बसन्त के सपने बुने जाता हूँ
इधर उधर
लोग
या तो सो रहे हैं
या साजिशें कर रहे हैं।

*****

-अनिल जोशी

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